नई दिल्ली: पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा और पंजाब के विधानसभा चुनावों के नतीजे—जो 10 मार्च को घोषित हुए थे—इस हफ्ते के पहले आधे हिस्से में उर्दू मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे. फिर मंगलवार को हिजाब पर आए कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले ने महिला अधिकारों से लेकर धार्मिक स्वतंत्रता तक के मसले पर तमाम दलीलों के साथ उर्दू मीडिया के पन्नों को रंग दिया. हालांकि, अधिकांश अखबारों के संपादकीय में हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने का एक सुर में समर्थन किया गया.
दिप्रिंट इस सप्ताह उर्दू मीडिया के पेज वन की सुर्खियों और संपादकीय नजरिये पर यहां आपके लिए लाया है पूरा राउंडअप.
हिजाब पर फैसला
हिजाब पर कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले की खबर, जिसमें कोर्ट ने कहा कि हिजाब इस्लाम धर्म में किसी धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है, सभी उर्दू अखबारों के पहले पन्नों पर छपी.
इस मुद्दे पर संबंधित लेख में सियासत ने लिखा कि यह उन फैसलों और प्रशासनिक निर्णयों की ताजा कड़ी है जो मुस्लिमों की धार्मिक पहचान को कुचलने वाले हैं. अखबार ने कहा कि फैसले का सीधा असर यही होगा कि कई लड़कियां शिक्षण संस्थानों से दूर रहेंगी, और साथ ही पूछा कि क्या यह भारत सरकार की नीति के पक्ष में है या इसके खिलाफ है. अखबार ने अपने पहले पन्ने पर फैसले की आलोचना वाले तमाम बयानों का हवाला देते हुए एक स्टोरी प्रकाशित की जिसमें हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी से लेकर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला तक की प्रतिक्रिया को शामिल किया गया.
सियासत ने एक अन्य रिपोर्ट में शिवसेना की राज्यसभा सांसद प्रियंका चतुर्वेदी के हवाले से लिखा कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा तब तक नहीं हो सकती जब तक कि महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जाता.
रोजनामा राष्ट्रीय सहारा ने 16 मार्च को लीड के तौर पर फैसले पर मुख्य खबर के साथ-साथ दो अन्य रिपोर्ट भी प्रकाशित कीं—एक कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी के आधिकारिक आवास पर सुरक्षा बढ़ाए जाने से जुड़ी थी और दूसरी हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दिए जाने से संबंधित थी. इंकलाब ने पहले पन्ने पर फैसले की मुख्य खबर के साथ ही इसकी आलोचना करने वाले तमाम बयानों को भी छापा जिसमें इसे ‘निराशाजनक’ बताया गया था.
सियासत ने एक संपादकीय में यह भी लिखा कि मुस्लिम लड़कियों को सालों से हिजाब पहनकर कक्षाओं में शामिल होने की सुविधा मिली हुई थी, लेकिन कर्नाटक में इसे अचानक हटा दिया गया, और कहा कि यह फैसला मुसलमानों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए विभिन्न कानूनी विकल्पों का पता लगाने की जरूरत को रेखांकित करता है.
रोजनामा ने भी अपने संपादकीय में कानून का सहारा लिए जाने की वकालत की.
अखबार ने यह भी लिखा कि सिर्फ इस्लाम ही नहीं बल्कि कई अन्य धर्म इसकी वकालत करते हैं कि महिलाएं अपना सिर ढंके. लेकिन जैसे छोटे कपड़े पहनना महिलाओं का लोकतांत्रिक अधिकार है, वैसे ही हिजाब पहनना भी है.
18 मार्च को एक अन्य संपादकीय में, इंकलाब ने लिखा कि हिजाब विवाद उस राजनीति का परिणाम है जो समाज को बांटने में भरोसा करती है. इसमें यह भी लिखा गया कि कर्नाटक हाई कोर्ट से हिजाब का पक्ष में फैसले की सारी उम्मीदें धराशायी हो गईं.
कांग्रेस के प्रदर्शन में और ज्यादा गिरावट
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब में हाल में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन में और ज्यादा गिरावट और उस हार का पोस्टमार्टम—’जी-23’ समूह की बैठकों से लेकर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों के इस्तीफे तक—ने उर्दू प्रेस में पहले पन्ने की सुर्खियां बटोरीं.
