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Wednesday, 24 April, 2024
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दक्षिण हरियाणा: अब बेटियों के जन्म पर बजती है थाली, होता है कुआं पूजन

बदला हरियाणा का रूप रंग बेटी कनक के दादा कहते हैं कि वो उसे पहलवान बनाना चाहते हैं तो मां की इच्छा बेटी को सीआईडी ऑफिसर बनाने की है.

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महेंद्रगढ़/नारनौल: दक्षिण हरियाणा अक्सर अपने पिछड़ेपन और पानी की किल्लत की वजहों से खबरों में रहा है. बेहद कम बार ऐसा रहा है जब राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण हरियाणा किसी खास खबर के लिए छाया हो. हां, साल 2018 में रेवाड़ी में हुए एक जघन्य सामुहिक बलात्कार ने जरूर इस इलाके का नाम सुर्खियों में ला दिया था. लेकिन आजकल यहां एक नई बयार बह रही है. यहां के स्थानीय अखबार अब हर दूसरे दिन अलग तरह की खबरों से पटे रहते हैं. ये खबरें हरियाणा के कुख्यात लिंग अनुपात के आंकड़ों के बीच राहत देने वाली हैं. जैसे- बेटी के पैदा होने पर फलाने गांव में फलाना परिवार ने किया कुआं पूजन. पंचायत ने किया सम्मानित, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया इसे बढ़िया कदम या फिर जच्चा-बच्चा स्वस्थ.

‘पहल्यां(पहले) तो छोरा होया करता तो थाली बजायी जाया करती. फेर छह दिन बाद छठी मनाई जाती और फेर जच्चा के गीत गाए जाते. कोई 11 दिन तो कोई 21 दिन और कोई 31 दिन पर कुआं धोकता (पूजा करता).’

दक्षिण हरियाणा के एक गांव उन्हाणी में टीन के बरामदे में बैठी 70 वर्षीय सरती देवी पुराने समय को याद कर रही हैं जब लड़का पैदा होने पर खुशी और देवी-देवाताओं को धन्यवाद कहने के तौर पर कुआं पूजन मनाया जाता था. थोड़ी ही देर में आस-पास की लुगाइयां इकट्टी हो जाती हैं और जच्चा के गीत गाकर सुनाने लगती हैं. बीच-बीच में हुक्के की गुड़गुड़ी भर लेतीं.

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कुआं पूजन| तस्वीर- ज्योति यादव

दिप्रिंट ने हरियाणा की अहीरवाल बेल्ट (रेवाड़ी-नारनौल-महेंद्रगढ़) के गांवों में जाकर लड़कियों के जन्म पर चली इस प्रथा(कुआं पूजन) के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश की. पिछले दस-बारह साल पहले चले इस ट्रेंड में महेंद्रगढ़ जिले के लगभग सभी गांव शामिल हो चुके हैं. धीरे-धीरे ये गुरुग्राम जैसे शहर भी पहुंच गया है. महिला मुद्दों और इस प्रथा का जोर-शोर से प्रचार करने वाली महेंद्रगढ़ की सामाजिक कार्यकर्ता मंजू कौशिक दिप्रिंट से अपना अनुभव साझा करती हैं, ‘अगर कोई गांव बचा भी होगा तो वो भी आने वाले समय में बच्चियों के जन्मदिन का उत्सव मनाएगा. लेकिन हम तो महेंद्रगढ़ के लगभग सभी गांव कवर कर चुके हैं. मेरे पास हर रोज़ दो-चार मैसेज ज़रूर आते हैं कि हम अपनी बच्ची का कुआं पूजन कर रहे हैं, आप ज़रूर पधारें.’

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सामाजिक कार्यकर्ता मंजू कौशिक| तस्वीर- ज्योति यादव

वो वो आगे जोड़ती हैं, ‘साल 2006 में मैंने नांगल सिरोही गांव से इस ट्रेंड की शुरुआत की थी. मैंने बच्ची पैदा होने पर जच्चा के साथ होने वाले भेदभाव को देखा हुआ है. मैंने जब कहा कि हम छोरियों का कुआं पूजन क्यों नहीं कर सकते? तो पास खड़े कुछ लड़के हंस दिए थे. आज जिस तरह से इस क्षेत्र से लड़कियां आगे निकल रही हैं और लोगों नज़रिया बदला है वो अद्भुत है.’

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महेंद्रगढ़ में मंजू के निवास पर ही हुए दिप्रिंट के साथ साक्षात्कार में वो कहती हैं, ‘कुआं पूजन एक प्रतीतकात्मक लड़ाई है. हम नहीं कहते कि इससे रातों-रात बच्चियों की स्थिति बदल जाएगी लेकिन इससे लोगों का रवैया ज़रूर बदलेगा. मोदी जी ने 2015 में बेटी बचाओं की शुरुआत की थी लेकिन ये जिला उससे पहले ही इसकी शरुआत कर चुका था. हां मोदी जी के इस अभियान के बाद ये व्यापक स्तर पर फैला है.’ लगभग पिछले एक दशक से मंजू को हर दूसरे दिन बेटियों के कुआं पूजन के कार्ड आते हैं और इन प्रोग्राम्स शामिल होने के लिए हरियाणा के कोने-कोने में सफर भी करती हैं.

