सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिंदी में व्यास महाभारत के पुनःकथन के कई प्रयास हुए. उनमें सुन्दरदास (1624) का विराट पर्व, मान सिंह (1635) का अश्वमेध पर्व और श्रीपति (1622) का कर्ण पर्व उल्लेखनीय हैं. लेकिन पहला संपूर्ण पुनःकथन 1661 से 1724 के बीच में सबल सिंह चौहान ने किया. शिवसिंह सरोज और अन्य स्त्रोतों के अनुसार सबल सिंह राजा मित्रसेन के आधीन इटावा में एक गांव के जमींदार थे. अपनी महाभारत में सबल सिंह राजा मित्रसेन [1] और मुगल बादशाह औरंगजेब का कई जगह जिक्र करते हैं.
सबलसिंह यह भारत भाखा | श्रीप्रभु जब अरके दी राखा ||
औरंगशाह[2] दिलीपति राजत | मित्रसेन भूपति तहँ गाजत || (आश्रमवासिक पर्व)
रामचरितमानस की रचना के करीब सौ वर्ष बाद, सबल सिंह ने लगभग चौबीस हज़ार दोहों और चौपाइयों में महाभारत की संपूर्ण कथा को प्रस्तुत किया. उनकी कृति रामचरितमानस जितनी लोकप्रिय नहीं हो सकी किन्तु सरल प्रस्तुति के चलते इसका काफी प्रभाव देखने को मिलता है.
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इंडियन लिटरेचर (साहित्य अकादेमी) के अनुसार गुरु गोविन्द सिंह ने सबल सिंह की कृति का गुरुमुखी में अनुवाद करवाया था. इसके अलावा सबल सिंह की महाभारत ने पण्डवानी लोकगीत नाट्य को भी प्रभावित किया है.
ऐसा माना जाता है कि सबल सिंह की महाभारत संस्कृत महाभारत का संक्षिप्त रूप मात्र है. आदि पर्व की शुरुआत में वे स्वयं लिखते हैं:
हरि चरित्र कोउ भेद न पावहिं | कै भाषा संक्षेप कछु गावहिं ||
महामुनि जो ब्यास बखाना | श्रीभगवन्त चरित जिन जाना ||
इसके अलावा स्वर्गारोहण पर्व के अंत में सबल सिंह स्वयं को मतिहीन बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने व्यास का अनुकरण मात्र ही किया है. कवि का यह विनम्र भाव व्यास मुनि के प्रति उनका आदर दर्शाता है. किन्तु वास्तव में सबल सिंह की महाभारत कई मायनों में व्यास महाभारत से काफी अलग है. इसमें व्यास महाभारत की तरह अठारह पर्व हैं लेकिन अनुशासन और महाप्रस्थानिक पर्व नहीं हैं. इनके स्थान पर सबल सिंह ने गदा एवं ऐषिक पर्व रखे. हालांकि व्यास के शल्य पर्व में गदा और सौप्तिक पर्व में ऐषिक नाम के उपपर्व हैं.
इसके अलावा सबल सिंह की महाभारत में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जो व्यास महाभारत से काफी भिन्न हैं जैसे व्यास में कर्ण के रथ के पहिये के जमीन में धंसने का कारण एक ब्राह्मण का श्राप था, जबकि सबल सिंह की कथा में यह श्राप मैथुनि नामक गाय ने विराटपुर में दिया था. इसी तरह व्यास में पासे के खेल के समय धृतराष्ट्र सभा में थे जबकि सबल सिंह की कहानी में ऐसा नहीं है.
कुछ प्रसंग सबल सिंह की महाभारत में ऐसे भी हैं जो व्यास महाभारत में नहीं पाये जाते हैं जैसे गान्धारी और कुन्ती के बीच शिव मंदिर में पूजा करने को लेकर विवाद होना और दुर्योधन का युद्धक्षेत्र में बह रही रक्त की नदी को अनजान शव के सहारे पार करना और फिर वह शव पुत्र लक्षमणकुमार का जानने पर विलाप करना.
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यदि सबल सिंह की कृति व्यास से इतनी भिन्न है तो फिर उसका स्त्रोत क्या था?
अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं का निरीक्षण करने पर हमें सबल सिंह की कथा में ओड़िआ महाभारत की छाप मिलती है. सबल सिंह से करीब दो सौ वर्ष पहले सारलादास ने ओड़िआ में सम्पूर्ण महाभारत का पुनःकथन किया था. सबल सिंह की महाभारत में ओड़िआ महाभारत की तरह ही गदा और ऐषिक पर्व हैं और अनुशासन एवं महाप्रस्थानिक पर्व नहीं हैं.
