2020 का साल. एक कश्मीरी पंडित का पोता अपने दादा की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए तीस साल बाद लौट कर आया है-अपने दादा की अस्थियों के साथ. उसके दादा के चार दोस्त भी वहां हैं. दिल्ली में रह रहे पोते को कश्मीर के बारे में ‘सब’ पता है. लेकिन यहां आकर उसे वह सच पता चलता है जो कभी सामने नहीं आया, या आने ही नहीं दिया गया. उसके साथ-साथ यह फिल्म हमें भी वह सच दिखाने आई है.
लेखक-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपनी पिछली फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ की तरह इस बार भी कहानी कहने का वही पुराना तरीका चुना है, जिसमें कुछ लोग बैठ कर अपनी-अपनी बातों और तथ्यों के ज़रिए अतीत के पन्ने पलट रहे हैं और इन पन्नों पर लिखी इबारतों से उस दौर का सच सामने आ रहा है. लेकिन इस बार विवेक (और सौरभ एम पांडेय) का लेखन पहले से काफी ज्यादा मैच्योर और संतुलित है. शायद इसलिए भी कि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और विस्थापन का दौर बहुत ज्यादा पुराना नहीं है और उससे जुड़े लगभग तमाम तथ्य दस्तावेजों में मौजूद हैं. लेकिन फिर यह हैरानी भी होती है कि महज 32 साल पुराने ये तथ्य अब तक सामने क्यों नहीं आए? आए तो उन पर बात क्यों नहीं हुई? हुई तो कोई तूफान क्यों नहीं उठा?
कश्मीरी विस्थापित दादा और दिल्ली में पढ़ रहे पोते को रूपक की तरह इस्तेमाल करते हुए फिल्मकार असल में हमें पुरानी और नई पीढ़ी के सच से भी रूबरू कराते हैं. फिल्म सवाल उठाती है कि क्या पुरानी पीढ़ी ने अपनी नस्लों को सच बताने से परहेज किया? और क्या नई नस्लों ने सच जानने की बजाय खुद को उसी धारा का हिस्सा बन जाने दिया जो उनके अपने अतीत पर धूल डाल रही थी?
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बतौर निर्देशक विवेक हमें नब्बे के दशक और आज के दौर की सच्चाइयों से वाकिफ कराते हैं. तब, जब बहुत कुछ हो रहा था लेकिन ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग कुछ नहीं कर पा रहे थे. अब, जब बहुत कुछ होना चाहता है लेकिन कुछ लोग हैं जिन्हें यह अखर रहा है. कौन थे वे? कौन हैं वे? फिल्म विस्तार से न सिर्फ उन्हें दिखाती है बल्कि उनकी उस विचारधारा से भी परिचित कराती है जिसने हमेशा भारत को तोड़ने का प्रयास किया.
फिल्म में ऐसे अनेक संवाद हैं जो मारक हैं. फिल्म में ढेरों ऐसे दृश्य हैं जो किसी भी इंसान को विचलित कर सकते हैं. यह फिल्म किसी भी पक्ष को नहीं बख्शती है. राजनेताओं, पुलिस, मीडिया, यह हर किसी को कटघरे में खड़ा करती है. यह कश्मीर को जन्नत से समस्या में बदलने वालों से सवाल पूछती है.
हालांकि फिल्म में तकनीकी खामियां भी हैं. इसकी 170 मिनट की लंबाई अखरती है. बहुत सारे सीन गैरजरूरी तौर पर लंबे लगते हैं. कुछ जगह तर्क भी साथ छोड़ता है. कई जगह सीन हल्के भी रहे हैं. फिल्म में कश्मीरी संवादों के समय पर्दे पर अंग्रेजी की बजाय हिन्दी में सबटाइटल होते तो असर गहरा हो सकता था. 1990 वाले हालात आखिर हुए ही क्यों, इस पर और ज़्यादा तीखी व कड़वी टिप्पणियां होनी चाहिए थी. लंबे-लंबे संवादों और कहानी का धीमापन भी इसी राह में आता है.
तमाम कलाकारों का अभिनय ठीक रहा है. हालांकि ज्यादातर समय ये सब लोग औसत ही रहे मगर हर किसी को फिल्म में कम से कम एक बार अपना दम दिखाने का मौका जरूर मिला और उस समय कोई नहीं चूका. मिथुन चक्रवर्ती, अनुपम खेर, अतुल श्रीवास्तव, प्रकाश बेलावड़े, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, चिन्मय मंडलेकर, पुनीत इस्सर, भाषा सुम्बली, मृणाल कुलकर्णी आदि अपने अभिनय से फिल्म को विश्वसनीय बनाते हैं. गाने नहीं हैं, जरूरत भी नहीं थी. बैकग्राउंड म्यूजिक फिल्म का प्रभाव बढ़ाता है. कैमरा और लोकेशन इसे असरदार बनाते हैं. कैमरा का ज्यादा हिलना कई बार बहुत चुभता है. सच तो यह है कि यह पूरी फिल्म ही चुभती है. यही इसकी सफलता है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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