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Thursday, 28 August, 2025
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जातीय नायकों को हिंदू नायक बनाने का खेल: संघ की सामाजिक इंजीनियरिंग का पॉलिटिकल एजेंडा

हिन्दुत्ववादी समूहों को चुनावी रूप से सफल होने के लिए हिन्दुओं के व्यापक समर्थन की आवश्यकता है. इसका अर्थ है जाति की पहचान को एक बड़े धार्मिक ढांचे में समाहित करना और जातिगत विचारों से ऊपर उठकर साझा हितों वाले हिन्दू समुदाय को बढ़ावा देना.

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(किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है जिसका अंश प्रकाशन की अनुमति से छापा जा रहा है.)

समाहार एक प्रक्रिया के रूप में : जाति, दलित और हिन्दुत्व

हे पुरुष सिंह! तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर!
—सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

संघ देश के 130 करोड़ की आबादी को हिन्दू समाज मानता है. भारत में रहने वाला हर नागरिक, चाहे वह किसी भी धर्म या संस्कृति का हो, उसके अन्दर राष्ट्रवाद की भावना है और वह भारत की संस्कृति का सम्मान करता है…वह किसी धर्म का हो, किसी भी तरह से पूजा करे या न करे, वह हिन्दू है. यह पूरा समाज हमारा है. संघ का लक्ष्य अखंड समाज बनाना है.
—मोहन भागवत, सरसंघचालक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

प्रतिरोध और समाहार सत्ता के लिए बेहद कारगर उपाय हैं क्योंकि ये दोनों ही राजनीतिक विस्तार की गुंजाइश बनाते हैं. हिन्दुत्व की राजनीति समाहार की रणनीतिक प्रक्रिया पर बहुत प्रभावी ढंग से काम करती है. यदि कोई भाजपा और संघ के एक साथ काम करने पर बारीकी से नज़र डाले तो वह पाएगा कि वे समाहार के तरीक़ों के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ाते हैं. इस रणनीति के मूल में वे समूह हैं, जो हाल तक संघ और भाजपा दोनों के विरोध में थे. ये आदिवासी, दलित, महिला और अल्पसंख्यक जैसे वंचित समूह हैं.

1980 और 1990 के मध्य संघ ने एक सेवा प्रभाग की स्थापना की जिसने जनजात‌ियों और दलितों के बीच और उत्तर-पूर्वी राज्यों में विभिन्न परियोजनाएँ शुरू कीं. स्वामी विवेकानन्द के महान व्यक्तित्व से प्रेरणा ग्रहण करते हुए, इसने प्राकृतिक आपदाओं, जैसे बाढ़, भूकम्प, आदि के दौरान भी सेवा-कार्य करना आरम्भ कर दिया. हालांकि, हो सकता है, संघ ने सेवा को अपने संगठन को व्यापक बनाने की रणनीति के रूप में विकसित सेवा को और उनका यह प्रयास ईसाई मिशनरियों और भारत के ग़रीब क्षेत्रों में उनके द्वारा चलाई गई सामाजिक सेवा परियोजनाओं की प्रत‌िक्रिया में हो.

अब संघ और भाजपा दोनों ने इन सामाजिक समूहों को सहयोजित करना शुरू कर दिया है, और संघ और उसके सहयोगी पहले से ही इन सामाजिक हलक़ों में विभिन्न नामों और मंचों के तहत काम कर रहे हैं. यह समाहार केवल संघर्षरत अस्मिताओं का प्रतीकात्मक रूप भर नहीं है, बल्कि सामाजिक परियोजनाओं के माध्यम से विकास सम्बन्धी विभिन्न मुद्दों पर कड़ी मेहनत पर आधारित है. हिन्दुत्व-केन्द्रित जन-संगठनों ने हाल के दिनों में ये परियोजनाएँ देश के अन्दरूनी इलाक़ों और वंच‌ित समुदायों के बीच शुरू की हैं. इनमें से कुछ परियोजनाएँ समरसता अभियान और वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय स्त्री शक्ति और वैभव श्री जैसे संगठनों के माध्यम से शुरू की गई हैं. कठिन समय में, प्राकृतिक आपदाओं के समय में सेवा-कार्य के माध्यम से, संघ और उसके सहयोगी संगठन लोगों को सहायता प्रदान करते हैं, जो प्रभावितों के दिलो-दिमाग़ में उनकी विचारधारा के लिए जगह बनाता है.

मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, विभिन्न वनवासी कल्याण समूह, समरसता अभियान समूह और राष्ट्रीय सेविका समिति संघ से जुड़े कुछ ऐसे समूह हैं जो विभिन्न सामाजिक वर्गों के साथ प्रभावी ढंग से काम कर रहे हैं. संघ की समझ में, ये वर्ग आंबेडकरवादी राजनीति और नक्सलवाद, और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीएम, बसपा और कुछ हद तक कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों सहित कट्टरपन्थी राजनीति के आसान लक्ष्य हैं. संघ के साथ-साथ भाजपा भी इन हिस्सों में पैठ बना रही है, जबकि संघ और उससे जुड़े संगठन पहले से ही इन समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि प्रदान करने के लिए काम कर रहे हैं. ये संगठन स्वायत्त हैं और सरकार से जुड़े नहीं हैं. हालाँकि, जब संघ के कार्यकर्ता पहली बार आदिवासी या दलित-इलाक़ों में प्रवेश करते हैं, तो उनके लिए समुदाय का विश्वास हासिल करना मुश्किल होता है. समुदाय के बाहर का होने के कारण उन्हें सन्देह की नज़र से देखा जाता है और उनकी मंशा सवालों के घेरे में आ जाती है. उनके सामने एक और कठिनाई यह है कि समुदाय के साथ बातचीत का स्तर कहाँ और कैसे निर्धारित किया जाए. इस प्रकार, सेवा-कार्य करने की प्रक्रिया बहुत जटिल है और विभिन्न तनावों से ओतप्रोत है.

हिन्दुत्ववादी समूहों को चुनावी रूप से सफल होने के लिए हिन्दुओं के व्यापक समर्थन की आवश्यकता है. इसका अर्थ है जाति की पहचान को एक बड़े धार्मिक ढांचे में समाहित करना और जातिगत विचारों से ऊपर उठकर साझा हितों वाले हिन्दू समुदाय को बढ़ावा देना. यह धार्मिक पहचान वोटों को गोलबन्द करने का आधार बनती है; चुनाव अभियानों के दौरान मतदाताओं को इस बात पर राज़ी किया जाता है कि हिन्दुओं में जाति द्वारा बढ़ाए गए आन्तरिक मतभेद हो सकते हैं लेकिन उन्हें अपने बृहत्तर उद्देश्यों के लिए एकजुट होना चाहिए. बेशक, जाति सामाजिक पदानुक्रम की एक प्रणाली है. स्वतंत्र भारत में जातिगत असमानताओं के बारे में बढ़ती चेतना और बढ़ती राजनीतिक आवाज़ का मतलब यह है कि दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदाय व्यवस्था को ख़ारिज करने से कम डरते हैं. वे जातिगत भेदभाव का विरोध करने की राजनीति को अपनाते हैं और एक धर्मनिरपेक्ष समाज में जिसमें सैद्धान्तिक रूप से, हर कोई समान है और हर कोई सफल होने के अवसर का हक़दार है. वे अपने अधिकारों और पात्रताओं का दावा करते हैं.

लोकप्रिय रूप से जिसे ‘जाति की राजनीति’, के नाम से जाना जाता है, उसने मंडल आयोग की रिपोर्ट की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद ज़ोर पकड़ा. यह, 2014 से पहले तक, स्वाभाविक रूप से हिन्दुत्व की राजनीति की विरोधी प्रतीत होती थी, मानो हिन्दुत्व की राजनीति केवल ऊपरी जातियों के लिए हो. लेकिन चुनावी चिन्ताओं ने हिन्दुत्व का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों को जाति के दावे की राजनीति को धीरे-धीरे समायोजित करने के लिए मजबूर कर दिया. हिन्दुत्व को जाति के दावे को उपयुक्त बनाना पड़ा और जाति की पहचान को धर्मपरायण से धर्मरक्षक के रूप में स्थापित करना पड़ा. हिन्दुत्व की राजनीति के लिए धर्म से जुड़े राष्ट्रवाद के आधार पर ऊँची जातियों को गोलबन्द करना आसान है. लेकिन विभिन्न ओबीसी और दलित समुदायों को शामिल करने के लिए एक मज़बूत विमर्श की आवश्यकता थी, क्योंकि वे उस तथाकथित ‘ब्राह्मणवादी’ मूल्य-प्रणाली से जुड़ने के बारे में शंका से भरे रहे हैं जिसे वे हिन्दुत्व का समानार्थी मानते हैं. संघ इन समुदायों को हिन्दुत्व के दायरे में लाने की कोशिश कर रहा है. यह ग़रीब से अमीर तक, और दलित और आदिवासी समूहों से उच्च जातियों तक—हर किसी के बीच एक व्यापक हिन्दू-पहचान विकसित करके जाति की पहचान के धीरे-धीरे लुप्त होने की कल्पना करता है. वर्तमान संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने मेरठ, ब्रज और उत्तराखंड के प्रचारकों के साथ अपनी हालिया बैठक में उनसे हिन्दुत्व की भावना को प्रोत्साहित करके भारतीय समाज के हाशिये पर पड़े लोगों को हिन्दू धर्म में एकजुट करने की अपील की, ताकि उनकी जाति की पहचान नगण्य हो जाए.

