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Sunday, 22 December, 2024
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मंदिर, हिंदू-मुस्लिम की विफल राजनीति, एकल पार्टी शासन का युग समाप्त — भारत के जनादेश पर उर्दू प्रेस

पेश है दिप्रिंट का राउंड-अप कि कैसे उर्दू मीडिया ने पिछले हफ्ते के दौरान विभिन्न समाचार संबंधी घटनाओं को कवर किया और उनमें से कुछ ने इसके बारे में किस तरह का संपादकीय रुख अपनाया.

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नई दिल्ली: राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोगी दल नरेंद्र मोदी, अमित शाह और गुजरात के नौकरशाहों के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे या नहीं, इस सवाल से लेकर एक पार्टी शासन के युग के अंत की घोषणा तक, इस सप्ताह उर्दू अखबारों ने चुनाव परिणामों पर कई टिप्पणियां कीं.

दिप्रिंट आपके लिए इस हफ्ते उर्दू प्रेस में पहले पन्ने पर सुर्खियां बटोरने और संपादकीय में शामिल सभी खबरों का एक राउंड-अप लेकर आया है.

‘400 पार’ का खोखला नारा, अधूरे वादे, आगे का रास्ता

7 जून को रोजनामा ​​राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय में कहा गया कि 2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारत को बदल दिया है — भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के घटते संख्यात्मक लाभ ने कांग्रेस और उसके सहयोगियों को सशक्त बनाया और एक-पक्षीय शासन को समाप्त कर दिया है. गठबंधन सरकार वापस आ गई है और अब, भाजपा को, अग्रणी पार्टी होने के बावजूद, सरकार बनाने के लिए समर्थन की ज़रूरत है.

7 जून को इंकलाब के संपादकीय में कहा गया कि मतदाताओं का जनादेश सरकार के खिलाफ गया. वाराणसी में नरेंद्र मोदी की मामूली जीत और भाजपा के खराब प्रदर्शन के बावजूद, इसने पार्टी की “हार” के लिए नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करने और अभी भी खुद को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने के लिए मोदी की आलोचना की.

6 जून को सियासत के संपादकीय में “अबकी बार 400 पार” के नारे को खोखला बताया गया और कहा गया कि इंडिया गठबंधन ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है, जो भविष्यवाणियों और एग्जिट पोल को गलत साबित करता है, जिसमें भाजपा साधारण बहुमत हासिल करने में विफल रही. संपादकीय में कहा गया है कि चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की भूमिकाएं महत्वपूर्ण हो गई हैं, भाजपा के साथ अपने लंबे इतिहास के बावजूद, दोनों नेता पार्टी की महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखेंगे. संपादकीय में यह भी कहा गया कि नायडू और कुमार अब राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे और पिछले दशक की अशांति को नियंत्रित करने की कुंजी होंगे. संपादकीय में इसे एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी बताया गया है.

6 जून को इंकलाब के संपादकीय में सरकार की आलोचना की गई थी कि उसने अपने वादे पूरे नहीं किए, साथ ही महंगाई और बेरोज़गारी में भी इजाफा किया, जिससे चुनाव के नतीजों के बाद जनता में नाराज़गी देखने को मिली. संपादकीय में कहा गया था कि कुछ राज्यों में मजबूत पकड़ बनाए रखने के बावजूद भाजपा उत्तर प्रदेश हार गई और अगर सरकार अपने तौर-तरीके नहीं बदलती है तो उसे भविष्य में भी नुकसान उठाना पड़ सकता है. साथ ही, संपादकीय में कहा गया था कि मोदी को अब सरकार बनाने के लिए अन्य दलों पर निर्भर रहना होगा.

6 जून को सहारा के संपादकीय में पूछा गया था कि क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और गुजरात के नौकरशाहों के नेतृत्व को स्वीकार करेगा. इसमें यह भी पूछा गया था कि क्या मोदी, जो बिना सलाह के शासन करने के आदी हैं, अपना दृष्टिकोण बदल सकते हैं और अन्य दलों के सहयोग से गठबंधन सरकार चला पाएंगे. संपादकीय में कहा गया था, “उनके सहयोगियों का कहना है कि उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी और अनुच्छेद 370 को खत्म करने जैसे सबसे महत्वपूर्ण और राजनीतिक फैसलों के लिए सलाह लेनी ज़रूरी नहीं समझी.”

5 जून को सहारा ने अपने पहले पेज पर पूछा था कि क्या नीतीश कुमार उप-प्रधानमंत्री बनेंगे. सूत्रों का हवाला देते हुए इसमें लिखा था कि कांग्रेस नेताओं ने इस प्रस्ताव के साथ बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) प्रमुख से संपर्क किया है. इसमें दावा किया गया है कि समाजवादी पार्टी (सपा) के एक नेता ने एक्स पर पोस्ट किया कि नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन में वापस आ जाएंगे.

