दो हालिया घटनाक्रमों को, जिन दोनों में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत शामिल रहे हैं, मीडिया ने ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है. लेकिन दोनों अहम हैं और उन्हें देखने से अंदाज़ा होता है, कि विश्व मंच पर भारत अपने कूटनीतिक और सैन्य पत्ते कैसे खोल रहा है.
सीडीएस बनने के बाद अपने पहले विदेश दौरे में, जन. रावत सितंबर में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शांति मिशन अभ्यास में हिस्सा लेने के लिए रूस गए. अपने दो दिन के दौरे में उन्होंने ऑरेनबर्ग में एससीओ सदस्य देशों के, जनरल स्टाफ प्रमुखों की के सम्मेलन में भी हिस्सा लिया, जहां पाकिस्तान और चीन से आए उनके समकक्षी भी मौजूद थे.
General Bipin Rawat #CDS is on a two day visit to #Russia. The #CDS attended the conference of the Chiefs of General Staff of the Shanghai Cooperation Organisation #SCO member states in #Orenburg at #Russia. pic.twitter.com/a7K1czMY7k
— ADG PI – INDIAN ARMY (@adgpi) September 23, 2021
भारत ने लगभग दो सप्ताह चलने वाले शांतिपूर्ण मिशन अभ्यास के लिए 200 कर्मियों का दल भेजा था, जो 13 सितंबर को शुरू हुआ.
रूस से जनरल रावत सीधे उड़ान भरकर अमेरिका गए, जहां उन्होंने अपने अमेरिकी समकक्षी जनरल मार्क मिली से मुलाक़ात की.
पेंटागन की ओर से जारी एक बयान के अनुसार, दोनों सैन्य नेताओं ने व्यापक विषयों पर चर्चा की, जिनमें क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के तरीक़े, और सिविलियन नेतृत्व के प्रमुख सैन्य सलाहकार के नाते, उनकी अपनी अपनी भूमिकाएं शामिल थीं.
ये दो दौरे उन सिलसिलेवार यात्राओं की शुरुआत भर हैं, जो सीडीएस भारत की सैन्य कूटनीति को चलाने के लिए कर सकते हैं.
सैन्य कूटनीति को नया बढ़ावा
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद से, सैन्य कूटनीति के दायरे को फैलाने के लिए, इसे काफी बढ़ावा दिया गया है.
आज़ादी के बाद से ही भारत अपने सैन्य प्रशिक्षण केंद्रों पर विदेशी कैडेट्स को ट्रेनिंग देकर, सैन्य कूटनीति को अंजाम देता रहा है, लेकिन उसका कभी पूरी तरह फायदा नहीं उठाया गया.
2015 में एक लेख में, विदेश नीति विशेषज्ञ सी राजा मोहन ने कहा था, ‘1990 के दशक की शुरुआत से भारत के अंतर्राष्ट्रीय डिफेंस एंगेजमेंट्स में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई है, लेकिन भारत की सैन्य कूटनीति का प्रभाव पर्याप्त राजनीतिक समर्थन के आभाव, तथा सशस्त्र बलों, और रक्षा मंत्रालय, तथा विदेश मंत्रालय के बीच अपर्याप्त समन्वय के चलते बहुत सीमित रहा है’.
उन्होंने कहा था, ‘सेवाएं और एमईए भारत की सैन्य शक्ति का फायदा उठाने का महत्व समझती हैं, लेकिन एमओडी के पास न तो कौशल है, और न ही संस्थागत क्षमता है, कि वो भारत के साथ रक्षा समन्वय की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय मांग को पूरा कर सके.
उसके बाद से बहुत कुछ घट चुका है.
सैन्य कूटनीति में सबसे छोटे लेकिन सबसे प्रभावशाली दांतें हैं, विदेशी दूतावासों में तैनात रक्षा अताशे (डीए). ये सुनिश्चित करने के लिए कि रक्षा अताशे एक बड़ी भूमिका अदा करें, ख़ासकर रक्षा निर्यातक के नाते भारत को आगे बढ़ाने के मामले में, उन्हें ज़्यादा सशक्त किया गया है.
डीएज़ को जिनकी रक्षा उद्योग के मामले में पारंपरिक रूप से महज़ एक औपचारिक भूमिका रही है, अब उत्प्रेरक का काम करने के लिए एक समर्पित बजट आवंटित किया जाता है. उन्हें डिफेंस एक्सपो और एयरो इंडिया शो में शिरकत करने का निर्देश दिया गया है, और उन्हें स्पष्ट रूप से कहा गया है, कि भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए, सैन्य और उद्योग दोनों स्तरों पर, मेज़बान देशों से संपर्क स्थापित करें.
