महाराष्ट्र के जिला परिषद स्कूलों में शिक्षक-शिक्षिकाओं के विशेष प्रयासों से ग्रामीण बच्चे कला और विज्ञान विषयों के अंतर्गत अपनी आसपास की दुनिया से बाहर कई नई जानकारियां हासिल कर रहे हैं. इससे उनमें एक अच्छे कलाकार और वैज्ञानिक बनने की महत्त्वाकांक्षा जागी है. यही वजह है कि यहां कई बच्चों के सपने नए आकार ले रहे हैं.
दत्तपुर में तैयार हो रहे कवि, कलाकार और शांतिदूत
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दूसरों पर विश्वास जताना और उनके बारे में चिंता करना जीवन का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है, जो संविधान में निहित बंधुत्व के मूल्य से संबंधित है. बीड़ जिला परिषद दत्तपुर मराठी प्राथमिक स्कूल के बच्चे इन दिनों अपने जीवन में इसी मूल्य को अच्छी तरह आत्मसात कर रहे हैं.
स्कूल में दाखिल होते ही हर कक्षा में बच्चों द्वारा हाथ से बनाई कई कलाकृतियां चारों तरफ नज़र आती हैं. खास तौर से बच्चों द्वारा बनाई गई सुंदर बांस की टोकरियों जैसी चीजें. इसी तरह, मेज़ और दीवार पर कागज़ की कलाकृतियां दिखाई पड़ती हैं.
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों ने साधारण चीजों को रचनात्मक तरीके से आकर्षक बनाने का प्रयास किया है. जैसे एक मध्यम आकार के पत्थर पर बनी नाली को सही आकार देकर इसका उपयोग पेन स्टैंड के तौर पर किया गया है. यह सुंदर पैन स्टैंड हेडमास्टर की मेज़ पर रखा गया है, जो यहां के बच्चों के भीतर के सौंदर्यबोध से हमारा परिचय कराता है.
इसी तरह, यहां के बच्चे हर साल आनंद नगरी में खाने-पीने की चीजों के अलावा सुंदर कलाकृतियों की भी दुकाने लगाते हैं. इस स्कूल परिसर की खास बात यह है कि सप्ताह के अंत में पूरा गांव यहां भोजन करता है. इस आयोजन की पूरी जिम्मेदारी यहां के कुल 36 बच्चों और 2 शिक्षकों पर होती है.
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यहां की निर्धारित जगह पर गांव के लोगों को भोजन के लिए बैठाया जाता है. बच्चे इस जगह को साफ सुथरा रखते हैं. बच्चों ने एक निर्धारित जगह पर हाथ धोने की व्यवस्था की है. सभी लोग इसी जगह पर हाथ धोएं, इसके लिए बच्चे ग्रामीणों से विनती करते हैं. यही वजह है कि पूरे परिसर में स्वच्छता कायम है. बच्चों के परिजन और अन्य ग्रामीण बच्चों की इस भावना का आदर करते हैं और स्वच्छता के मामले में उनका सहयोग करते हैं.
शिक्षक बताते हैं कि स्वच्छता और अपने आसपास के पर्यावरण को लेकर इतने संवेदनशील हुए हैं कि वे दीपावली पर पटाखे नहीं फोड़ते. बच्चे पटाखे जलाने की बजाय हर साल दीपावली के दिन गांव में पेड़ लगाते हैं. इसके अलावा, इस स्कूल में कुछ बच्चे शांतिदूत के रूप में काम करते हैं. बच्चे जब आपस में लड़ाई करते हैं तो ऐसी स्थिति में ये बच्चे शांतिदूत बनकर विवादित मामलों को सुलझाने का प्रयास करते हैं.
बच्चों की रचनात्मकता के प्रदर्शन का यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता. इस स्कूल के बच्चे अपनी लिखी कविताएं भी सुनाते हैं और किसी विषय पर आयोजित संगोष्ठियों में भाग लेते हैं. इसके साथ ही स्कूल के पूर्व छात्रों का सद्भावना समूह हैं. आवश्यक होने पर यह समूह स्कूल के कामों में मदद करता है और छोटे बच्चों के प्रयासों में भागीदार बनता है.
एक शिक्षक कहते हैं, ‘जून 2017 से इस स्कूल में ‘गृह-कार्य’ के नाम से एक कार्यक्रम चलाया जा रहा है. इसके तहत बच्चों को कुछ विशेष गृह-कार्य दिए जाते हैं. इसमें बच्चों के परिजनों को भी शामिल किया जाता है. इससे बच्चों के माता-पिता के साथ भी हमारा रिश्ता बन जाता है क्योंकि हम बच्चों से पूछते हैं कि होमवर्क पूरा किया या नहीं और इस दौरान आपकी अपने परिजनों से क्या बात हुई. यही वजह है कि परिजन कई बार फोन पर हमसे पूछते हैं कि क्या आप मूल्यों को सिखाने के लिए कोई गतिविधि करा रहे हैं. ऐसी ही एक लड़की के पिता का हमारे पास फोन आया. उन्होंने खुशी-खुशी बताया कि उनकी बच्ची शांति-दूत बनकर काम करना चाहती है.’