उसी दिन, इंकलाब के संपादकीय में कहा गया कि जनादेश ने पुष्टि की है कि जब भी संविधान को खतरा होगा, जनता उसका बचाव करेगी. जनादेश ने यह संदेश दिया कि बुनियादी मुद्दों की अनदेखी करने से राजनीतिक शक्ति का नुकसान होगा और भारत की एकता का मज़ाक उड़ाना, पार्टियों को तोड़ना और सरकारों को गिराना उचित नहीं है. संपादकीय में कहा गया है कि यह भविष्य के कई फैसलों की शुरुआत है और इसका स्वागत है.

5 जून को सियासत के संपादकीय — “चुनाव परिणाम, लोकतंत्र की जीत” ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भले ही इंडिया गठबंधन सत्ता में नहीं आया, लेकिन गठबंधन सरकार बनाने की इसकी क्षमता बनी हुई है. संपादकीय में कहा गया कि इंडिया बिहार के परिणामों से निराश है, जिसकी समीक्षा करनी होगी, साथ ही कहा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ा झटका लगा है, क्योंकि समाजवादी पार्टी ने जोरदार वापसी की है. संपादकीय ने बताया कि स्मृति ईरानी सहित दिग्गज उम्मीदवार अहंकार और खराब चयन के कारण हार गए, क्योंकि कांग्रेस ने अमेठी पर फिर से कब्ज़ा कर लिया और राहुल गांधी ने सोनिया गांधी से अधिक बहुमत के साथ रायबरेली जीता. इसमें कहा गया कि यूपी के मतदाताओं ने संकेत दिया है कि राम मंदिर अब भाजपा की सफलता की गारंटी नहीं है और उन्होंने हिंदू-मुस्लिम विभाजनकारी राजनीति को खारिज कर दिया है.

5 जून को सहारा के संपादकीय में कहा गया कि नरेंद्र मोदी की भाजपा की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह वोटों के लिए राम मंदिर को भुना नहीं सकी. संपादकीय में कहा गया है कि अयोध्या के फैज़ाबाद संसदीय क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा, जबकि भाजपा ने दावा किया था कि वो न केवल कांग्रेस बल्कि सपा को भी यूपी से खत्म कर देगी. संपादकीय में कहा गया है कि यूपी के मतदाताओं ने इस दावे को गलत साबित कर दिया. संपादकीय में लिखा गया, “इससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के मतदाता हिंदू-मुस्लिम विभाजन की राजनीति से तंग आ चुके हैं और उन्होंने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए बुनियादी मुद्दों पर वोट किया है.”

हालांकि, 4 जून को सहारा के संपादकीय में यह भी कहा गया कि यह मौजूदा सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि सबसे लंबा चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुआ. संपादकीय में उम्मीद जताई गई कि नतीजों के बाद भी शांति बनी रहेगी और इस बात पर जोर दिया गया कि चाहे कोई भी पार्टी जीते, जीत भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की है, जो लोगों को वोट देने का अधिकार देती है. लेख में इसकी तुलना पड़ोसी देशों से की गई, जहां लोकतंत्र या तो कमजोर है या फिर है ही नहीं, उदाहरण के तौर पर चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश का हवाला दिया गया.

1 जून को सियासत के संपादकीय में चुनाव के सातवें चरण में नकारात्मक प्रचार की आलोचना की गई, जिसमें मंदिरों, मस्जिदों और मुसलमानों के इर्द-गिर्द धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाया गया. संपादकीय में कहा गया कि भाजपा के दस साल के शासन के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया गया, नौकरियां देने, सरकारी पदों को भरने, काले धन को वापस लाने, मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और किसानों की कर्ज़ माफी को प्राथमिकता देने के उसके वादों के बारे में सवाल अनुत्तरित रह गए, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी ने इसके बजाय सामाजिक विभाजन पैदा करने पर ध्यान केंद्रित किया.

एग्जिट पोल, एक ‘भद्दा मज़ाक’

4 जून को सियासत के संपादकीय में एग्जिट पोल की आलोचना की गई थी, साथ ही अतीत में एग्जिट पोल और वास्तविक परिणामों के बीच विसंगतियों को उजागर किया गया. इसने भाजपा के प्रति मीडिया के पूर्वाग्रह की भी आलोचना की और लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन की अप्रत्याशितता पर जोर दिया.

3 जून को सियासत के संपादकीय में एग्जिट पोल में संख्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए मीडिया और सर्वेक्षण कंपनियों की आलोचना की गई, जिसमें हरियाणा में अधिक अनुमान लगाने जैसे उदाहरण दिए गए थे. इसे जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक और गुमराह करने वाला बताते हुए संपादकीय में कहा गया था कि जनता ने जिम्मेदारी से मतदान किया है और परिणाम उसी को प्रतिबिंबित करेंगे.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(उर्दूस्कोप को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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