1980 के दशक में, अल्बर्ट पिंटो नाम का एक कार मैकेनिक हुआ करता था. वह दुष्ट उद्योगपतियों पर हर वक्त गुस्सा रहा करता था. ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ नाम की फिल्म बनाने वाले सईद मिर्जा ने भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी को समझाया कि गुस्सा भी एक ‘गुण’ है. आज के दिन में मिर्जा बड़े ताज्जुब से सोच रहे हैं कि भारतीयों को पर्याप्त रूप से गुस्सा आता क्यों नहीं!
हालांकि, उनकी सबसे नई किताब, आई नो द साइकॉलजी ऑफ रैट्स, इस ‘गुस्से’ के बारे में नहीं है.
यह दोस्ती के बारे में है. यह उनके प्रिय मित्र व फिल्म निर्माता कुंदन शाह के लिए एक काफी गहराई के साथ महसूस किया गया ओड (औपचारिक कविता या कृति जो किसी व्यक्ति, स्थान, या विचार को संबोधित करती है और अक्सर उसका जश्न मनाती है) है, जिन्होंने हमें साल 1983 में एक सदाबहार सिनेमाई जवाहरात के रूप में ‘जाने भी दो यारों’ जैसी फिल्म दी थी. मिर्जा अपनी किताब में लिखते हैं कि एक विचित्र, मनमौजी किस्म के फिल्म निर्माता रहे शाह ने उस समयकाल के बारे में बताने के लिए ‘हास्य को बेतुके और भद्दे’ तरीके से पेश किया है. वह एक ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने यह सोचना से शुरू किया था कि सभी मार्क्सवादी बेवकूफ होते हैं और फिर वे कार्ल मार्क्स की तुलना में भी अधिक मार्क्सवादी बन गए.
उन्होंने जबर्दस्त रूप से सफल रहे टीवी सीरियल नुक्कड़ (1986) और शाहरुख खान द्वारा अभिनीत फिल्म ‘कभी हां कभी न (1994)’ भी बनाई थी.
कुंदन शाह का अक्टूबर 2017 में निधन हो गया था.
मिर्जा इस किताब से पढ़ते हुए कहते हैं, ‘मैं यह किताब क्यों लिख रहा हूं? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि मुझे लगता है कि यह जरूरी है और मेरे पास वक्त अब ख़त्म हो रहा है? शायद यही सच है. एक दोस्त के साथ बातचीत, उसका सौहार्द्र, बौद्धिक बहस, द्वंद्व और उथल-पुथल को याद रखना कठिन होता जा रहा है …मुझे (ठीक से) नहीं पता, लेकिन मुझे इस सब का बोझ अपनी छाती से उतारना ही होगा. मुझे अपने इस अद्भुत, पागल, अतिसंवेदनशील दोस्त को दुनिया के सामने पेश करना है क्योंकि वह इसका हकदार है.’
दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का हॉल खचाखच भरा हुआ था और कुछ फर्श पर भी बैठे थे. सुधीर मिश्रा, एम.के. रैना, सईद नकवी, स्वरा भास्कर, दानिश हुसैन और वरिष्ठ संपादकों ने हर एक शब्द को सुना और ऐसा ही कुछ मनोज कुमार झा, देव बेनेगल, रोमिला थापर, सोहेल हाशमी और प्रभात पटनायक ने भी किया. आयोजकों को देर से आने वालों को समायोजित करने के लिए बगीचे के सामने वाले दरवाजे को खुला भी रखना पड़ा, जिनमें से कुछ तो मिर्जा को सुनने के लिए ठंड में खड़े रहे थे. यह ज्यादातर प्रशंसकों और समान विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों वाला दर्शक वर्ग था. सिवाय एक को छोड़कर. एक भड़का हुआ नौजवान ऐसा भी था जिसने मिर्जा को ‘नकली कम्युनिस्ट’ बताया और कहा कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में शामिल होकर उन्होंने अपनी राजनीति को कलुषित कर दिया है. ऐसा सुनकर सबके मुंह खुले के खुले रह गए.
