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Friday, 6 December, 2024
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क्यों मैडम तुसाद की मोम प्रतिमाओं से भारतीयों को है लगाव ?

छूने की मनाही खत्म कर दिए जाने के बाद मैदम तुसाद जैसे मोम संग्रहालय भारतीयों के नयनसुख संबंधी कौतुहल को शांत कर रहे हैं.

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नई दिल्ली: मध्यवर्गीय दंपति ज्योति और जीतेन्द्र, जो 30 साल के ऊपर के होंगे, नई दिल्ली के मैडम तुसाद वैक्स म्यूज़ियम में कॉमेडियन कपिल शर्मा की जीवंत मोम प्रतिमा के साथ तस्वीर खिंचाते हुए खिलखिलाते है. उनकी पांच साल की बेटी और किशोरवय का बेटा उन्हें निहार रहे हैं. तस्वीरें खींचने के लिए वे अपने उत्साहित माता-पिता के आनंद में बीच-बीच में खलल डालते हैं.

ज्योति ने दिप्रिंट को बताया, ‘आज हमारी शादी की सालगिरह है, और हमने इस म्यूज़ियम के बारे में इतना कुछ सुन रखा था कि सोचा देखकर आते हैं.’

‘यह बहुत ज़बरदस्त है. ये मॉडल मूर्तियों जैसे बिल्कुल नहीं लगते – सचमुच ऐसा लगता है कि हम सितारों से घिरे हुए हैं.’

ज्योति और जीतेंद्र अकेले नहीं हैं. सप्ताहांत और छुट्टियों के दौरान करीब 1,500 लोग यहां आते है, और इसका मुख्य आकर्षण है इस म्यूज़ियम में वास्तविकता और फंतासी का मेल होना, और यहां भारतीयों को ऐसा अवसर मिलता है जिसे वे छोड़ नहीं सकते: उन हस्तियों का स्पर्श जोकि उनकी पहुंच से बहुत दूर हैं.

वास्तव में, दुनिया भर में तुसाद संग्रहालयों में आगंतुकों में एक बड़ी संख्या भारतीयों की होती है: मैडम तुसाद की शीर्ष कंपनी मर्लिन एंटरटेनमेंट्स के अनुसार सिंगापुर और बैंकॉक के संग्रहालयों में 40-50 प्रतिशत आगंतुक भारतीय होते हैं.

छोटे शहरों में भी मोम के पुतले लोकप्रिय

मैदम तुसाद के भारत में 2017 में आगमन से पहले ही देश के विभिन्न हिस्सों में दर्ज़न भर म्यूज़ियम खुल चुके थे जहां मोम की जीवंत प्रतिमाओं को प्रदर्शित किया गया था. मसूरी, लुधियाना, शिमला, ऊटी और कन्याकुमारी जैसे शहरों में खुले इन संग्रहालयों ने मैडम तुसाद के आकर्षण को कम करने का काम किया था.

लंदन से प्रकाशित एक पत्रिका में एक श्वेत-श्याम तस्वीर को देखने भर से सुनील कंडालूर इतने प्रेरित हुए कि वह मोम की असल प्रतिमा बनाने वाले भारत के एकमात्र कलाकार बन गए. अपनी कला में निखार करते-करते उन्होंने अपना खुद का एक म्यूज़ियम खोल लिया – सुनील्स वैक्स म्यूज़ियम.

उन्होंने कहा, ‘यह कोई 20 साल पहले की बात है. तब मैडम तुसाद के बारे में भारत में किसी को पता नहीं था.’

सुनील की कहानी केरल के अलपुझा स्थित उनके गांव कंडालू में शुरू होती हैं जहां वे मोम के पुतलों के बिल्कुल जीवंत दिखने तक कड़ी मेहनत करते रहते थे. इस समय सुनील्स वैक्स म्यूज़ियम के संग्रहालय महाराष्ट्र के लोनावाला और देवगढ़ में हैं. लोनावाला के म्यूज़ियम में रोज़ाना 100 के करीब दर्शक पहुंचते हैं.

सुनील के भाई और म्यूज़ियम के डायरेक्टर सुभाष का कहना है कि प्रतिमाओं के हूबहू असली जैसा होने के कारण लोग खिंचे चले आते हैं.

उन्होंने कहा, ‘यह कला का एक नया रूप है जिसे देखने और छूने में लोगों को आनंद महसूस होता है.’

नयनसुख की चाहत की पूर्ति

छूने की मनाही खत्म कर दिए जाने के बाद से मोम संग्रहालय लोगों के नयनसुख संबंधी कौतुहल शांत करने के काम आ रहे हैं.

