भारत विश्व में अपनी भाषाई विविधता के लिए जाना जाता है. शायद ही कोई और देश होगा जहां सैकड़ों भाषाएं आज भी प्रचलन में हैं. इन सभी भाषाओं का अपना एक गौरवशाली इतिहास और समृद्ध साहित्य है. लेकिन अकसर एक भारतीय भाषा के साहित्य प्रेमी दूसरी भाषा की प्रमुख कृतियों से भी अनभिज्ञ होते हैं. हाल के दशकों में हमारी भाषाओं के बीच संवाद की कमी के चलते हम अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को जानने के लिए अंग्रेजी के अनुवादों पर निर्भर होने लगे हैं. लेकिन आज भी हमारी सांस्कृतिक और भाषाई विवधता के बीच में रामायण और महाभारत जैसी प्राचीन कहानियां सेतु के रूप में उपलब्ध हैं.
आधुनिक भारतीय भाषाओं में इन कहानियों को कहने-सुनने की परंपरा काफ़ी पुरानी है. कुछ भाषाओं में रामायण और महाभारत की कथा को कहने वाले ‘आदि कवि’ के रूप में जाने जाते हैं. सत्रहवीं शताब्दी तक महाभारत का तमिल, तेलुगु, कन्नड़, ओड़िआ, मलयालम, मराठी, हिन्दी, बांग्ला और असमिया में पुनःकथन हो चुका था. लेकिन ये पुनःकथन अनुवाद मात्र नहीं थे. मध्यकालीन कवियों ने महाभारत की प्राचीन कथा को अपने समकालीन परिवेश में ढाल कर लोकभाषा के माध्यम से जनमानस तक पहुंचाया था.
ओड़िआ भाषा में महाभारत के तीन प्रमुख पुनःकथन हुए हैं. पंद्रहवीं शताब्दी में सारलादास द्वारा, उसके बाद सोलहवीं शताब्दी में जगन्नाथदास और अठारहवीं शताब्दी में कृष्ण सिंह द्वारा. इनमें सबसे ज़्यादा लोकप्रिय और रचनात्मक कृति सारलादास की मानी जाती है जो सारला महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुई. यह किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में एक कवि द्वारा सम्पूर्ण महाभारत का प्रथम पुनःकथन है और शायद यह एक मात्र क्षेत्रीय महाभारत है जो व्यास महाभारत से भी लम्बी है.
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‘आदि कवि’
कवि सारला के जीवन के बारे में हम ज़्यादा कुछ नहीं जानते हैं सिवाय इसके कि उनका जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी में कटक जिले के जंखड़ गांव में हुआ था और उनका मूल नाम सिद्धेश्वर परिडा था. यह वह समय था जब दक्षिण के राजाओं के लम्बे शासन के बाद ओड़िशा में कपिलेन्द्र देव ने गजपति राजवंश की स्थापना की और इस दौरान अभिजात्य वर्ग के बीच में ओड़िआ भाषा की स्वीकार्यता बढ़ी. सारला का कहना था कि जंखड़पुरवासिनी सिद्ध सारला देवी के आदेश पर ही उन्होंने महाभारत की रचना की है जिस वजह से वे सारलादास के नाम से लोकप्रिय हुए. अपनी रचनाओं में सारला अपना परिचय शूद्रमुनि के नाम से देते हैं और अपनी महाभारत को विष्णु पुराण कह कर संबोधित करते हैं. शूद्र वर्ग से वे पहले कवि थे जिन्होंने सम्पूर्ण महाभारत का पुनःकथन किया. महाभारत के अलावा सारला ने बिलंक रामायण और चंडी पुराण की रचना की थी.
सारलादास ओड़िआ भाषा के ‘आदि कवि’ के रूप में प्रसिद्ध हैं. ऐसा नहीं है कि उनसे पहले ओड़िआ भाषा का कोई साहित्य नहीं था. किन्तु सारला ने ही पहली बार यह दिखाया कि ओड़िआ भाषा में संस्कृत की तरह ही बड़े पैमाने पर कहानी कही जा सकती है, जिसमें उपनिषदों की गहराई और धर्मशास्त्रों की गंभीरता होने के साथ-साथ लोककथाओं की चपलता और मिठास भी हो.
