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Friday, 22 November, 2024
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विश्व रंगमंच दिवस: बना रहेगा थिएटर का वजूद

रंगमंच की दशा, दुर्दशा, उम्मीदों, संभावनाओं को लेकर बातें होती हैं, चिंताएं जताई जाती हैं.

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1961 से हर बरस 27 मार्च को दुनिया भर में वर्ल्ड थिएटर डे यानी विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है. रंगमंच की दशा, दुर्दशा, उम्मीदों, संभावनाओं को लेकर बातें होती हैं, चिंताएं जताई जाती हैं. इस अवसर पर रंगमंच से जुड़े कुछ फिल्मी कलाकारों के विचार

रंगमंच ने बनाया बेहतर इंसान- पंकज त्रिपाठी

पंकज त्रिपाठी

रंगमंच हमेशा से था और हमेशा रहेगा. अक्सर यह प्रलाप होता है कि थिएटर मर रहा है, यह खत्म हो जाएगा. लेकिन मुझे नहीं लगता कि कभी ऐसा होगा. हां, यह एक चुनौती जरूर है कि थिएटर के जरिए एक साथ हजारों-लाखों लोगों तक पहुंच पाना मुमकिन नहीं होता क्योंकि यह कला का एक सजीव माध्यम है. इसमें दर्शक भी सजीव होते हैं और कलाकार भी. लेकिन यह चुनौती ही रंगमंच को जिलाए हुए है. रंगमंच ने मुझे एक बेहतर अभिनेता ही नहीं, एक बेहतर इंसान भी बनाया है. लेकिन हिन्दी का रंगमंच अपने कलाकारों के लिए जीविका चलाने का इकलौता साधन नहीं बन पाया है. जिस दिन यह हो जाएगा, उस दिन हमारे यहां भी विश्वस्तरीय थिएटर होगा.

बना रहेगा थिएटर का वजूद- राकेश चतुर्वेदी

राकेश चतुर्वेदी

जब तक एक इंसान को दूसरे इंसान से बात करने की जरूरत महसूस होती रहेगी, थिएटर जिंदा रहेगा, और इसी वजह से इसका दायरा अब बढ़ गया है. लोग हल्के-फुल्के नाटकों से लेकर धीर-गंभीर रंगमंच को भी सराह रहे हैं. इधर जिस तरह से कहानियां के मंचन को रंगमंच में पसंद किया जाने लगा है उससे तो थिएटर को एक नई प्राणवायु मिली है. किस्सागोई की जो विधा लगभग लुप्त हो गई थी उसे हम जैसे कलाकार फिर से जीवित कर रहे हैं और लोग भी हमें हौसला दे रहे हैं. जैसे टी.वी. के आने के बावजूद सिनेमा का अस्तित्व खत्म नहीं हुआ, उसी तरह से थिएटर का वजूद भी हमेशा बना रहेगा.

चुनौतियों का सामना करता है थिएटर- सुजेन बर्नर्ट

थिएटर को सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हमेशा से चुनौतियों का सामना करना पड़ता रहा है. मैं जब जर्मनी में थी तो वहां भी यही हालात थे और यहां भी मैं यही देखती हूं. अगर आपके पास स्पॉन्सर नहीं हैं तो आप अच्छा थिएटर नहीं कर सकते. खासतौर से हिन्दी थिएटर तो अपनी प्रयोगधर्मिता की वजह से भी पीछे जा रहा है. जबकि मैं मुंबई में देखती हूं कि गुजराती और मराठी थिएटर देखने के लिए भीड़ लगती है. मुझे लगता है कि थिएटर को आगे बढ़ाने के लिए आम लोगों के साथ-साथ सरकारों, संस्थाओं, कंपनियों को भी आगे आना चाहिए ताकि यह एक मरती हुई कला न बन कर रह जाए.


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थिएटर से बड़ा कोई स्कूल नहीं- गोविंद नामदेव
गोविंद नामदेव

थिएटर मुझे इस कदर पसंद है कि दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से डिग्री लेने के बाद भी मैं कई साल तक यहीं टिका रहा कि पहले खुद को और मांज लूं, उसके बाद मुंबई जाऊंगा. आज भी मैं हर साल एक हफ्ते के लिए एनएसडी में आकर नए कलाकारों को पढ़ाता हूं. मुझे लगता है कि थिएटर से बड़ा अभिनय का स्कूल कोई दूसरा नहीं है. अगर आपने इस स्कूल की पढ़ाई सही तरीके से कर ली तो फिर आप कहीं मात नहीं खा सकते. सिर्फ थिएटर करना थोड़ा जोखिम भरा जरूर है लेकिन थिएटर के कलाकारों को काम, नाम और दाम की कमी नहीं रहती और अपनी ट्रेनिंग के दम पर वह आगे बढ़ते चले जाते हैं.

थिएटर से है मेरा अस्तित्व -राजेश तैलंग

राजेश तैलंग

मैं अपनी बात करूं तो यदि मेरे जीवन में थिएटर न आया होता तो मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं होता. रंगमंच की वजह से ही मैं दिल्ली आया, इसी के कारण मुंबई पहुंचा और जो कुछ भी मैंने जीवन में पाया, थिएटर के कारण ही पाया. हालांकि मुझे अफसोस है कि इधर कुछ समय से मैं खुद थिएटर नहीं कर पा रहा हूं लेकिन थिएटर देखना और उससे सीखना मैंने नहीं छोड़ा है. साथ ही नए कलाकारों को यदि मुझसे कुछ सीखना होता है तो भी मैं पीछे नहीं हटता. पिछले दो साल में लॉकडाउन ने रंगमंच से जुड़े लोगों को काफी नुकसान पहुंचाया है. मुझे लगता है कि कलाकार बिरादरी, आम दर्शकों और सरकार को भी उनकी मदद के लिए कुछ करना चाहिए.