मर्लिन एंटरटेनमेंट के प्रबंध निदेशक अंशुल जैन ने ईमेल के ज़रिए दिप्रिंट को बताया, ‘हम म्यूज़ियम की तरह काम नहीं करते जहां आपको चीज़ों को छूने और महसूस करने की अनुमति नहीं होती है. दिल्ली स्थिति मैडम तुसाद एक संपूर्ण और इंटरएक्टिव अनुभव देता है जोकि भारतीयों को बेहद पसंद है.’

प्रतिमाओं को छूना इस बात का परीक्षण करना भी है कि वे कितनी असली हैं: क्या उनके शरीर पर बाल हैं? धड़ या वक्षाग्र कितने असली हैं?

आगंतुक किम कार्दशियन की प्रतिमा के साथ सेल्फी क्लिक करते हुए । विशेष व्यवस्था द्वारा

बहुत से दर्शकों के लिए प्रतिमाओं की जीवंतता का परीक्षण भी मनोरंजन का ही हिस्सा है. और उन्हें यह पता चलता है कि दर्शकों से छुपे हिस्से असल जैसे नहीं होते हैं, और बिल्कुल करीब से देखने पर प्रतिमाओं में दरारें नज़र आती हैं. मालाएं प्रतिमा के विभन्न हिस्सों के जोड़ों के निशानों को छुपाने के काम आती हैं. पीछे के हिस्से और धड़ कठोर ढांचों के बने होते हैं और उन पर मोम की परत नहीं होती.

सुभाष हंसते हुए बताते हैं ‘कई बार मनोरंजक दृश्य नज़र आते हैं… लोगों में यह जानने की जिज्ञासा होती है कि क्या हमने पुतलों के गुप्तांग भी बनाए हैं!’

मैदम तुसाद के कर्मचारियों ने बताया कि उन्होंने दर्शकों को सनी लियोनी की प्रतिमा के वक्षाग्र ढूंढते (जोकि नहीं हैं) पाया, या यह पता करने की कोशिश करते कि फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो के शॉर्ट्स किस चीज़ की सहायता से अपनी जगह पर टिके हैं.

संग्रहालय का डिज़ायन इस तरह की छानबीन के अनुकूल है. मैडम तुसाद संग्रहालय में शाहरुख ख़ान और सलमान ख़ान जैसों की प्रतिमाओं के लिए अकेले खुद के कमरे हैं.

दिल्ली के एक छात्र आदित्य जैन ने कहा, ‘म्यूज़ियम में माहौल और प्राइवेसी जैसे पहलुओं पर बहुत ध्यान दिया गया है, जोकि प्रसिद्ध हस्तियों की मूर्तियों के बेहद अनुकूल है.’

‘सतही’ कला

मैदम तुसाद म्यूज़ियम बेझिझक खुद को मनोरंजन के उद्यम के रूप में पेश करता है, और यह महंगे टिकटों (ऑनलाइन बुक किया गया सामान्य टिकट 624 रुपये का, म्यूज़ियम की टिकट खिड़की पर 960 रुपये का और ऑनलाइन बुक किया गया वीआईपी टिकट 1,400 रुपये का) और ‘जादुई दुनिया’ के रूप में इसे प्रचारित किए जाने से स्पष्ट हो जाता है.

जयपुर के माधवेंद्र पैलेस स्थित स्कल्पचर पार्क के नोएल कैडर के अनुसार इन्हीं सब कारणों से ‘जीवंत मूर्तियां बनाना कला नहीं, बल्कि कारीगरी है.’

उन्होंने कहा, ‘ये मूर्तियां प्रसिद्ध लोगों से ज़बरदस्त समानता प्रदर्शित करती हैं, पर ये इतना भर ही हैं. ये कोई नई बात नहीं बतातीं या दर्शकों के मन में कोई सवाल नहीं पैदा करती हैं. ये मनोरंजन का एक साधन भर हैं.’

हालांकि मोम की प्रतिमाएं बनाने वाले सुनील जैसे स्थानीय स्वशिक्षित कारीगरों के लिए उनका काम हर दृष्टि से एक कला है. उन्होंने कहा, ‘आठ वर्षों की कड़ी मेहनत के बाद, आखिरकार मैंने मोम की प्रतिमाओं के शरीर और आंखों को असली जैसा बनाने का तरीका ढूंढ निकाला.’
पर प्रतिमाओं के प्रति आकर्षण सतही नहीं है. इन संग्रहालयों में आने वाले बहुत से दर्शकों की आंखें नम हो जाती हैं जब वे खुद को अपनी पसंदीदा शख्सियतों की प्रतिमाओं के समक्ष पाते हैं.