आप शायद कह सकते हैं कि इस मामले में भारत ने चीन से इशारा लिया है.
जैसा कि 2015 के शुरु में राजा मोहन के लेख में कहा गया था, ‘चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी (सीसीपी) ने विदेशों में तैनात अपने सभी सैन्य अताशे और सलाहकारों, तथा रक्षा अधिकारियों को देश के अंदर जमा किया’. इन अधिकारियों को राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मुख़ातिब किया, जिन्होंने बीजिंग के बड़े राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने में, सैन्य कूटनीति के महत्व पर ज़ोर दिया’.
‘शी ने सुझाव दिया कि एशिया और विश्व में, एक महान शक्ति के रूप में चीन के उत्थान को बल देने के लिए, एक अधिक उद्देश्यपूर्ण सैन्य कूटनीति बहुत आवश्यक है’.
जैसा कि इसी साल दिप्रिंट ने ख़बर दी थी, नई दिल्ली ने उन देशों के साथ आने का फैसला किया है, जो अपनी पहुंच और प्रभाव बढ़ाने के लिए, ऐसे छोटे देशों को हथियार और सैन्य उपकरण बेंचने की पेशकश करते हैं, जो अपनी ज़रूरतों के लिए आयात पर निर्भर करते हैं.
भारत ने खुले तौर पर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों को हथियार निर्यात करने की पेशकश की है, जहां पारंपरिक रूप से चीन का दबदबा रहा है.
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कूटनीति का मिश्रण
डीएज़ को इस नए बढ़ावे का ज़िम्मा संभालने का निर्देश देने के अलावा, प्रमुख विश्व शक्तियों के साथ बातचीत में, भारत पारंपरिक और सैन्य कूटनीति के मिश्रण पर भी ज़ोर दे रहा है.
इसलिए, 2018 में पहली बार भारत और अमेरिका के बीच 2+2 संवाद हुआ, एक ऐसा फॉर्मेट जिसे भारत ने दूसरे देशों में भी विस्तारित कर दिया है. भारत 2+2 फॉर्मेट के साथ ये प्रयोग भी कर रहा है, कि संवाद स्थापित होने के बाद, नए कूटनीतिक अवसरों की तलाश में, भारतीय सैन्य प्रमुख संबद्ध देशों के दौरे भी करते हैं.
एक अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए, सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने पिछले साल दिसंबर में, सऊदी अरब और यूएई का दौरा किया, जो भारत और मध्य पूर्व के देशों के बीच बढ़ते रिश्तों का संकेत देता है. किसी भी भारतीय सेना प्रमुख का सऊदी अरब का वो पहला दौरा था, और यूएई का उनका दौरा विदेश मंत्री एस जयशंकर के दौरे के कुछ ही समय बाद हुआ था.
भारत ने सैन्य कूटनीति के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा देशों की ओर हाथ बढ़ाना शुरू किया है, चाहे वो मानवीय सहायता के लिए हो, साझा अभ्यास हों, या क्वॉड जैसे नए समूह हों जो मुख्य रूप से चार देशों के साझा सैन्य हितों से संचालित होते हों, भले ही सरकार अभी भी उसे एम शब्द से जोड़ने में झिझक रही हो.
2021 में बड़ी संख्या में द्विपक्षीय, त्रिपक्षीय, और बहुपक्षीय साझा अभ्यास देखे गए, जो भारत में और बाहर आयोजित किए गए. इस कॉलम के लिखे जाते समय भी, भारतीय सेना ब्रिटिश और श्रीलंकाई सेना के साथ अभ्यास कर रही है, जबकि नौसेना जापानियों के साथ अभ्यास में है. इसी साल वो ब्रिटेन के साथ भी एक अभ्यास करेगी.
इसी साल, भारतीय वायुसेना (आएएफ) के छह एसयू-30 एमकेआई लड़ाकू विमानों ने, यूएई के बहुराष्ट्रीय अभ्यास डेज़र्ट फ्लैग में हिस्सा लिया.
भारत ने ठीक से समझ लिया है कि परंपरागत कूटनीति और सैन्य कूटनीति के मेल से ही नतीजे मिलेंगे- कभी कभी और कुछ क्षेत्रों में, सिविलियन से ज़्यादा सैन्य कूटनीति काम आएगी. जैसा कि मैंने फरवरी के अपने कॉलम में लिखा था, ‘जब आप कोई हथियार बेंचते हैं, तो आप सिर्फ एक सिस्टम नहीं बेंच रहे होते, बल्कि अपने लिए एक सामरिक वज़न ख़रीद रहे होते हैं’.
यहां व्यक्त विचार निजी हैं
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