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Friday, 22 August, 2025
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136 संघर्षों की दास्तान: राष्ट्र निर्माण में आदिवासियों की अनसुनी भूमिका

राज्यसभा सांसद प्रो. मनोज कुमार झा ने कहा कि यह किताब मात्र एक किताब नहीं, बल्कि “रोशनी का सुराग” है.

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नई दिल्ली: हज़ारों वर्षों से इस भूखंड पर रह रहे आदिवासी न केवल प्रकृति के संरक्षक रहे हैं, बल्कि सत्ता के विरुद्ध सबसे पहले खड़े होने वालों में भी रहे हैं. इतिहास की किताबों में जिनकी जगह हाशिए पर भी नहीं रही, वही आदिवासी, असल में राष्ट्र के निर्माण की रीढ़ हैं, ऐसा दावा किया गया है प्रोफेसर जितेन्द्र मीणा की किताब “राष्ट्र निर्माण में आदिवासी” में जिसका विमोचन नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) में हुआ.

कार्यक्रम में कई सांसद, प्रोफेसर और चिंतक शामिल हुए, जिन्होंने किताब के बहाने उस इतिहास की परतें खोलीं जिन्हें जानबूझकर छुपाया गया.

किताब के लेखक प्रो. मीणा ने बताया कि किस तरह से 1857 के विद्रोह से 80 वर्ष पहले से ही आदिवासी अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे, लेकिन इस इतिहास को कभी राष्ट्र निर्माण के विमर्श में शामिल नहीं किया गया.

उन्होंने कहा कि अब समय है कि आदिवासी राजनीति और सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें और इतिहास के उपेक्षित पन्नों को खुद लिखें.

ओडिशा के सांसद सप्तगिरि शंकर ओलक ने बताया कि आदिवासियों ने अब तक 136 बार संघर्ष किया है और वे केवल अंग्रेज़ों से नहीं बल्कि राजा-महाराजा और ज़मींदारों से भी लड़े. उन्होंने जयपाल मुंडा का ज़िक्र करते हुए कहा कि संविधान सभा में आदिवासी दृष्टिकोण को उन्होंने मज़बूती से रखा था.

उन्होंने यह भी कहा कि सरकारें आज जानबूझकर पांचवी और छठी अनुसूची के प्रावधानों को कमज़ोर कर रही हैं, ताकि पूंजीपतियों को आदिवासी ज़मीन दी जा सके.

प्रोफेसर सोनाझरिया मिंज ने कहा कि आदिवासी लोकतंत्र सहमति पर चलता है, बहुमत पर नहीं और यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है. उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज को गैर-आदिवासी बनाने की कोशिश की जा रही है — बच्चों को उनके परिवेश से दूर हॉस्टलों में भेजकर उन्हें उनकी जड़ों से काटा जा रहा है.

विख्यात लेखक प्रो. लक्ष्मण यादव ने कहा कि यह किताब इस समय में प्रकाशित होना एक साहसिक कदम है. उन्होंने कहा कि आदिवासियों के साथ सबसे बड़ा धोखा कलम ने किया — अब वे खुद कलम उठा रहे हैं.

राज्यसभा सांसद प्रो. मनोज कुमार झा ने कहा कि यह किताब मात्र एक किताब नहीं, बल्कि “रोशनी का सुराग” है.

उन्होंने कहा कि राष्ट्र अभी बना नहीं है — यह एक सतत प्रक्रिया में है और उसमें आदिवासी समुदाय की साझेदारी सुनिश्चित करनी होगी.

प्रोफेसर पूर्वानंद ने कहा कि इतिहास में स्मृतियों की होड़ चल रही है — एक स्मृति को खड़ा कर दूसरी को ढहाया जा रहा है. उन्होंने चेताया कि हमें अपने इतिहास में पूर्वजों को ढूंढने के साथ-साथ यह भी सोचना होगा कि उनके बीच संवाद कैसे होगा.

भीलवाड़ा के सांसद राजकुमार राउत ने बताया कि आदिवासियों की आबादी 14 करोड़ है और वे सभी धर्मों में हैं. उन्होंने कहा कि इतिहासकार आदिवासी महापुरुषों तक कभी पहुंचे ही नहीं. मानगढ़ हत्याकांड जैसे घटनाओं को भी दबा दिया गया, जबकि वह जलियांवाला बाग से 6 साल पहले हुई थी.

कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पाठक और श्रोताओं की उपस्थिति रही. अंत में सभी ने एक स्वर में यह बात दोहराई कि आदिवासी समुदाय को अब खुद अपनी आवाज़ बनना होगा क्योंकि राष्ट्र निर्माण की कोई भी कहानी तब तक अधूरी है जब तक उसमें आदिवासी शामिल नहीं.

कार्यक्रम का सूत्रपात अनबाउंड स्क्रिप्ट के संपादक आशीष मिश्रा ने किया, जिन्होंने किताब के प्रकाशन और महत्व पर विस्तार से बात की और संचालन जेएनयू की स्कॉलर खुशबू ने किया.


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