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Thursday, 21 November, 2024
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राह आसान नहीं है महिला निर्देशकों की

यह पुरुषों की बपौती माना जाता है, मगर इन सब ने मिलकर पितृसत्ता के इस गढ़ पर धावा बोला है. उनकी सोच बहुत सधी हुई और व्यावसायिक है.

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इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार मेघना गुलजार को मिला है. यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि भारतीय सिनेमा में कई हिरोइनों, कई गायिकाओं ने धूम मचाई है. लोकप्रियता के शिखर को छुआ है, मगर बहुत कम महिलाएं ही फिल्म निर्देशक बन सकीं. कारण कि भारतीय सिनेमा में बुनियादी तौर पर पुरुषों की ही तूती बोलती है. इसलिए निर्देशन जैसे अहम क्षेत्र में तो महिलाएं इक्का दुक्का ही रही हैं नाममात्र के लिए.

मगर अब जमाना बदल गया है. आज नई पीढ़ी की महिला फिल्मकारों की लिस्ट काफी लंबी हो चुकी है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह असाधारण घड़ी है जब महिला निर्देशकों और महिला फिल्ममेकर्स सिनेमा इंडस्ट्री में न केवल अपनी पहचान स्थापित कर रही हैं बल्कि बड़ी संख्या में फिल्में बनाकर दर्शकों के सामने एक नया नज़रिया भी पेश कर रही हैं. इनमें असमिया की रीमादास हैं तो मलयालम की विधु विन्सेंट और अंजलि मेनन, गुजराती की शीतल शाह, मराठी की प्रतिमा जोशी तो हिंदी की मेघना गुलजार, नंदिता दास, रीमा काटगी और गौरी शिंदेभी है. इसके अलावा किरण राव अनुष्का रिजवी, कोंकणा सेन शर्मा भी हैं.


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कन्नड़ की अनन्या कासारवल्ली तो तमिल की सुधा कांगोरा भी हैं. हालाकि महिलाओं के लिए निर्देशन की राह आसान नहीं है. यह पुरुषों की बपौती माना जाता है, मगर इन सब ने मिलकर पितृसत्ता के इस गढ़ पर धावा बोला है. मगर उनकी सोच बहुत सधी हुई और व्यावसायिक है. वे कहती हैं उन्हें महिलाओं के मुद्दे पर महिला केंद्रित फिल्में नहीं बनानी वह आम निर्देशकों की तरह प्रोफेशनल निर्देशक बनना चाहती हैं.

वैसे बालीवुड में महिला फिल्म निर्दशको की परंपरा भले ही कमजोर रही हो मगर बहुत पुरानी है. फ़ातिमा बेगम एक भारतीय अभिनेत्री, निर्देशक और पटकथा लेखक थी. उन्हें अक्सर भारतीय सिनेमा की पहली महिला फिल्म निर्देशक माना जाता है. उसने अपने स्वयं के प्रोडक्शन हाउस, फ़ातिमा फिल्म्स की शुरुआत की, और 1926 में बुलबुल-ए-पेरिसतान का निर्देशन किया. उनके अलावा शोभना समर्थ, जद्दनबाई, टीपी राजालक्ष्मी ऐसी निर्देशक हैं जिन्होंने बॉलीवुड के उस दौर में फिल्मों का निर्देशन किया जब महिलाओं का फिल्मों की दुनिया में कदम रखना भी खराब माना जाता था.

कई अभिनेत्रियां ऐसी भी आईं, जिन्होंने अभिनय के साथ निर्देशन भी किया. इनमें साधना, तब्बस्सुम, हेमामालिनी, नीलिमा अजीम, सोनी राजदान, नंदिता दास और पूजा भट्ट. इन सभी अभिनेत्रियों ने निर्देशन के लिए या तो अभिनय क्षेत्र को त्याग दिया या फिर दोनों ही काम को बराबर करती रहीं.

अस्सी के दशक में सिमी ग्रेवाल, सई परांजपे और अरुणा राजे जैसी महिला निर्देशकों को छोड़ दें तो बॉलीवुड में महिला निर्देशक न के बराबर थीं. आज के दौर की महिला निर्देशकों को देखें तो ऐसी बहुत सी निर्देशक हैं जिन्होंने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया. इसमें दीपा मेहता और मीरा नायर का नाम सबसे ऊपर है जिन्होंने भारतीय सिनेमा को एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई.