सारला महाभारत में व्यास महाभारत की तरह अठारह पर्व हैं किन्तु सौप्तिक, अनुशासन और महाप्रस्थानिक पर्व सारला महाभारत में नहीं हैं. इसी तरह सारला महाभारत में कुछ ऐसे पर्व हैं जो व्यास में नहीं हैं जैसे मध्य, गदा और काइंशिका (ऐषिक). हालांकि व्यास के शल्य पर्व में गदा और सौप्तिक पर्व में ऐषिक नाम के उपपर्व हैं. कुछ पर्व सारला महाभारत में व्यास की तुलना में छोटे हैं जैसे शांति पर्व और कुछ बड़े हैं जैसे मौसल पर्व जिसे सारला मूषली कहते हैं. इसके अलावा सारला महाभारत में कुछ पर्वों का क्रम व्यास से अलग है जैसे आश्रमिक पर्व अश्वमेध के पहले आता है.
लोककथाओं से कृष्ण लीला तक
कवि सारला ने महाभारत की प्राचीन कथा को न केवल ओड़िआ आवरण में प्रस्तुत किया बल्कि उसकी पुनर्कल्पना भी की. उन्होंने मध्यकालीन ओड़िशा के तीर्थों, खान-पान और लोककथाओं को महाभारत की प्राचीन कथा का अभिन्न अंग बना दिया. कुछ पात्र उन्होंने नये नाम से प्रस्तुत किये जैसे राजकुमार युयुत्सु को दुर्दस नाम दिया और कुछ नये पात्रों की रचना की जैसे युधिष्ठिर की ओड़िआ पत्नी सुहानी. लेकिन व्यास के कई पात्र जैसे विकर्ण सारला में नहीं मिलते हैं. साथ में उन्होंने कुछ ऐसे स्थानों का भी ज़िक्र किया जो व्यास महाभारत में नहीं मिलते हैं जैसे बाबरपुरी. इसके अलावा सारला ने व्यास महाभारत के कुछ पात्रों के सम्बन्धों को नये रूप में प्रस्तुत किया जैसे शकुनि दुर्योधन का विश्वासपात्र बनने से पहले हस्तिनापुर के कारागार में बन्दी था और पाण्डव बचपन से जानते थे कि कर्ण उनका अग्रज है. एक और दिलचस्प बात यह है कि सारला के अनुसार पाण्डवों को पाण्डव नाम महाराज पाण्डु से नहीं बल्कि पाण्डवासुर को मारने की वजह से मिला था.
इसके अलावा सारला के अनेक प्रसंग जैसे गांधारी का गोलक वृक्ष से विवाह, शकुनि के चमत्कारी पासों का रहस्य, सत्य से बना आम और दुर्योधन का रक्त की नदी को पार करना व्यास में नहीं मिलते हैं. इसी तरह व्यास महाभारत के कई प्रसंग जैसे कृष्ण द्वारा अश्वत्थामा को दण्डित करना और युधिष्ठिर-यक्ष संवाद सारला महाभारत में नहीं मिलते हैं.
कुछ प्रसंगों की परिकल्पना सारला ने बिलकुल अलग तरह से की है जैसे द्रौपदी के चीरहरण में शकुनि और सूर्यदेव की भूमिका. इन सबके अलावा दोनों ग्रंथों के बीच कुछ मूलभूत अन्तर भी हैं. सारला की कथा में अर्जुन की युद्ध के प्रति अनिच्छा तो देखने को मिलती है पर भगवद्गीता का उल्लेख नहीं है. यहां शकुनि को कृष्ण के परम भक्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो कृष्ण के साथ मिल कर कौरवों के नाश का षड्यंत्र रचता है. साथ ही हस्तिनापुर राज्य का बंटवारा नहीं होता है और दुर्योधन की मृत्यु हस्तिनापुर के युवराज की बजाय हस्तिनापुर-नरेश के रूप में होती है. सारला महाभारत में भगवान कृष्ण की परिकल्पना नारायण के पूर्ण अवतार के रूप में हुई है और मूषली पर्व में कृष्ण और भगवान जगन्नाथ के बीच सम्बन्ध प्रस्तुत किया गया है. वस्तुतः सारला महाभारत की कथा कृष्णमय है.
(अंकिता पाण्डेय स्वतंत्र शोधकर्ता एवं अनुवादक तथा ‘आसक्ति से विरक्ति तक: ओड़िआ महाभारत की चुनिंदा कहानियां’ (आगामी) की लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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