मिर्जा ने उस आदमी को इस बारे में आश्वस्त किया कि उसे नाराज होने का अधिकार है, और फिर कहा, ‘मैं कांग्रेसी नहीं हूं. मैं किसी भी पार्टी से नहीं जुड़ सकता क्योंकि में उनके किसी काम का नहीं हूं. लेकिन मुझे इस ‘यात्रा’ के पीछे का विचार पसंद आया.’
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एक घुमावदार संस्मरण
उस शाम की शुरुआत ‘जाने भी दो यारों के’ एक सीन से हुई, जिसमें नसीरुद्दीन शाह और सतीश कौशिक ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ वाले पासवर्ड पर सहमत हुए.
यह मिर्जा की फिल्म के लिए शाह द्वारा दी गई एक हैट टिप (स्वीकारोक्ति) थी. दोनों फिल्मों के बीच सिर्फ तीन साल का अंतर था. उस दौर में भारत का गुस्सा ‘निराशा’ और ‘बेहूदगी’ के स्तर पर उतर आया था.
यह किताब एक यादगार है. यह एक सीधी रेखा में चलने वाली नहीं है. और किसी आम यादगार की तरह ही यह फिल्म स्कूल के अनुभवों – आपातकाल के दौरान कैंपस में बैटल ऑफ़ अल्जीयर्स (1966) देखना, फिल्म निर्माण, लोकतंत्र, दंगे, बजट, स्क्रिप्ट, दर्शकों को लुभाने के बारे में बातचीत, और उस प्लास्टिक ग्लोब जिसे चार्ली चैपलिन ने द ग्रेट डिक्टेटर (1940) में लात मारी थी आदि – के बीच से भटकते हुए गुजरती है. और डोनाल्ड ट्रंप तथा नरेंद्र मोदी के बारे में अधूरी बातचीत अभी भी लेखक को सालती है. मिर्जा इस पुस्तक को ‘साहित्यिक स्थापना’ (लिटरेरी इंस्टालेशन) कहते हैं. इसे नचिकेत पटवर्धन द्वारा काफी अच्छे तरीके से चित्रित किया गया है, और इसमें ‘चूहा’ एक प्रकार का सूत्रधार है.
इस कार्यक्रम की संचालिका गीता हरिहरन ने कहा, ‘यह किताब स्वतंत्रता क्या है, स्वतंत्रता किसकी है, कलाकार और नागरिक के बीच क्या संबंध है, इस सब बारे में बात करती है. सईद मिर्जा और कुंदन शाह के बीच की दोस्ती इन सभी में मुख्य चीज है. और यह दोस्ती सभी राजनीतिक चीजों का साइनपोस्ट है.’
ये दोनों महान विलक्षण प्रतिभाएं तुरंत एक दूसरे को भा नहीं गईं थीं, पहले तो इनके बीच में झुंझलाहट भी हुई.
कुंदन शाह फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में एक ‘पढ़ाकू शख्स’ जैसे थे. वह लगातार नोट्स लेते रहते – क्लासरूम में और यहां तक कि अंधेरे सिनेमा हॉल के अंदर भी, मिर्जा को यह बात नागवार गुजरती थी.
शाह ने बाद में उन्हें समझाया था, ‘मैं एंट्रीज और एक्जिस्ट को नोट कर रहा था. कैमरा एंगल्स और कंटीन्यूटी जर्क को भी.’
‘क्या’……..मिर्जा ने कहा था
उन्होंने (शाह ने) एक बार ऋत्विक घटक से यह भी पूछ लिया था कि कोई अच्छा निर्देशक कैसे बनता है.
घटक का उत्तर सरल लेकिन शानदार था. ‘एक अच्छा निर्देशक अपनी एक जेब में अपना बचपन रखता है, और दूसरी में शराब की बोतल.’
शाह अन्याय सहन नहीं कर सकते थे.
सईद मिर्जा की आखिरी फिल्म नसीम (1995) थी, जो साल 1992 में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंस की पृष्ठभूमि में बनाई गई थी. उन्होंने कहा, ‘कविता खत्म हो गई है, कभी वापस नहीं आने वाली है.’