मगर आज भारतीय सिनेमा और खासकर बॉलीवुड में तो महिला निर्देशको की लंबी कतार है. न केवल उनकी तादात चौंकाती है, बल्कि उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ रही हैं. उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा जा रहा है. मगर महिला निर्देशकों की राह आसान नहीं है.


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अभिनेत्री से निर्देशक बनीं नंदिता दास अपने को नारी विषयों तक सीमित नहीं रखना चाहती. वह सामान्य विषयों पर फिल्में बनाती हैं. उनकी पहली फिल्‍म फिराक़ गुजरात में हुए कुख्यात गोधरा कांड के 24 घंटे और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में आम आदमी के दर्द को दिखाने का सशक्‍त प्रयास करती है. उनकी दूसरी चर्चित फिल्म थी– मंटो.

नंगा सच दिखाकर सामाजिक यथार्थ को उजागर करने वाले कहानीकार सआदत हसन मंटो के साथ नंदिता दास ने अपनी फिल्म मंटो में पूरा न्याय किया है और इस फिल्म के जरिये उन्होंने उस दौर के हिंदुस्तान को दिखाते हुए समाज के दोगलेपन को भी बेनकाब किया है.

हाल ही में मेघना गुलजार की फिल्म ‘राजी’ रिलीज हुई थी जिसे लोगों का खूब प्यार मिला. यह फिल्म 100 करोड़ क्लब में शामिल हो गई है. हालांकि राजी महिला केंद्रित फिल्म है जो एक महिला जासूस के बारे में है मगर मेघना नहीं चाहती कि उन पर महिला फिल्म निर्देशक का लेबल चस्पा हो. वे कहती हैं कि वह महिला सीट का रिजर्वेशन नहीं चाहती. मुझे मेरी फिल्म में के काम से जाना जाए. मेघना गुलजार हिंदी सिनेमा के मशहूर निर्गेशक-गीतकार गुलज़ार और अभिनेत्री राखी गुलज़ार की बेटी हैं.

न्यूयार्क से पढ़ कर वापस आने के बाद मेघना ने डेब्यू वर्ष 2002 में फिल्म फ़िलहाल से किया था. इस फिल्म में मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन और तब्बू नजर आईं थी. उनकी फिल्म सरोगेसी पर आधारित थी. उस वक्त यह फिल्म बोल्ड मानी गई. बाद में उन्होंने फिल्म जस्ट मैरिड और दस कहानियां निर्देशित की. इसके बाद आरुषि हत्याकांड पर तलवार फिल्म बनाई. आज के दौर में वह एक सशक्त महिला फिल्मकार के रूप में जानी जाती हैं.

मेघना की तरह एक महिला निर्देशिका रीमा कागती की बॉलीवुड एक्टर अक्षय कुमार की फिल्म ‘गोल्ड’ ने 100 करोड़ क्लब में अपनी जगह बना ली है. फिल्म में अक्षय तपन भारतीय हॉकी टीम के मैनेजर हैं, जिसका सपना है कि भारत ब्रिटिश टीम को हराकर हॉकी में ओलंपिक गोल्ड मेडल हासिल करे. रीमा एक फिल्म निर्देशक और स्क्रीनराइटर हैं. उन्होंने हिंदी सिनेमा में बतौर निर्देशक फिल्म हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड से प्रवेश किया. इसके बाद रीमा ने फिल्म तलाश निर्देशित की. इसमें मुख्य भूमिका में आमिर खान, करीना कपूर और रानी मुखर्जी नजर आईं थी, फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई थी. 2016 में उन्होंने फिल्म गोल्ड पर काम करना शुरू किया.

प्रख्यात स्क्रिप्ट राइटर और गीतकार जावेद अख्तर की बेटी जोया अख्तर की हाल ही में प्रदर्शित गलीबॉय को इस साल की सफल और चर्चित फिल्मों में माना जाता है. जोया ने अपने करिअर की शुरुआत 2009 में ‘लक बाय चांस’ से की थी. 2011 में उनकी फिल्म ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ को काफी पसंद किया गया था. इसके बाद उनकी फिल्म ‘दिल धड़कने दो’ एक मल्टीस्टारर फिल्म थी.