दलित जातियों से जुड़ाव

इन समुदायों को हिन्दुत्व का अर्थ देकर सार्वजनिक दायरे का विस्तार करने का प्रयास भाजपा द्वारा अपनाई गई नई रणनीति है. भाजपा संघ द्वारा दलितों को हिन्दुत्व की दिशा में गोलबन्द करने के लिए एक बहसतलब आधारभूमि तैयार कर रही है. इसके लिए, संघ ने लगभग प्रत्येक दलित जाति के नायकों की पुनर्खोज की ‌जिससे उनकी अनूठी पहचान को उजागर करके प्रत्येक को विशेष रूप से गोलबन्द किया जा सके. पार्टी ने स्थानीय स्तर पर दलितों के सांस्कृतिक संसाधनों की पुनर्व्याख्या और पुन‌‌िर्नर्माण किया जिनमें उनका जाति-इतिहास और स्मृतियाँ शा‌मिल हैं. इसका उद्देश्य उनके मानस में हिन्दुत्व पहचान की भावना को जोड़ना और अन्ततः उन्हें राजनीतिक गोलबन्दी की जगहों में बदल देना है. विभिन्न क्षेत्रों की बहुत-सी वंच‌ित जातियों, विशेष रूप से दलितों की लोककथाओं को संघ और पार्टी द्वारा चुनकर उन्हें एकल, एकीकृत हिन्दुत्व के बृहत् आख्यान में शामिल किया गया है.

ऐसा करने का एक तरीक़ा विभिन्न जाति-नायकों को हिन्दू-योद्धाओं के रूप में महिमामंडित करना था. हिन्दुत्ववादी संगठन इन नायकों के जयन्ती-समारोहों के लिए धन देते हैं, उनकी प्रतिमाएँ स्थापित करते हैं और उन्हें, उनकी जातिगत पहचान से परे, प्रतीक मानते हैं. ऐसे ही एक नायक हैं सुहेलदेव. इन्हें पासी, राजभर जाति अपना नायक मानती है. उत्तर भारत में एक महत्त्वपूर्ण दलित-समुदाय, पासी-समुदाय के राजनीतिक और चुनावी महत्त्व को देखते हुए, संघ ने सुहेलदेव को एक हिन्दू-नायक के रूप में पेश करने के लिए एक अभियान शुरू किया क्योंकि उन्होंने कथित तौर पर एक गजनवी सेनापति को हराया था. संघ ने इस समुदाय को हिन्दू संस्कृति और देश को मुस्लिम घुसपैठियों से बचाने के लिए राष्ट्र रक्षक शिरोमणि के रूप में प्रस्तुत किया. चित्तौरा (बहराइच) में सुहेलदेव की स्मृति में उत्सवों का आयोजन किया गया. इस प्रकार संघ और भाजपा ने इस दलित जाति को रक्षक के रूप में पेश किया जिसने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सेना बनाई थी.

संघ ने बलदेव और दलदेव जैसे उन अन्य पासी-नायकों के भी उत्सव मनाए, जिनका इस्तेमाल कभी बसपा जैसी पार्टियां करती थीं, जिसे 1984 में कांशीराम द्वारा विशेष रूप से दलितों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समूहों की एक पार्टी के रूप में बनाया गया था. ये हस्त‌ियाँ, जिन्हें पहले उच्च जाति के उत्पीड़न का विरोध करने वाले प्रतीकात्मक दलित-नायकों के रूप में पेश किया गया था, अब संघ द्वारा ‘राष्ट्रीय’, ‘हिन्दू’ नायकों में तब्दील की जा रही हैं. संघ द्वारा अपने साथ सहयोजित दलित-नायकों के कुछ उदाहरण हैं: जाटव-समुदाय के रविदास और सुपच ऋषि; दीना-भद्री जिनकी मुसहर समुदाय द्वारा बँधुआ मज़दूरों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले देवताओं के रूप में पूजा की जाती है; अहीर नायक लोरिक यादव; और सम्भवतः सबसे प्रसिद्ध सरदार वल्लभभाई पटेल (कुर्मी-समुदाय से आने वाले) जिन्हें, हिन्दुत्व की दन्तकथाओं के अनुसार, मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति में उनके हक़ से वंचित कर दिया गया है.

इन समुदायों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए, भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) सरकार ने गाजीपुर से दिल्ली के लिए एक नई ‘सुपरफ़ास्ट’ एक्सप्रेस ट्रेन का नाम सुहेलदेव के नाम पर रखा. हिन्दुत्व की राजनीति ने बड़ी चतुराई से जाति के प्रतीकों को व्यापक राष्ट्रीय नायकों के साथ मिला दिया जिससे भारत, हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व को एक निर्बाध विचार में एकमेक कर दिया गया है. समाज के निचले हिस्से की जातियों के नायकों को अपना बनाने की संघ की इस रणनीति ने उत्तर प्रदेश में दलित और ओबीसी मतदाताओं को भाजपा में लाने में मदद की और पार्टी को 2014 के संसदीय चुनावों में 282 सीटों के साथ जीत हासिल करने में सक्षम बनाया, जबकि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 336 सीटों पर सफलता प्राप्त की.

(हिंदुत्व का गणराज्य, संघ और भारतीय लोकतंत्र किताब के लेखक बद्री नारायण हैं और अनुवादक रमाशंकर सिंह हैं.)


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