कनीना के सरिता फोटो स्टूडियो के रमेश अपने स्टूडियो में बेटियों के कुआं पूजन के एल्बम दिखाते हुए कहते हैं, ‘अब तो भेद मिट गया है. शुरू शुरू में लोग फोटोग्राफर्स को नहीं बुलाते थे. लोग चोचलेबाजी का ताना मारते थे. लेकिन अब तो लड़की पैदा होने पर वो हर चोचलेबाजी की जाती है जो कभी लड़कों के नसीब हुआ करती थी.’

दादा कहवै, पोती बनेगी पहलवान

दक्षिण हरियाणा के ग्राम पंचायत खेड़ी के लोग बताते हैं, ‘शुरुआत मे पंचायतों ने इनाम देना शुरू किया ताकि बाकी लोग प्रोत्साहित होकर ही बच्चियों का जन्मोत्सव मनाएं. देखा देखी में ही सही लेकिन शुरुआत तो हुई. पंचायत अपने अपने हिसाब से इनाम बांटती है. जैसे इक्कीसों या फिर इक्यावसौ. कई पंचायतें इनाम की राशि इक्कीस हजार तक भी रखती हैं.’

रेवाड़ी जिले के मनेठी गांव के रामनिवास यादव के घर दो साल पहले पोती हुई. पूरे परिवार ने धूमधाम से बच्ची के लिए छठी और कुआं पूजन की रस्में की गईं. अपनी पोती को गोदी में उठाते हुए वो दिप्रिंट को बताते हैं, ‘ये हमें बेहद प्यारी है. हमने कोई ईनाम तो नहीं लिया लेकिन हमारे बाद गांव में दो-तीन परिवारों ने अपनी बेटियों के जन्म पर कुआं पूजन किया.’

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अपने मम्मी-पापा के साथ कनक| तस्वीर- ज्योति यादव

दो वर्षीय कनक के दादा कहते हैं कि वो उसे पहलवान बनाना चाहते हैं तो कनक की मां कहती हैं कि वो उसे सीआईडी ऑफिसर बनाना चाहती हैं.

महेंद्रगढ़ जिले के चेलावास गांव में दो तीन पहले ही अपनी पोती का कुआं पूजन करके हटे सुभाष और उनकी पत्नी कमलेश बेहद खुश हैं. उनके घर अभी भी पूजन की मिठाइयों की सुगंध भरी है. कुछ मिठाइयां वो हमें भी खिलाते हैं कि लक्ष्मी रोज रोज पैदा नहीं होती. वो दिप्रिंट को बताते हैं, ‘हमारे दो बेटे ही थे. कोई बेटी नहीं. इसलिए हम चाहते थे कि पहलपोत (सबसे पहला बच्चा) पोती ही हो. हमने गांव की महिलाओं को बुलाकर भोज कराया है. बच्ची के लिए छठी भी मनाई है.’

जब लड़का होने पर मिलते अजवायन के लड्डू और लड़की होने पर भेदभाव

चेलावास गांव की बुजुर्ग महिलाएं बच्चियों के लिए हो रही इस कुआं पूजन की प्रथा पर अलग-अलग विचार रखती हैं. रेवती देवी कहती हैं, ‘पहले लड़कियां खूब पैदा होती थीं. इसलिए उनके नाम भी धापली (धापना मतलब पेट भर जाना) और भतेरी (बस बहुत) जैसे रखे जाते थे. लोग मानते थे कि भगवान उनकी बात सुनेगा और बेटियां नहीं देगा.’ आज भी हर गांव में धापली और भतेरी नाम की कई महिलाएं हैं, जो कभी अपने परिवारों द्वारा चाही नहीं गई.

वो आगे जोड़ती हैं, ‘छोरी होने पर ना तो थाली बजाई जाती थी और ना ही छठी की जाती थी और ना ही कुआं पूजन किया जाता था. छोरा होने पर घी में तर किए हुए अजवायन के लड्डू जच्चा को खिलाए जाते थे. छोरी पैदा करने पर जच्चा की सास ही दुर्व्यवहार शुरू कर देती थी.’

इतने में ही ग्यारह बच्चे पैदा कर चुकी कौशल्या अपने जच्चा के दिन याद करते हुए बताने लगती हैं, ‘छोरा होता था तो सासू मां अजवायन के लड्डू खिलाती, घी भी खाने को मिलता था लेकिन छोरी के टाइम पर इतनी खातिर पानी(ख्याल रखना) नहीं होती थी.’ कुछ महिलाएं बताती हैं, ‘पुराने समय में सारा घरबार सास के हाथ में होता था. लड़की होने पर ना खाने को दिया जाता था और ना ही देखभाल ठीक ढंग से. लेकिन अब नई बहुओं को छूट दी गई है. खानपान का भेद तो रहा नहीं. हमारा टेम (समय) और था. अब कोई बेटा-बेटी में फर्क ना करता.’

जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता जगमति सांगवान इस बारे में विस्तार से बताती हैं कि कैसे बेटी होने पर सास अपनी बहू के खाने से पौष्टिक चीजों को कम करना शुरू कर देती थी. वो आगे बताती हैं, ‘रोजाना के तानों के साथ-साथ खाना में शुरू हुआ दुर्व्यवहार बेटा पैदा होने पर ही खत्म होता था.’

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चेलावास गांव के सुभाष अपनी डेढ़ माह की पोती के साथ| तस्वीर- ज्योति यादव

क्या है कुआं पूजन?

लड़का पैदा होने पर अपने कुल देवताओं को पूजने की प्रथा को ही कुआं पूजन कहते हैं. इसके साथ ही पूरे गांव व रिश्तेदारों के लिए भोज रखा जाता है. कुआं को पूजने से पहले भैंसों को बांधने वाले खूंटे (पशु धन) की पूजा की जाती थी. उससे पहले रुड़ी (कूड़ा-कर्कट वाले ढेर) को भी पूजा जाता था. बाजे के साथ जच्चा को कुएं पर ले जाया जाता है. घरों में गीत गाए जाते हैं. कुआं पूजन की पहली रात को बाजरा भिगोकर रखा जाता है जो अगले दिन घर-घर में बंटवाया जाता है. कृषि प्रधान इलाकों की ज्यादातर प्रथाएं कृषि से ही जुड़ी हुई हैं. लेकिन जैसे-जैसे कुएं खत्म होते जा रहे हैं वैसे-वैसे लोगों ने हैडपंप पूजने शुरू कर दिए हैं. कुएं की बजाय और विकल्प खोजे जाने लगे हैं. गौरतलब है कि गिरते भूजल स्तर के मामले में राजस्थान से सटे महेंद्रगढ़ जिले का हाल बेहाल है. क्रिटिकल जिलों की लिस्ट में इस जिले का नाम भी शामिल है.

बेटियां नहीं तो फिर बहू कहां से आएंगी?

2011 में महेंद्रगढ़ जिले का लिंग अनुपात 1000 लड़कों में 775 लड़कियों का था. जो देश में सबसे खराब लिंगानुपात था. हरियाणा के सभी जिलों का लिंगानुपात राष्ट्रीय लिंगानुपात के एवरेज से भी कम था. जहां राष्ट्रीय लिंगानुपात 943 था वहीं हरियाणा में लिंगानुपात 867 था. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दक्षिण हरियाणा के रेवाड़ी, महेंद्रगढ़ और झज्जर जिले देशभर में शर्म का विषय बने. तीनों जिलों का लिंग अनुपात देश में सबसे खराब था. रेवाड़ी में 780 और झज्जर में 781 था .

लेकिन 2018 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जन्म के समय रेवाड़ी में ये अनुपात 904 तो झज्जर में 911 और महेंद्रगढ़ में 936 हो गया है.

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कुआं पूजन पर इकट्ठा हुए ग्रामीण|तस्वीर- विजेंद्र सिंह

ये आंकडें भले ही तसल्ली देने वाले हों लेकिन नांगल सिरोही की पंचायत के लोगों का मानना है, ‘बिगड़े लिंगानुपात की वजह से हमें दूसरे राज्यों से बहुएं खरीद कर लानी पड़ी. हम देशभर में बदनाम हुए. मीडिया ने हमें विलेन की तरह पेश करना शुरू कर दिया. रामकुमार यादव कहते हैं, मुख्य कारण तो यही है कि हमारे बेटों के लिए शादी करने के लिए लड़कियां ही नहीं बची थीं. लेकिन मोदी जी की बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं ने भी काफी काम किया है. कम से कम लोग इस लालच में बेटियां पैदा कर रहे हैं कि हो सकता है सरकार आगे कोई स्कीम निकाले. ‘

लेकिन दयाल सिंह इससे अलग बात कहते हैं, ‘बेटी तो पहले भी प्यारी थी लेकिन पहले एक तो इतने पैसे नहीं थे और ऊपर से लोग दस-दस बालक पैदा करते थे. अब दो बच्चे होते हैं. उसमें क्या मातम मनाना है. आज बेटियां बेटों से भी ज्यादा प्रतिभावन हैं. हर जगह नाम कमा रही हैं.’

महेंद्रगढ़ की सामाजिक संस्थाएं मंजू कौशिक द्वारा सामनाथ आर्ट और लक्की सीगड़ा द्वारा संचालित बीएमडी क्लब बच्चियों के कुआं पूजन पर जाकर सम्मानित करती हैं. स्थानीय पत्रकार प्रदीप बताते हैं, ‘हमारे पास हफ्ते में दो ऐसी खबरें आती हैं. छापते हुए खुशी होती है. पूर्व डीएम गरिमा मित्तल ने लड़कियों को लेकर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनवाई थी. कभी हमारे लिए शर्म की बात हुआ करती थी कि देश के बिगड़े लिंगानुपात वाले जिलों में हम टॉप पर थे अब माहौल बदल रहा है.’

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