श्रीदेवी अभिनीत `इंग्लिश-विंग्लिश`फिल्म की निर्देशक गौरी शिंदे ने हिंदी फिल्म के दर्शकों का टेस्ट ही बदल दिया. गौरी ने अपने फिल्मी करिअर की शुरुआत 2012 में फिल्म ‘इंग्लिश विंग्लिश’ से की थी. भारत में तो इस समय यह आलम है कि विद्वान उसे ही माना जाता है जिसे अंग्रेजी आती है. करोड़ों भारतीय ऐसे हैं जिन्हें यह भाषा बिलकुल पल्ले नहीं पड़ती है और बेचारे रोजाना इस हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं. उनकी फिल्म ऐसी ही शशि नामक महिला की कहानी है जो इस भाषा में अपने आपको व्यक्त नहीं कर पाती. घर पर बच्चे और पति अक्सर उसका मजाक बनाते हैं क्योंकि अंग्रेजी शब्दों का वह गलत उच्चारण करती हैं.


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फिल्म इंग्लिश विंग्लिश में शशि की भूमिका श्रीदेवी ने की थी जो बहुत सराही गई. गौरी ने 100 से भी ज्यादा ऐड और शॉर्ट फिल्में बनाई होंगी. फिर गौरी शिंदे ने ‘इंग्लिश विंग्लिश’ जैसी सशक्त फिल्म बनाकर चौंका दिया था. उनकी फिल्म लीक से हटकर थी और सफल भी रही. वे ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और गुलजार जैसे निर्देशकों की राह पर चलने वाली निर्देशक हैं. ये मध्यमार्गी फिल्मकार माने जाते हैं जो संदेश देने वाली फिल्म मनोरंजक अंदाज में पेश करते हैं. गौरी शिंदे की दूसरी फिल्म ‘डियर जिंदगी’ में उन्होंने जिंदगी के मायने समझाने की कोशिश की है.

राजनीति, अपहरण और गंगाजल जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक प्रकाश झा को असिस्ट करने वाली अलंकृता श्रीवास्तव की पहली फिल्म ‘लिप्स्टिक अंडर माय बुरका’ बोल्ड विषय के कारण चर्चित रही. सेंसर बोर्ड ने इसे रिलीज सर्टिफिकेट देने से इंकार कर दिया था, जिसके बाद अलंकृता ने काफी लंबी लड़ाई लड़ी और फिल्म रिलीज कराई. इसमें कोई शक नहीं कि लिपस्टिक अंडर माय बुरका भारत के हिसाब से एक बोल्ड फिल्म है. इसमें औरतों को सेक्स की ख्वाहिशमंद, इसका आनंद लेते हुए, शोषण से आज़ादी की तलबगार, बेहिचक कश खींचने और शराब पीने की आज़ादी की तलाश करते हुए, नौकरी के मौके खोजते और उसमें बेहतर करने की तमन्ना पाले हुए दिखाया गया है.

समीक्षकों ने इसे ‘ज़रूर देखने लायक फिल्म’, ‘समाज को आइना दिखाने वाली’, ‘स्त्री का सशक्तीकरण’, ‘बेखौफ स्त्रीवादी’ आदि विशेषणों से नवाजा है.

मराठी फिल्मों की निर्देशक प्रतिमा जोशी की फिल्म ‘आम्ही दोघी’. यह फिल्म गौरी देशपांडे की कहानी पर आधारित है. कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो अप्रत्याशित रूप से हमारे जिन्दगी में आते हैं और उनकी अहमियत जीवनभर बनी रहती है. ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी है. इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों ने काफी पंसद किया .

कॉस्ट्यूम डिजाइनर से फिल्म निर्देशक बनी प्रतिमा कहती हैं कि वह स्त्री या पुरूष निर्देशक नहीं प्रोफेशनल निर्देशक बनना चाहती हैं, ताकि बाकी सारे निर्देशकों के साथ खड़ी हो सकें, तभी हम सफल हो सकते हैं.