गजानन नगर के बच्चों के लिए ‘विज्ञान दिवस’ सबसे बड़ा त्यौहार
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यदि कोई शिक्षक प्रयोगधर्मी, रचनात्मक और विवेकपूर्ण तरीके से शिक्षण कार्य करता है तो वह स्कूल के हर लक्ष्य को साध सकता है. महाराष्ट्र में वर्धा जिले की गजानन नगर प्राथमिक शाला द्वारा हासिल उपलब्धि इस बात की तस्दीक करती है.
यहां कुल 62 बच्चों पर तीन शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं. यह स्कूल वर्धा शहर के बहुत करीब है इसलिए इस क्षेत्र के कई बच्चे शहर के निजी और अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में जाते हैं. यहां आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता दिहाड़ी मजदूर हैं. यहां के शिक्षक अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए जाने जाते हैं.
इसके अलावा, यह स्कूल खास तौर पर विज्ञान विषय को बहुत अधिक महत्त्व देने के लिए जाना जाता है. यही वजह है कि यहां हर वर्ष ‘विज्ञान दिवस’ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इस दौरान शिक्षक बच्चों को विज्ञान से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं.
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वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संबंधित गतिविधियों को हम यहां की शिक्षिका माधवी नागपुरे की बातचीत से भी समझ सकते हैं. वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आधार बनाते हुए बच्चों के दैनिक जीवन के विषय उठाती हैं. बच्चे सवाल बहुत पूछते हैं, इसलिए विषय के बारे में अच्छी तरह और विस्तार से जानकारी देने के लिए वे पूरी तैयारी करके आती हैं.
माधवी पहली से तीसरी की संयुक्त कक्षाएं लेती हैं. वे अपनी कक्षाओं के बच्चों को ‘आपके कपड़े’ जैसे विषय के माध्यम से बच्चों को कपड़ों के बारे में व्यवहारिक ज्ञान देती हैं. आप कपड़े क्यों पहनते हैं? अलग-अलग मौसम में अलग-अलग कपड़े क्यों पहनते हैं? जैसे सवालों के माध्यम से बच्चों की समझ को अच्छी तरह से तैयार करने में उनकी सहायता करती हैं. यह सीखना सिखाना चर्चा के माध्यम से होता है.
इस दौरान यह प्रयास रहता है कि बच्चों के बीच से ही हर सवाल का जवाब हासिल हो. लेकिन, जब बच्चों के पास जवाब नहीं होता तो शिक्षिका मार्गदर्शन करती हैं. माधवी अपने अनुभवों से बताती हैं कि कई बार वे बच्चों को समझाने के लिए चित्रों का सहारा भी लेती हैं. तब वे बच्चों से पूछती हैं कि जब स्कूल शुरू होता है तो आप किस तरह के कपड़े पहनते हैं और जब बारिश हो रही होती है तो आपका पहनावा किस तरह से बदलता है?
इसी तरह, वे पूछती हैं कि स्कूल, घर और बाहर पहने जाने वाले कपड़ों में कोई अंतर होता है? इसी तरह, क्या अलग-अलग क्षेत्रों के लोग अलग-अलग कपड़े पहनते हैं? हां तो ऐसा क्यों? यहां के शिक्षकों का मत है कि समूह चर्चा में पढ़ाने के बाद बच्चे जल्दी सबक सीखते हैं. परंपरागत तरीके से पढ़ाने की बजाए यदि समूह बनाकर आपस में चर्चा कराई जाए तो बहुत अच्छे परिणाम हासिल होते हैं.
चौथी की शिक्षिका माधुरी घोलप ‘मेरी जिम्मेदारी’ के माध्यम से बच्चों से एक गतिविधि कराती हैं. इसमें वे बताती हैं कि इस तरह से ब्रेल लिपि की शुरुआत हुई और किस तरह इसमें प्रतीकों का उपयोग किया जाता है. बच्चे तस्वीर में उंगलियों की डिजाइन से काफी कुछ जानते और समझते हैं. शिक्षक कोई शब्द बनाती हैं तो यहां के बच्चे उसे तुरंत पहचान लेते हैं. बगैर कुछ बोले बच्चे परस्पर एक-दूसरे से बातचीत करते हैं और एक-दूसरे के बारे में जानकारी हासिल करते हैं. बच्चे बताते हैं कि उन्हें यह सब बहुत अच्छा लगता है. वह, यहां दो तीन साल से वह सब सिखाया जाता है जो दूसरे कई स्कूलों में सीखने को नहीं मिलता.
(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं)