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Tuesday, 5 November, 2024
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एक्शन, एक्टिंग और डायरेक्शन के मोर्चे पर बाजी मारती ‘विक्रम वेधा’

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसकी कसी हुई स्क्रिप्ट है. ऐसी दमदार, नए दाव-पेंच दिखाती, हर मोड़ पर चौंकाती पटकथाएं ही इस किस्म की फिल्मों को ऊंचाई पर ले जाती हैं.

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लखनऊ में गैंग्स्टर वेधा का आतंक है. पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स एक-एक कर उसके साथियों को ठिकाने लगा रही है. इससे पहले कि ये लोग वेधा तक पहुंचें, वह खुद आकर सरेंडर कर देता है. पुलिस अफसर विक्रम को वेधा अपने अतीत की एक-एक कर तीन कहानियां सुनाता है जिनके अंत में हर बार एक सवाल सामने आता है कि उन हालात में उसे क्या करना चाहिए था? या उसने जो किया, वह सही था या गलत?

‘बेताल पच्चीसी’ की विक्रम-बेताल वाली कहानियां हम भारतीयों के लिए नई नहीं हैं जिनमें राजा विक्रमादित्य की पीठ पर सवार बेताल उन्हें कोई कहानी सुना कर सवाल पूछता है और कहता है कि जवाब मालूम होने पर भी चुप रहे तो मरोगे और अगर बोले तो मैं वापस चला जाऊंगा. फिल्म के शुरू में दो मिनट के एनिमेशन से यह सब बताया भी गया है. 2017 में आई आर. माधवन-विजय सेतुपति वाली इसी नाम की तमिल फिल्म के इस रीमेक में विक्रम और वेधा के बीच उसी तरह कहानियों का वर्णन और अंत में आने वाले धर्मसंकट की बात दिखाई गई है. यह फिल्म दरअसल पाप-पुण्य, गलत-सही, काले-सफेद, चोर-पुलिस के बीच की उसी शाश्वत लड़ाई को दिखाती है जो हम राम-रावण के समय से देखते-सुनते आए हैं.

विक्रम वेधा

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इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी इसकी कसी हुई स्क्रिप्ट है. ऐसी दमदार, नए दाव-पेंच दिखाती, हर मोड़ पर चौंकाती पटकथाएं ही इस किस्म की फिल्मों को ऊंचाई पर ले जाती हैं. इस फिल्म में कहानी कहने का ढांचा बेहद मजबूत है और पटकथा इसे और कद्दावर बनाती है. मूल तमिल से इसे हिन्दी में ढालते समय पुराने चैन्नई शहर के बैकग्राउंड से कानपुर, लखनऊ तक पहुंचाते हुए वहां के माहौल, गलियों, किरदारों, बोली आदि का भी भरपूर ध्यान रखा गया है जो दर्शक को सुहाता है. विक्रम और वेधा के बीच चलने वाले संवाद इस फिल्म के असर को गहरा बनाते हैं. अंत में खुलने वाली परतें हैरान करती हैं. इन सब से भी बढ़ कर है इसका निर्देशन. मूल तमिल फिल्म वाले पुष्कर और गायत्री ने ही इसे हिन्दी में बनाया है इसलिए उनके काम में सहजता के साथ-साथ दृढ़ता भी दिखती है. कई सीन बहुत शानदार बने हैं.

एक्टिंग की बात करें तो हर किसी ने खूब दम दिखाया है. सैफ अली खान और हृतिक रोशन को पर्दे पर देखना अच्छा लगता है. दोनों ने ही अपने-अपने किरदारों की खूबियों को कस कर पकड़ते हुए एक-दूसरे को भरपूर टक्कर भी दी है. हृतिक हालांकि कई जगह अपने ‘सुपर 30’ के दाढ़ी वाले गैटअप की याद दिलाते हैं लेकिन उनके अभिनय और संवाद अदायगी में दक्षता झलकती है. राधिका आप्टे जब-जब आती हैं, असर छोड़ती हैं. सत्यदीप मिश्रा, रोहित सराफ, मनुज शर्मा, योगिता बिहानी आदि अन्य सभी कलाकार भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं. शारिब हाशमी को अभी तक के अपने किरदारों से हट कर भूमिका मिली जिसे उन्होंने इस कदर सटीक ढंग से निभाया है कि उनके लिए वाह-वाह ही निकलती है.

दमदार एक्शन इस फिल्म की एक बड़ी खासियत है. पिछले कुछ समय से हिन्दी फिल्मों में आ रहे ‘रोहित शैट्टी नुमा’ एक्शन से अलग इस फिल्म की मारधाड़ एकदम असली गैंग्स्टरों वाली है जिसे देख कर डर लगता है और उस डर से आनंद उपजता है. फिल्म के शुरू में हिंसा को महिमामंडित न करने वाला डिस्क्लेमर ही यह बता देता है कि आप इसमें क्या देखने जा रहे हैं. गाने सुनने से ज्यादा देखने में अच्छे लगते हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत दमदार है और फिल्म के असर को कई गुना बढ़ाता है. सिनेमैटोग्राफी शानदार है.

इस फिल्म की कमियों की बात करें तो इसकी दो घंटे 40 मिनट की लंबाई थोड़ी अखरती है. कुछ एक जगह यह हल्की पड़ती है. खासतौर से वेधा की सुनाई दूसरी कहानी बहुत लंबी लगने लगती है. दो-एक जगह लचकने, तर्क छोड़ने, खटकने और आने वाले सीक्वेंस का अंदाजा देने के बावजूद यह फिल्म एक्शन और थ्रिल का संतुलित, मसालेदार मनोरंजन परोसने में कामयाब रही है.

विक्रम वेधा

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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