अंजलि मेनन एक भारतीय फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक हैं. उनके द्वारा निर्देशित फिल्में हैं केरला कैफे, मजदिकुरु और बैंगलोर डेज. वह मलयालम सिनेमा की पहली महिला निर्देशक हैं जिनकी फिल्म `बैंगलौर डेज` सुपर डुपर हिट रही. उनकी कई फिल्मों ने पुरस्कार भी जीते.

यथार्थवादी कथा और पात्र चित्रण उनके फिल्मों की विशेषता है. उनका कहना है वास्तविक जिंदगी में ऐसे स्ट्रांग पुरुष नहीं मिलते जैसे हमारे हीरो होते हैं. न ऐसी कमजोर महिलाएं होती हैं जैसी हमारी हिरोइनें. मगर इसको बदलने की जरूरत है. हम पात्रों के चित्रण को यथार्थवादी बनाएं.

प्रसिद्ध यक्षगान कलाकार हरिश्चंद्र के जीवन पर अनन्‍या कसरावाली द्वारा निर्देशित फिल्‍म हरिकथा प्रसंग) दक्षिण भारत के तटीय शहर के प्रसिद्ध यक्षगान कलाकार हरि के अंतर्द्वंद की कहानी का चित्रण करती है. अनन्या को लगता है कि भारतीय सिनेमा का परिदृश्य धीरे धीरे बदल रहा है. वह कहती हैं कि वह जिस इंस्टीट्यूट में निर्देशन पढ़ती थी उसमें निर्देशन के कोर्स में 10 में से चार लड़किया थीं. उनका मानना है कि अब फिल्मों में महिला तकनीशियनों की तादात बढ़ रही है.

इन महिला निर्देशिकाओं की राह कोई आसान नहीं थी. अलंकृता कहती हैं– बॉलीवुड में तो जरूरी है कि महिला निर्देशक के पीछे कोई स्ट्रांग पुरुष व्यक्तित्व हो. ज्यादातर सफल फिल्म निर्देशकों के पीछे कोई स्ट्रांग पुरुष व्यक्तित्व है. सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए यहां फिल्म बना पाना असंभव है. वे बताती हैं लिपस्टिक के लिए वितरक खोजना कितना मुश्किल हो गया था. मैंने सभी स्टडियोज के दरवाजों पर दस्तक दी. केवल एकता कपूर ने मेरी मदद की. जिन निर्देशिकाओं की जड़ें बॉलीवुड में हैं जैसे फराह खान या जोया अख्तर, इनके लिए काम करना आसान होता है.

यदि किसी बड़े बजट की फिल्म की निर्देशक महिला हो तो उसे व्यावसायिक जोखिम माना जाता है. निर्माता महिला फिल्म निर्देशकों को लेकर आश्वस्त नहीं होते. उन्हें इस बात को लेकर संदेह होता है कि वह फिल्म पूरी कर पाएंगी या नहीं.


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गुजराती फिल्मों की अभिनेत्री और निर्देशक शीतल शाह कहती हैं पूर्वाग्रह कई स्तरों पर काम करते हैं. एक फार्मा कंपनी ने शूटिंग शुरू होने के चार हफ्ते पहले फिल्म से हाथ खींच लिए. वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि महिला फिल्म पूरी कर पाएगी या नहीं. तब मैंने और मेरे परिवार ने सवा करोड़ लगाकर फिल्म बनाई फिर इसने 4, 5 करोड़ रुपये कमाए.

अहमदाबाद के कॉमोडिटी मार्केट के घोटाले पर हु तू तू तू फिल्म बनाने वाली शीतल शाह कहती हैं कि मैंने जब निर्माता व वितरकों को यह विषय बताया तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ. एक महिला कॉमोडिटी मार्केट पर फिल्म बना सकती है. उन्हें लगता था कि मैं किसी महिला केंद्रित विषयों पर फिल्म बनाऊंगी. जबकि मेरी फिल्म में कोई महिला प्रमुख भूमिका में नहीं थी. तब तक मुझे लगा ही नहीं था कि लोग मानते हैं कि महिलाओं के विषय अलग होते हैं और पुरुषो के अलग. शीतल 21 फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. उसके बाद उनके परिवार ने उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. वह कहती हैं -जब फिल्म 100 दिन तक चली तो मुझे कुछ भी साबित नहीं करना पड़ा.

(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं )

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