बहुत कुछ सिखाया थिएटर ने- डॉली आहलूवालिया

मैं आज जो कुछ भी हूं, वह सब नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की ही देन है क्योंकि वहां पर जो कोर्स करवाते हैं उसमें थिएटर के हर एक पहलू से परिचित करवाया जाता है. जब मैं वहां पर थी तो वहां बाहर के डिजाइनर आते थे तब मेरे टीचर इब्राहिम अलकाजी ने मुझे बोला कि डॉली तुम कॉस्ट्यूम का काम करो. उन्होंने पता नहीं कैसे यह भांप लिया कि मेरी आंखें रंगों को, कॉस्ट्यूम्स को पकड़ लेती हैं. वहीं से शुरुआत हुई और धीरे-धीरे मुझे वह काम इतना ज्यादा अच्छा लगने लगा कि मैं पूरी तरह से उसी में रम गई. आज लोग मेरी एक्टिंग की भी तारीफ करते हैं तो यह भी थिएटर की ही देन है. थिएटर हमें यही सिखाता है कि गौर करो, ऑब्जर्व करो और आत्मसात करो.


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गोता लगाना सिखाता है थिएटर- नीरज कबी

मुझे लगता है कि थिएटर हम कलाकारों को ट्रांस्फोर्मेशन सिखाता है. किसी किरदार में कैसे ढलना है, कैसे खुद को भुला कर उस किरदार की आत्मा में प्रवेश करना है, यह थिएटर से बेहतर और कोई नहीं सिखा सकता. किसी भी कलाकार को अभिनय की बारीकियां सीखनी हों या उसमें गहराई तक गोता लगाना हो तो थिएटर से बेहतर माध्यम कोई दूसरा नहीं हो सकता.

अमर है थिएटर- राज अर्जुन

भोपाल में मैंने बहुत साल तक थिएटर किया. हबीब तनवीर साहब के साथ भी काम किया. थिएटर ने मुझे सिखाया कि जब कोई किरदार करो तो खुद को उस किरदार में तब्दील कर लो. आसपास कौन लोग हैं, कैसा माहौल है, इन सब से परे जाकर मैं सिर्फ और सिर्फ अपने किरदार में खो जाता हूं, उसी की तरह बर्ताव करने लगता हूं. थिएटर अमर है. मुमकिन है कि कल को किसी तकनीकी कारण से सिनेमा न रहे, लेकिन जब तक इस धरती पर जीवन है, थिएटर रहेगा.

रग-रग में बसा है थिएटर- हिमानी शिवपुरी

थिएटर तो मेरी रग-रग में बसा हुआ है. यह थिएटर ही तो था जो मुझे देहरादून जैसे छोटे-से शहर से दिल्ली तक खींच लाया था. दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में बिताए दिनों ने ही मेरे जीवन की दिशा बदली और मैं एक बेहतर कलाकार बन पाई. मुझे लगता है कि किसी भी एक्टर के लिए थिएटर की ट्रेनिंग अनिवार्य होनी चाहिए. कई बार हमें ऐसे कलाकारों के साथ काम करना पड़ता है जो कहने को तो बहुत बड़े स्टार होते हैं लेकिन न तो ठीक से बोल पाते हैं न ही भाव प्रदर्शित कर पाते हैं. तब हमें लगता है कि यदि इन्होंने थिएटर किया होता तो ये ज्यादा समर्थ होते.

यहां गलती की गुंजाइश नहीं- संजय मिश्रा

संजय मिश्रा

किसी सीन को करने से पहले लंबी-लंबी रिहर्सल करना हमें थिएटर ही सिखाता है. थिएटर में गलती की गुंजाइश बिल्कुल नहीं होती. और अगर कभी कोई गलती हो भी जाए तो उसे आपको खुद ही वहीं, स्टेज पर ही कवर करना होता है. वहां कोई डायरेक्टर आकर कट या रीटेक नहीं बोलेगा. यही कारण है कि थिएटर से आने वाले कलाकारों को सिनेमा में देख कर लोगों को ज्यादा आनंद आता है.

थिएटर से मिलती है एनर्जी- आसिफ शेख

थिएटर से मेरा जुड़ाव शुरु से ही रहा है और यह अभी तक कायम है. मैं इप्टा से जुड़ा हुआ हूं और लगातार शोज करता रहता हूं. काफी दिनों तक मैं ‘काबुली वाला’ कर रहा था. फिर मैंने कैफी आजमी साहब का लिखा ‘आखिरी शमा’ लंबे अर्से तक किया जिसे हम काफी पहले किया करते थे और अब उसी को दोबारा कर रहे हैं. मुझे लगता है कि थिएटर करना किसी रिफ्रेशर कोर्स को करने जैसा होता है. थिएटर को मैं एन्जॉय ही इसलिए करता हूं क्योंकि एक तो इसमें काम करने से अपने अंदर के कलाकार को एनर्जी मिलती है और जब तुरंत सामने से ऑडियंस का रिएक्शन आता है तो लगता है कि कुछ बढ़िया काम किया है.

आत्मिक संतुष्टि का माध्यम- स्वरा भास्कर

स्वरा भास्कर

मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि सिनेमा डायरेक्टर का मीडियम है और थिएटर कलाकार का. इन दोनों का आपस में कोई मुकाबला नहीं है. फिल्मों से पैसा और शोहरत भले ही ज्यादा मिल जाते हों लेकिन किसी भी कलाकार को जो आत्मिक संतुष्टि थिएटर से मिलती है, वह उसे और कहीं नहीं मिल सकती.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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