इस कहानी का नायक भास्कर दिल्ली से अरुणाचल प्रदेश पहुंचा है जंगल के बीच से एक सड़क बनाने का ठेका लेकर. इसके लिए काटे जाने हैं ढेरों पेड़, जिसके लिए वह कुछ स्थानीय लोगों के जरिए वहां के निवासियों को अपने पक्ष में करने में जुटा है. लेकिन यहां उसे काट लेता है एक भेड़िया और वह बन जाता है भेड़िया-मानव जिसके बाद उसके अंदर भेड़िये के गुण-दोष आ जाते हैं और हर पूनम की रात को तो वह पूरी तरह से भेड़िये में बदल जाता है. लेकिन कहते हैं न कि बड़ी ताकत के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है. तो क्या यह भेड़िया-मानव इस बड़ी ताकत के साथ मिली बड़ी जिम्मेदारी को उठा पाया?
इस फिल्म की कहानी थोड़ी अलग किस्म की है. अपने स्वार्थ के नाम पर जंगलों को काटने की बात उठाने के साथ-साथ यह फिल्म उत्तर-पूर्व के लोगों में ‘बाहर’ से आने वालों के प्रति उपजे अविश्वास की बात भी करती है. फिल्म यह भी दिखाती-बताती है कि किस तरह से शहरी लोग विकास का चमकीला सपना दिखाकर गांव-जंगल में बसे लोगों को ललचाते हैं और उन्हें भी भ्रष्ट होने को प्रेरित करते हैं.
लेकिन साथ ही यह फिल्म ऐसे लोगों को प्रकृति के न्याय के द्वारा सबक सिखाने की बात भी करती है. भेड़िये का काटना हो या लोक-आस्थाओं को दिखाना, फिल्म इन्हें रूपक की तरह इस्तेमाल करते हुए साफ संदेश देती है कि इंसान जब-जब कुदरत को नष्ट करेगा, कुदरत उसे नष्ट करने से नहीं चूकेगी.
अंत में गांव वालों का भेड़िये के सामने झुकने का दृश्य न सिर्फ भावुक करता है बल्कि बताता है कि मनुष्य को खुद के प्रकृति से अधिक ताकतवर होने का घमंड छोड़ना होगा तभी वह बचा रह पाएगा. निरेन भट्ट की यह कहानी लगे हाथ बाकी भारतवासियों की नजर में उत्तर-पूर्व के लोगों को ‘अलग’ समझने की सोच पर भी वार करती है.
लेकिन यह कोई सीरियस फिल्म नहीं है जिसमें प्रकृति को बचाने के गंभीर उपदेश हों. दरअसल इस फिल्म में जो कुछ भी है उसे बहुत ही ‘यंग फ्लेवर’ देते हुए कॉमेडी का लेप लगा कर परोसा गया है ताकि दर्शकों की नई पीढ़ी इसे आसानी से पचा सके. हिन्दी के दर्शकों के साथ यह समस्या तो है ही न कि उन्हें बढ़िया और गंभीर किस्म का कंटेंट तो चाहिए लेकिन वह गंभीरता ओढ़ा हुआ नहीं होना चाहिए.
निर्देशक अमर कौशिक अपनी फिल्म ‘स्त्री’ में हॉरर संग कॉमेडी का सफल प्रयोग कर चुके हैं. इस बार भी उन्होंने कॉमेडी को ही प्रमुखता दी है. अब यह अलग बात है कि इस फिल्म की अधिकतर कॉमेडी सहज न होकर जबरन घुसेड़ी गई और कहीं-कहीं तो ओछी भी लगती है. लेकिन हिन्दी वाले इसी ओछेपन को हंस कर स्वीकारते आए हैं, तो इस बार भी स्वीकार लेंगे.
अमर कौशिक ने अपने कसे हुए निर्देशन में गति बनाए रखी है और दिलचस्पी जगाए रखी है. लेकिन इन सबसे ऊपर यह फिल्म अपने कलाकारों की सधी हुई एक्टिंग के लिए देखी जानी चाहिए. वरुण धवन ने अपने आलोचकों के मुंह बंद करने लायक काम किया है. अभिषेक बैनर्जी सपाट चेहरे और तपाक संवादों से हंसाने का काम बखूबी कर गए.
दीपक डोबरियाल जैसे अनुभवी और एकदम नए आए पालिन काबक भी खूब जंचे. कृति सैनन साधारण रहीं. कुछ तो उनका किरदार ठंडा था, कुछ उनकी लुक. सौरभ शुक्ला, शरद केलकर कुछ पल में भी असरदार रहे. गीत-संगीत अच्छा है और कहानी के रंग-बिरंगे मिजाज को सहारा देता है. खास तो है इसका बैकग्राउंड म्यूजिक जो अद्भुत वी.एफ.एक्स. के साथ मिल कर दृश्यों के असर को चरम पर पहुंचाता है. लोकेशन जितनी खूबसूरत हैं, कैमरा उसे उतनी ही खूबसूरती से कैद भी करता है. फिल्म 3-डी में भी है और आनंद देती है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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