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Thursday, 31 October, 2024
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थ्रिलर फिल्म देखने के शौकीनों को निराश नहीं करेगी ‘धोखा’

सस्पैंस, थ्रिलर जैसे स्वाद वाली फिल्में देखने के शौकीनों को यह फिल्म भाएगी, लुभाएगी और मज़ा भी देगी.

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कहानी जानने से पहले एक कहानी सुन लीजिए. एक बार सच और झूठ एक साथ नहाने गए. जब सच पानी में उतरा तो झूठ उसके कपड़े लेकर भाग गया. बस, तभी से झूठ, सच के कपड़े पहन कर घूम रहा है.

यह कहानी वह अकेली जवान खूबसूरत औरत उस आतंकवादी को सुनाती है जो पुलिस की गिरफ्त से भाग कर उसके फ्लैट में आ घुसा है. उसके पास पुलिस वाले की बंदूक है और बाहर पुलिस के डेरे में उस औरत का पति जिसका कहना है कि यदि वक्त पर उसकी बीवी को दवाई नहीं दी गई तो वह कुछ भी कर सकती है. क्या कर सकती है वह? उसके इस ‘करने’ के पीछे क्या राज़ है? उसका पागलपन सच है या झूठ? और इस आतंकवादी की क्या कहानी है?

थ्रिलर फिल्मों की खासियत ही होती है इसकी कहानी में उपजने वाले ये सवाल और इन सवालों के जवाब तलाशने में लगातार चलती सच व झूठ की भागमभाग. यह भागमभाग उधर पर्दे पर किरदारों को चैन नहीं लेने देती और इधर थिएटर में बैठे दर्शक को भी बेचैन करती रहती है. इस नजर से देखें तो यह फिल्म अपने मकसद में सफल रही है. इसके हर किरदार का अपना सच है. आतंकवादी अपनी अलग कहानी सुना रहा है जबकि पुलिस कुछ और कह रही है. औरत उस आतंकवादी को कुछ बता रही है जबकि उसका पति पुलिस को कुछ और ही बता रहा है. किस का सच, सच है और किस का झूठ, यह समझने के लिए दर्शक इस फिल्म को देखा जाना चाहिए. खास बात यह भी है कि इसे देखते हुए एक भी सीन छोड़ना दर्शक को भारी पड़ सकता है.

लेकिन इस फिल्म में उस दर्जे की कसावट नहीं है जो इसे एक क्लासिक थ्रिलर बना दे. दरअसल यह फिल्म पैनेपन की कमी से जूझती नजर आती है. पिछले साल आई अभिषेक बच्चन वाली ‘बिग बुल’ लिख-बना चुके कूकी गुलाटी की कहानी अच्छी है लेकिन उनकी टीम इसकी स्क्रिप्ट लिखने में हल्की रह गई. बिल्डिंग के सामने मौजूद पुलिस और मीडिया का बर्ताव बचकाना-सा लगता है. उस भीड़ में से निकल कर पति का अकेले पैसे का इंतजाम करने जाना तो हद बेवकूफी लगता है. न उसके साथ पुलिस है, न वह मीडिया जिसे फिल्म हर कदम पर छिछोरा दिखाने पर आमादा है. वैसे मीडिया की यह छवि बनाई भी खुद मीडिया ने ही है, फिल्म तो उसे सिर्फ दिखा भर रही है. संवाद भी काफी हल्के हैं.

फिल्म के किरदारों को भी मजबूती देने से लेखक चूके हैं. आर. माधवन और दर्शन कुमार जैसे काबिल अभिनेताओं को अंडरप्ले करते देख कर महसूस होता है कि कैसे उन्हें कमजोर किरदारों में जकड़ दिया गया. बावजूद इसके ये दोनों ही अपने काम को अच्छे-से अंजाम देते हैं. खुशाली कुमार अपनी पहली फिल्म में अच्छे-खासे आत्मविश्वास से भरी दिखाई देती हैं. आतंकवादी बने अपारशक्ति खुराना काफी दमदार रहे. गाने कम हैं, जो हैं सही हैं. शुरूआत में आए एक गाने से निर्देशक ने बड़ी समझदारी से कहानी को बताने-बढ़ाने का काम किया है. यही समझदारी वह पूरी फिल्म में बनाए रखते तो खूब वाहवाही लूटते.

सस्पैंस, थ्रिलर जैसे स्वाद वाली फिल्में देखने के शौकीनों को यह फिल्म भाएगी, लुभाएगी और मज़ा भी देगी. अंत में सामने आने वाले सच इसे बेहतर ही बनाते हैं.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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