जन प्रतिशोध
लिहाजा हमें यह समझना चाहिए कि इस तरह सजा देने का विचार मनुष्यों में कैसे आया? वे उसे उन्हीं सरकारों से सीखते हैं, जिसके अंतर्गत वे जी रहे होते हैं, बदले में वही सजा देते हैं, जिसको भोगने के वे आदी हो चुके होते हैं. उसी तरह प्रतिशोध लेते हैं. शूल पर टंगे कटे हुए सिर कई वर्षों तक टेंपिल बार बने रहे. यह खौफनाक मंजर किसी भी तरह उस मंजर से अलग नहीं था, जो पेरिस में हुआ था, फिर भी ब्रिटिश सरकार ने किया. शायद उसके लिए यह कोई मायने नहीं रखता, लेकिन जिंदा लोगों के लिए यह मायने रखता है. इससे या तो उनकी भावनाएं आहत होती हैं या उनके दिल मजबूत हो जाते हैं. दोनों ही हालात में उन्हें यह सीख मिलती है कि जब उनके हाथ में ताकत आए तो सजा किस तरह दी जानी चाहिए. इसकी जड़ को काटिए और सरकारों को इनसानियत सिखाइए. उसकी ये खूंरेज सजाएं, जो मानव जाति को कलंकित करती हैं, लोगों के सामने रखे गए ये बेदर्दी के मंजर उनकी कोमलता को नष्ट करते हैं अथवा उनमें प्रतिशोध की भावना जगाते हैं, और विवेक की बजाय आतंक के जरिए शासन करने का नीच और झूठा विचार उनके लिए
नजीर बन जाता है.
(राइट्स ऑफ मैन (पृ. 32) टी. पेन)
गरीब मजदूर
‘…और हम लोग, जिन्होंने इसका अंजाम देने का बीड़ा उठाया, इस दुनिया में कुजात ही रहे. एक अंधी किस्मत, एक विराट् निर्मम तंत्र ने काट-छांटकर हमारे अस्तित्व का ढांचा निर्धारित कर दिया. हम उस वक्त तिरस्कृत हुए जन हम सबसे अधिक उपयोगी थे. हमें उस वक्त दुत्कार दिया गया, जब हमारी जरूरत नहीं थी और हमें उस वक्त भुला दिया गया, जब हमारे ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूटा हुआ था. हमें बीहड़-बंजर साफ करने के लिए उसकी सारी आदिम भयंकरताओं को दूर करने के लिए तथा उसके विश्व-पुरातन अवरोधों को छिन्न-भिन्न कर डालने के लिए भेज दिया जाता. हम जहां भी काम करते, वहां एक दिन एक नया शहर जन्म ले लेता; और जब यह जन्म ले ही रहा होता, तब यदि हममें से कोई वहां चला जाता, तो उसे ‘बिना निश्चित पते का आदमी’ कहकर पकड़ लिया जाता और सिरफिरा-आवारा कहकर उस पर मुकदमा चलाया जाता.’
—‘चिल्ड्रन ऑफ दि डेड ऐंड’ से पेट्रिक मेकगिल सी.जे.
आजादी
मनुष्य, तुम वीर और स्वतंत्र होने का करते हो दावा
यदि धरती पर एक भी गुलाम मौजूद है
तो तुम कैसे कर सकते हो यह दावा?
यदि तुम्हारे देश में आज भी गुलामी का अस्तित्व है
फिर तुम अपने सीने पर आजादी
और बहादुरी का तमगा कैसे लगा सकते हो?
क्या तुम सचमुच नीच गुलाम नहीं हो
जब तक तुम्हारे अपने भाई तकलीफ में हैं
क्या तुम आजाद होने के काबिल हो?
हमारे अपने लोगों को जंजीरों से
मुक्त कराना ही सच्ची आजादी है
हम मानव जाति के कर्जदार हैं
क्या यह भूल जाना सच्ची आजादी है?
नहीं ! सच्ची आजादी है
अपने जो लोग जंजीर में जकड़े हैं
उनका दर्द महसूस करना
और तन-मन से उन्हें मुक्त कराने में जुट जाना.
गुलाम वे हैं, जो
मजलूमों और कमजोरों के हक में बोलने से डरते हैं,
गुलाम वे हैं, जो
नफरत, उपहास और गाली का
सामना करने के बजाय
सिकुड़े हुए चुपचाप बैठे रहते हैं.
गुलाम हैं वे, जो गलत होने के
बावजूद होंगे बहुमत में
बजाय सही होने के बावजूद अल्पमत में.
—जेम्स रसेल लॉवेल (पृ. 189)
पूंजीवाद और व्यापारवाद
रवींद्रनाथ का जापानी विद्यार्थियों की सभा को संबोधन—’जापान में आपका अपना उद्योग था; यह कितना ईमानदार और सच्चा था, इसे आप इसके उत्पादों को देखकर समझ सकते हैं—उनकी खूबसूरती और मजबूती से. जिन पर शायद ही कोई टीका-टिप्पणी की जा सके, परंतु आपकी भूमि पर झूठ की एक लहर दुनिया के उस भाग से बहकर आ चुकी है, जहां व्यापार सिर्फ व्यापार है और ईमानदारी को सिर्फ सबसे अच्छी नीति माना जाता है. क्या व्यापार के विज्ञापनों को देखकर कभी आपको शर्म नहीं आती? इन झूठे और अतिरंजित विज्ञापनों से न केवल पूरा शहर पटा पड़ा है, बल्कि जिनका आक्रमण खेतों तक हो रहा है, जहां किसान ईमानदारी से मेहनत करते हैं. ये इन पहाड़ियों तक जा रहे हैं, जो सुबह के शुद्ध प्रकाश का सबसे पहले अभिवादन करती हैं? यह खुदगर्जी के चलन को उसके नंगे बेशर्म रूप में सामने ला रहा है. इसकी गतिविधियां हिंसक हैं. यह अपने ही सर्वनाश की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि यह उसी मानवता को कुचलकर विकृत कर रहा है, जिस पर यह स्वयं खड़ा है.
‘यह बहुत मेहनत से खुशी की कीमत पर पैसा बना रहा है—यूरोप की मौजूदा सभ्यता की महत्त्वपूर्ण आकांक्षा यह है
कि शैतान पर सिर्फ उसका अधिकार हो जाए.’
‘भगत सिंह- जेल डायरी’ – यादविंदर सिंह संधु (भगत सिंह के सुपौत्र) की पुस्तक को प्रभात पेपरबैक्स ने छापा है. किताब की कीमत 400 रुपए है. किताब का अंश प्रभात पेपरबैक्स की अनुमति से प्रकाशित किया गया है.
यह भी पढ़ें: जब आरक्षण की नीति और सरकारी नौकरियों के लिए चयन में कोटा के खिलाफ घिरी थी नेहरू सरकार