शाह तब तक अराजनीतिक शख्स से ऊपर उठ कर हर जगह राजनीति देखने लगे थे. यहां तक कि उन्होंने साल 2002 के गुजरात दंगों के लिए मिर्जा से माफी भी मांगी थी. मिर्जा ने पूछा भी था कि उन्हें इससे क्या लेना-देना?.
जवाब आया, ‘मैं एक गुजराती और एक हिंदू हूं, हूं कि नहीं? किसी को तो जिम्मेदारी लेनी होगी.
दो दशक बाद मिर्जा को यह कतई समझ नहीं आता कि भारतीय अब अन्याय के खिलाफ क्यों नहीं बोल रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘डर किस बात का है? मैं समझ नहीं पाता. चारों तरफ साजिश वाली खामोशी है. आखिर इसकी क्या वजह है? जब तक आपके अपने छुपे हुए राज न हों, आपको बोलना ही चाहिए.
इस बात पर एक अखबार के पूर्व संपादक भारत भूषण ने सवाल किया: ‘क्या राजनीति केवल शुद्ध, परिपूर्ण और नैतिक (लोगों) के लिए है?’
फिर मिर्जा ने अपने रुख में बदलाव करते हए कहा कि जिनके अपने छुपे हुए राज हैं वे भी बोलें और कहें, ‘इन राजों के बावजूद मैं बोल रहा हूं.’
एक वर्ग-अंतराल को धता बताने वाली दोस्ती
सईद मिर्जा और कुंदन शाह दोनों समाज के दो ‘ध्रुवों’ से आने वाले थे.
मिर्ज़ा एक शहरी पृष्ठभूमि, संभ्रांत स्कूल और कॉलेज से आते थे, जबकि शाह यमन के एक व्यापारी के बेटे थे और ‘बिल्कुल अलग बैकग्राउंड’ से आए थे. उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखने, अगले सेमेस्टर की फीस अदा करने के लिए छात्रवृत्ति की जरूरत होती थी जिसके लिए उन्हें कॉलेज के दूसरों छात्रों की तुलना में ज्यादा कठिन अध्ययन करना पड़ता था. दोनों आपस में कला, चित्रकला, सिनेमा, क्रांति, मार्क्स, साहित्य और वास्तुकला पर बहस करते थे. और मिर्जा ने याद करते हुए कहा कि शाह को हमेशा ऐसा लगता था कि वह एक बाहरी व्यक्ति हैं, उन्हें इस मामले में बराबरी पर आना अभी बाकी है. शाह ने उन्हें एहसास कराया कि एफटीआईआई में दिखाई देने वाले अधिकांश बातूनी वामपंथी दरअसल अंग्रेजी बोलने वाले, विशेषाधिकार प्राप्त आभिजात्य वर्ग के लोग थे जो उन विचारों पर चर्चा करते थे जो उनके द्वारा जिए गए अनुभवों में शामिल ही नहीं थे.
मिर्जा और उनके साथियों पर हर चीज में राजनीति देखने का आरोप लगाते हुए शाह कहते थे, ‘हमें दूषित मत करो, हम आजाद हैं.’
और फिर शाह ने बैंक लुटेरों के बारे में अपनी 20 मिनट की डिप्लोमा प्रोजेक्ट वाली फिल्म बनाई. मिर्जा कहते हैं, ‘पूरा सभागार मंत्रमुग्ध था और तालियां और सीटियां बज रही थीं. यह नियंत्रित अराजकता की उत्कृष्ट कृति थी.’
एफटीआईआई से ग्रेजुएशन करने के बाद मिर्जा मुंबई चले गए. वहां उन्होंने सुना कि शाह इंग्लैंड में व्यापारी बन गए है. उन्होंने कहा था. ‘सब बर्बाद हो गया….’
लेकिन आखिरकार, कुंदन शाह सिनेमा की दुनिया में लौट ही आए.
मिर्जा ने हंसते हुए कहा, ‘वे एक व्यापारी नहीं बन सके उन्हें तो कविता का चस्का लग गया था.’
(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में फीचर और ओपीनियन एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RamaNewDelhi है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय । अनुवादः राम लाल खन्ना)
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