मैडम तुसाद के एक फोटोग्राफर विजय कुमार कहते हैं, ‘अनेक दर्शक शाहरुख ख़ान की प्रतिमा के सामने रो पड़ते हैं, और सप्हांत के दिनों में आमतौर पर उनकी प्रतिमा को देखने के लिए दर्शकों की लाइन लगी रहती है. उनकी प्रतिक्रिया स्तब्धता वाली होती है और उनमें से बहुतों को सहज विश्वास नहीं होता है कि यह एक प्रतिमा मात्र है.’

संग्रहालय आने वाले दर्शक प्रतिमाओं की बारीकियों, खासकर उनकी त्वचा और आंखों की तारीफ करते हैं जो उन्हें सर्वाधिक उल्लेखनीय लगते हैं.

निकटता का आकर्षण

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि गहरे और दूरगामी सामाजिक-राजनीतिक असमानता वाले इस देश में बड़े लोगों की प्रतिमाओं को स्पर्श करना बहुतों को अपने बीच पाना पदानुक्रम को तोड़ने का क्षणिक अहसास करा जाता है.

साथ ही, एक इंटरएक्टिव संग्रहालय इस विचार को खारिज़ कर देता है कि देखी जा रही वस्तु देखने वाले से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की डीन कविता सिंह कहती हैं, ‘प्रतिमाओं को छूने की प्रक्रिया आपकी पहुंच की, आपकी हैसियत का अहसास कराती है, और इस बात की पुष्टि करती है कि आपकी हैसियत प्रदर्शित कला से कम नहीं है.’

उदाहरण के लिए, दर्शक टॉम क्रूज के साथ स्कूटर पर बैठने या सलमान खान के गालों को चूमने में किसी भी तरह की हिचकिचाहट नहीं महसूस करते हैं.

मर्लिन के अंशुल जैन कहते हैं कि उनके संग्रहालयों में भारतीयों का व्यवहार बाकियों से अलग होता है.

उन्होंने कहा, ‘भारतीयों के लिए, उनके सुपरस्टार भगवान से थोड़ा ही कम होते हैं,’ और इसी सम्मान भाव के कारण मूर्तियों के साथ उनके बर्ताव में अधिक अंतरंगता तथा गहरी भावनाओं की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, जो उत्तेजना से लेकर सदमा और भय तक का भाव हो सकता है.’

वास्तव में भारतीय प्रशंसक अपने पसंदीदा अदाकारों को जीवन में अक्सर देवतातुल्य स्थान देते हैं. लखनऊ में एक व्यक्ति ने अपने घर को शाहरुख ख़ान का मंदिर बना दिया, जबकि कोलकाता में अमिताभ बच्चन को समर्पित एक मंदिर है.

कविता सिंह के अनुसार प्रतिमाओं के प्रति झुकाव को भारतीय संदर्भ में आसानी से पूजा से जोड़ा जा सकता है.

उन्होंने कहा, ‘भारत में, हम समझते हैं कि हमें अपने अराध्य को स्पर्श करने का अधिकार है. उदाहरण के लिए यदि आप किसी मंदिर में जाएं तो आपको शिवलिंग पर दूध और फूल चढ़ाते महिलाएं दिख जाएंगी – इसलिए हमारा यह व्यवहार या पूजा इससे अलग नहीं है. हम अपना लगाव, प्यार और सम्मान कई तरीकों से जताते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘ये वैक्स म्यूज़ियम भी इसी तरह का एक ज़रिया उपलब्ध कराते हैं. ये पूजा के कुछ आयामों (स्पर्श) को प्रदर्शन के क्षेत्र में लाते हैं जहां आमतौर पर इनकी मनाही रहती है.’

भगत सिंह और नरेंद्र मोदी की वैक्स की प्रतिमा । विशेष व्यवस्था द्वारा

बहुत से अन्य लोगों के लिए, प्रतिमाओं के सम्मुख होने मात्र से वर्ग विभेद की विशाल खाई भर जाती है. एक स्वप्निल वातावरण तैयार कर ये संग्रहालय क्षण भर के लिए कई तरह की सामाजिक असमानताओं को विलुप्त कर देती हैं.

35 वर्षीया गृहिणी नीरू मोदी कहती हैं, ‘मुझे पता है उनसे वास्तविकता में मिलने की संभावना नहीं के बराबर है, पर इस समय तो ऐसा ही लग रहा है कि मैं असल में उनके साथ बैठी हूं, और हम इतने भर से खुश हैं.’

एक अन्य दर्शक ने कहा कि एकमात्र अंतर इन प्रतिमाओं में जान नहीं होना है, ‘वरना मुझे यकीन है कि वास्तविकता में भी उनसे मिलने का अनुभव ऐसा ही होता.’

मोम की दुनिया में, जहां कि अंतर सामुदायिक निषेध मौजूद नहीं होते, स्पर्श और सामीप्य सबलता का अहसास करा सकते हैं.

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