आठ-दस बरस की बच्ची जानती थी कि वह जितनी बार रस्सी पर पैर धर उछलेगी, उतनी बार उसकी जान हवा में तैरेंगी. फिर भी, दो बड़े खंभों के बीच बंधी एक रस्सी के ओर-छोर तक चल-चलकर वह चौराहे पर जमा भीड़ के आगे तमाशा दिखा रही थी.
‘छोटे हाथों से बांस का बड़ा डंडा संभालेगी, या पैर!’ रस्सी से बंधे खूंटे से पच्चीसेक कदम दूर, अजीब कशमकश में मेरे भीतर की एक रस्सी बेचैनी से झूल रही थी.
कोई तीस फीट लंबी रस्सी को ज़मीन से पंद्रह-बीस फीट ऊपर बांधा गया था. कौतूहल भरी दर्जनों आंखे उसके पैरों पर स्थिर थीं. लेकिन, पलक झपकते रस्सी पर इधर से उधर हो जाना उसके लिए जैसे बाएं हाथ का खेल था.
पर, उसके लिए मुश्किल था दो छोरों के बीच उस रस्सी को नाप लेना. उस समय नापने का खयाल मेरे मन में आया था. मेरे उस खयाल के नाप को इंच, फीट या मीटर में नहीं नापा जा सकता था. तब?
असल में मैं इस दूरी को लंबाई से नहीं समय से नापना चाहता था. इसके लिए घड़ी की सुइयों या फिर केलेंडर की तारीखों से परे, एक अलग तरह के समय में, कहीं बहुत पीछे जाना था. लंबाई से नापना होता तो उस बच्ची ने अपने पैरों से लातूर के पास किसी गांव से, हैदराबाद के बीच कई मील की दूरी नाप ही ली थी. पर, समय की दूरी अभी शेष थी. इतनी, कि वह क्या उसकी कई पीढ़ियां भी इस दूरी को नाप नहीं सकी थीं.
पहला दृश्य था हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज ग्राउंड के नज़दीक मई-जून की एक दुपहर का. हां, एक दूसरी जगह जब उसी तरह का दूसरा दृश्य देखा, तो मुझे वह बच्ची याद आई. यह दृश्य था नौ-दस बरस पहले ठंड के दिनों का, आज़ादी के कुछ समय बाद तक हैदराबाद रियासत और उसके बाद अब महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के एक छोटे कस्बे का. इसे महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई से कोई साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर देखा था, बीड़ जिले की आष्टी कस्बे में.
वहां पहुंचकर देखा कि छोटे बच्चे रस्सी पर और भी ज्यादा मुश्किल और तरह-तरह के खेल खेल सकते हैं. देखा कि आठ-दस बरस की ही एक और बच्ची, सिर पर पांच-छह लोटे रखकर हवा में बंधी रस्सी पर चल रही है.
आष्टी कस्बे में मैं जिस बस्ती में था वह बस्ती कस्बाई ढांचे का एक हिस्सा नज़र आई थी. एक पंक्ति में पक्के सीमेंट और टीन की छत वाले कई रंग-बिरंगे छोटे-छोटे मकान थे. मैंने घूमकर सारे गिन डाले. तंग गलियों में पूरे बावन मकान थे. बस्ती के बाहर एक बड़ा खुला मैदान था. इस मैदान के बीचोंबीच एक बड़ा सफेद चबूतरा था. उस पर सुबह के समय मैं बैठ गया था. लेकिन, मैं अकेला नहीं था. मेरे साथ एक दुबला-पतला चालीस पार का आदमी भी वहीं उसी चबूतरे पर बैठा था. उसका नाम सैय्यद रफाकत था.
‘इस बस्ती को सैय्यद खेड़करी क्यों कहते हैं?’ मैंने उस आदमी से बस्ती के बारे में पूछा. उसने मुझे बताया कि यह सैय्यद मदारी लोगों की बस्ती है.
‘ये सारे मकान आप लोगों के ही हैं, या भाड़े के?’ मैंने पूछना शुरु किया.
‘भाड़े का एक नहीं, सब हमारे हैं, ये चबूतरा और यह ज़मीन भी, वैसे ज़मीन दरगाह की है, निन्यावने साल के लिए लीज़ पर ले रखी है.’ सैय्यद रफाकत ने बताया.
‘कब, कैसे, लीज़ पर तो बहुत पैसा लगता है?’
‘बारह बरस से यहीं रहते हैं, पैसों के लिए तात्या ने आसपास के कई गांव वालों से चंदा जमा कराया था.’
‘पानी-वानी है?’
‘हां, पानी-लाइट सब है.’
‘पर मुझे दरवाजों पर कोई नेमप्लेट नहीं दिखी’ मैं मुस्कुराया .
‘उससे क्या होता है. हमारे घर का पता यही है. चिट्ठी यहीं आती है.’ सैय्यद रफाकत ने गंभीरता से कहा.
बारह साल पहले इनके पास चिट्ठी मंगाने के लिए घर का पता नहीं होता था. यह कोई एक पीढ़ी की बात नहीं थी, कई पीढ़ियों से वे नगर, डगर, गांव, गली, मोहल्ले, घर और दर-दर भटकते थे. उन्हें पता नहीं होता था, कि कल इनका तंबू कहां तनेगा! उन्हें वीरानों में चंद रोज़ बसने का हुनर तो पता था, नहीं पता था तो मुक्ति का रास्ता.