इसके अलावा सबल सिंह जहां कहीं व्यास से भिन्न कहानी कहते हैं वहां उनका कथानक ओड़िआ महाभारत के करीब दिखता है जैसे सहदेव का पाण्डु पुत्र होना और दुःशासन वध के समय भीम द्वारा सबको यहां तक कि कृष्ण को भी चुनौती देने पर अर्जुन का भड़कना और तब कृष्ण द्वारा भीम में नृसिंह रूप होने की बात कह उसे शांत करना. इसी तरह स्वर्गारोहण पर्व में धर्मदेव कुत्ते के रूप में युधिष्ठिर के साथ यात्रा की शुरुआत से नहीं बल्कि आखिर में अचानक से आते हैं. ये भी ध्यान देने योग्य है कि सबल सिंह ने पुरी के भगवान जगन्नाथ का जिक्र किया है.
कुछ प्रसंग सबल सिंह ने ओड़िआ महाभारत से थोड़े भिन्न प्रस्तुत किये हैं. कुंती द्वारा कर्ण से बाण मांगे जाने की बात तो है परंतु ये पांच बाण कर्ण को परशुराम ने दिये थे, जबकि सारला के अनुसार हर और हरि ने कर्ण को दो बाण दिये थे. इसी तरह अभिमन्यु वध के बाद कृष्ण शोकाकुल अर्जुन को उससे मिलाने स्वर्ग ले जाते हैं, जहां अभिमन्यु अर्जुन को पहचानने से इनकार कर देता है. सबल सिंह की कथा में स्वर्ग में अभिमन्यु चन्द्रमा का पुत्र बुध है, जबकि सारला के अनुसार वह देवी उग्रतारा का पुत्र आदि है. व्यास महाभारत में ये प्रसंग नहीं हैं.
निश्चित रूप से हिन्दी महाभारत पर ओड़िआ महाभारत का प्रभाव दिखता है किन्तु दोनों के बीच मूलभूत अंतर भी हैं. सारला की कहानी में पांडव पहले से जानते थे कि कर्ण कुन्ती का पुत्र था और उसकी शिक्षा द्रोण की देखरेख में हुई थी. सबल सिंह की महाभारत में पांडव कर्ण के जन्म की परिस्थितियों से अनिभिज्ञ थे और कर्ण महर्षि परशुराम का शिष्य था. एक और बड़ा फर्क यह है कि भगवद्गीता सारला की कथा का हिस्सा नहीं है लेकिन सबल सिंह ने उसे संक्षेप में प्रस्तुत किया है.
सबल सिंह की महाभारत और सारला महाभारत के बीच गहरी समानताओं के चलते प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ओड़िआ महाभारत की कहानियां सबल सिंह तक कैसे पहुंची? स्वयं सबल सिंह के ओड़िशा जाने का कोई जिक्र नहीं मिलता है. लेकिन हम यह जरूर जानते हैं कि एक लंबे समय से उत्तर भारत और ओड़िशा के बीच सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं. ओड़िशा से कृष्ण भक्त जिस मार्ग से वृंदावन आया करते थे उसमें इटावा भी पड़ता है. ये वही मार्ग था जिसका प्रयोग छत्रपति शिवाजी ने किया था. जदुनाथ सरकार की शिवाजी एंड हिज टाइम्स के अनुसार शिवाजी औरंगजेब की कैद से निकल कर काशी और गया के रास्ते पुरी में भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हुए राजगढ़ वापस पहुंचे थे.
[1] विलियम इर्विन की लेटर मुगल्स के अनुसार मित्रसेन ने मुगल बादशाह औरंगजेब के पौत्र नेकुसियर को राजगद्दी पर बैठाया था.
[2] सबल सिंह कहीं-कहीं औरंगज़ेब को नौरंगशाह कह कर भी संबोधित करते हैं. कर्ण पर्व में वे लिखते हैं:
शुक्ल पक्ष अश्विन को मासा | तिथि पञ्चमि यह कथा प्रकासा ||
सम्वत सत्रह शत चौबीशा | नौरँगशाह दिलीपति ईशा ||
यहां ध्यान देने योग्य है कि औरंगजेब के लिए शाहजहां की कुछ कविताओं में भी ‘नवरंग’ का प्रयोग मिलता है जैसे औरंगजेब द्वारा जेल में डालने के बाद शाहजहां की एक कविता इस प्रकार है (संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, पृ 291):
जन्मत ही लख दान दियो अरु नाम रख्यौ नवरंग बिहारी,
बालहिन् सों प्रतिपाल कियो अरु देस-मुलुक्क दियो दल भारी ||
सो सुत वैर बूझै मन में धरि हाथ दियो बैंधसार में डारी,
शाहजहां विनवै हरि सों बलि राजीवनयन रजाय तिहारी ||
(अंकिता पाण्डेय स्वतंत्र शोधकर्ता एवं अनुवादक तथा ‘आसक्ति से विरक्ति तक: ओड़िआ महाभारत की चुनिंदा कहानियां’ (आगामी) की लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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