इंकलाब ने 15 मार्च को एक संपादकीय में लिखा कि समय आ गया है कि कांग्रेस अपनी नींद तोड़े और इस बात को समझे कि हाल के वर्षों में उसके पास दिखाने के लिए कोई उपलब्धि नहीं है, जबकि आम आदमी पार्टी जैसी नई पार्टी देश के दो राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब रही है. अखबार की शुरुआती पंक्ति थी—’क्या कांग्रेस पतन के कगार पर है या पतन खुद पार्टी को गले लगाने की राह पर चल रहा है?’
12 मार्च को सियासत ने ‘कांग्रेस की पहचान पर सवाल’ शीर्षक से एक संपादकीय में पार्टी के पुनरुद्धार के कुछ नुस्खे सुझाए, जिसमें ‘जनता के साथ संवाद की बहाली’ और एक पूर्णकालिक अध्यक्ष का चुनाव शामिल है. अखबार ने यह भी लिखा कि अगर पार्टी और अधिक राज्यों के चुनाव हारती है, तो उसके लिए आम चुनाव (2024) में अच्छे प्रदर्शन की कोई उम्मीद नहीं बचेगी.
उसी दिन एक अन्य संपादकीय में रोजनामा ने तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे बताते हैं कि बेरोजगारी, किसानों की चिंता और महिला सुरक्षा जैसे मुद्दों के बजाये चुनाव केवल सांप्रदायिक आधार पर ही लड़े जाएंगे और ऐसे में मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत यही है कि विपक्ष खुद को भाजपा के विश्वसनीय विकल्प के तौर पर सामने लाए और जनता के बीच अपना आधार बढ़ाए, इसके बिना बदलाव की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है.
यूक्रेन संकट
यूक्रेन पर रूसी हमले लगातार जारी रहने के बीच इस घटनाक्रम को लेकर कवरेज भी बढ़ता गया. 13 मार्च को, सियासत ने अपने पहले पन्ने पर मारियुपोल में सुल्तान सुलेमान मस्जिद पर बमबारी को लेकर एक रिपोर्ट छापी. अगले दिन, उसने पोलैंड सीमा के पास एक हमले में 35 लोगों के मारे जाने की खबर प्रकाशित की.
इंकलाब ने 13 मार्च को ‘विदेशों में पढ़ाई विकल्प या मजबूरी’ शीर्षक से एक संपादकीय में लिखा कि ऐसा लगता तो नहीं है कि भारतीय छात्रों को यूक्रेन से निकाले जाने से पहले उन्हें जिस तरह के संकटों का सामना करना पड़ा है, उससे कोई सबक लिया जाएगा. लेकिन यह बात तय है कि जब तक देश में नई शिक्षण संस्थाएं स्थापित नहीं की जातीं, स्थितियां बदलने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है.
द कश्मीर फाइल्स
17 मार्च को रोजनामा ने ‘आधा सच’ शीर्षक के साथ एक संपादकीय प्रकाशित किया, जिसमें फिल्म द कश्मीर फाइल्स की तुलना हिटलर की किताब मीन काम्फ से की गई और नाजीवादी जोसेफ गोएबल्स के सिद्धांतों का जिक्र किया गया.
इसमें कहा गया, ‘गोएबल्स ने कहा था कि यदि आप झूठ बोलते हैं और इसे लगातार दोहराते रहते हैं, तो जल्द ही झूठ भी सच की तरह लगने लगता है, और झूठ जितना बड़ा होगा, उतना ही लोकप्रिय होगा. मीडिया पर नियंत्रण का दूसरा सिद्धांत भी गोएबल्स ने ही तैयार किया था. प्रचार मंत्री के तौर पर उनका जर्मनी के सारे मीडिया पर नियंत्रण था और उनकी राय थी कि मीडिया को नियंत्रित रखना चाहिए ताकि आप उसे अपनी धुन पर नचा सकें. आज भी यह सिद्धांत बेहद लोकप्रिय है. इसका ताजा उदाहरण द कश्मीर फाइल्स नामक फिल्म है और जिसे राज्यों और केंद्र में भाजपा सरकारों की तरफ से टैक्स फ्री करके प्रचारित किया जा रहा है.’
संपादकीय में यह भी दावा किया गया है कि न केवल कश्मीरी हिंदू बल्कि कई मुस्लिम भी 1990 के दशक के दौरान राज्य में मारे गए थे.
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