मेरी तंग समझ से चाहें तो सैय्यद मदारियों को बाजीगर कह सकते हैं, चाहें तो जादूगर. ऐसा इसलिए, कि इस घुमंतु जमात के लोग जान की बाजी लगाकर कई पीढ़ियों से करतब दिखाते रहे हैं. ये हैरतअंगेज़ खेल दिखाकर लोगों का मनोरंजन करते रहे हैं. कलाबाज़ी या स्टंट ही सैय्यद मदारी का खानदानी पेशा है.
लेकिन, आज की तारीख में सैय्यद मदारी के खेल गुम हो रहे हैं. खुली जगहों पर जान का जोखिम उठाकर घंटों खेल दिखाने के बावजूद, इन खिलाड़ियों को कुछ देने की बजाय ज्यादातर लोग खिसक लेते हैं.
ये मदारी विकास और तकनीक की अंधी दौड़ में छूट रहे हैं. मनोरंजन के अत्याधुनिक उपकरणों के सामने इनके जादू फीके पड़ने लगे हैं. फिर अपनी अंदरुनी समस्याओं के कारण भी जादू सरीखे लगने वाले ये खेल अपना परंपरागत मैदान खोते जा रहे हैं. ऐसे में इनके आगे रोज़ी-रोटी का संकट और ज़्यादा गहराता जा रहा है.
कुछ देर में सैय्यद सिकंदर के साथ और पांच-छह लड़के चबूतरे पर आ बैठे. मामूली सवाल-जवाब की जगह फिर लंबी-लंबी चर्चाएं होने लगीं. इस दौरान मैंने थोड़ा और जान लिया कि सैय्यद मदारी कौन होते हैं? उनकी बातों से मालूम हुआ कि बालीवुड में स्टंट करके कैरियर शुरू करने वाला अक्षय कुमार, शाहरुख-आमिर-सलमान खान की तिगड़ी को टक्कर दे रहा है. वह बालीवुड का सुपर-स्टार कहलाता है. लेकिन, सैय्यद मदारी तो अमिताभ बच्चन के जमाने के पहले से फिल्मों में स्टंट कर रहे हैं. फिर भी इनके बीच से कोई स्टार नहीं चमका.
‘कभी कोई चमकेगा भी नहीं!’ मेरे सवाल पर एक सैय्यद मदारी युवक इसे अपनी बदकिस्मती मान कर हंस दिया. दूसरे ने उसकी बात काटी और बड़े लोगों तक अपनी पहुंच न होने पर अफसोस जताया.
दरअसल, थोड़ा पीछे जाएं तो आज़ादी के तीन दशक बीत जाने के बाद लोगों में जब व्यवस्था के प्रति असंतोष पनपने लगा, तो निर्माता-निर्देशक इसे रुपहले पर्दे पर आकार देने में जुट गए. जनाक्रोश को जब मारधाड़ का रुप दिया जाने लगा, तो स्टार और सुपर-स्टार के ज्यादातर स्टंट यही सैय्यद मदारी किया करते. यह और बात है कि मायानगरी में तीन दशक से ज़्यादा समय बिताने के बावजूद न इन्हें शोहरत मिली, न दौलत मिली.
दूसरी तरफ, वे अपनी जड़ों से इस तरह कटे मिले कि अपना अतीत उन्हें ही नहीं पता था. वे नहीं जानते कि मूलत: वे कहां के हैं. फिर भी, वे अपने नाम में ‘मदारी’ जुड़ा होने के कारण अपने पेशे के बारे में अच्छी तरह से जानते थे. उनका अंदाज़ा था कि महाराष्ट्र में सात सौ से ज़्यादा सैय्यद मदारी परिवार हैं.
बातों से मालूम हुआ कि बहुत सारे कलाकार साइकिल-सर्कस में भी रहे हैं. लेकिन, दिक्कत यह है कि साइकिल-सर्कस में भी खर्च ज़्यादा और कमाई कम है. इसलिए, इसे चलाना भी अब घाटे का सौदा होता जा रहा है. ‘खेल दिखाने का मज़ा तभी है जब पब्लिक हो!’ सैय्यद तनवीर ने आंखे चौड़ी करते हुए कहा.
सामाजिक कार्यकर्ता वाल्मीक निकालजे पिछले तीन दशक से इस क्षेत्र में मानवीय अधिकारों को लेकर जागरुकता अभियान चला रहे हैं. उनका मत है कि जाति भारतीय समाज की बुनियाद है और जातिवाद को संवैधानिक मूल्यों के सहारे कमज़ोर किया जा सकता है. उनके अभियान ने वंचितों के व्यवहार में नागरिक चेतना जगायी है. जातिगत विसंगतियों से मुक्ति और अस्मिता की लड़ाई में उन्होंने शिक्षा को एक अनिवार्य औजार बना लिया है. वे बताते हैं, ‘बारह साल पहले सैय्यद मदारी बच्चे पढ़ाई के नाम पर बारह मिनट भी नहीं बैठ पाते थे. इसलिए पढ़ाई को रोचक बनाने और उसका महत्त्व समझाने में सालों खर्च करने पड़े. आज यही काम अब्दुल को करते देख उन्हें अच्छा लगता है.’
‘अपना अब्दुल पहला सैय्यद मदारी है जिसने बारहवीं पास की.’ अब्दुल के साथ और बाद में, सैय्यद मदारी बच्चों ने पहली बार अक्षर बनाने के बारे में सोचा था. नई पीढ़ी ने पढ़ना चाहा था. क, ख, ग, घ की रस्सियों पर चलकर परिवर्तन का खेल दिखाना चाहा था. एक-एक करके 20 बच्चे स्कूल से कॉलेज की सीढ़ी चढ़ने को बेताब थे.
(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं.)