जिन नेताओं ने भारतीय समाज और राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, उनमें गांधी, आंबेडकर और लोहिया का नाम सबसे ऊपर आता है. राममनोहर लोहिया की चर्चा हालांकि इन तीनों में सबसे कम हुई है, लेकिन इससे उनका असर कम नहीं हो जाता. खासकर उत्तर भारत की राजनीति आज जैसी है और समाज की संरचना जिस तरह बदली है और पिछड़ी जातियों का जिस तरह राजकाज और शासन में हिस्सा बढ़ा है उसकी मूल परिकल्पना राममनोहर लोहिया की ही थी. इसलिए उन्हें भारत की मूक क्रांति यानी साइलेंट रिवॉल्यूशन का नायक कहा जाता है.
भारत में समाजवादी राजनीति की नींव डालने वाले प्रमुख नेताओं में से एक राम मनोहर लोहिया का जन्म उत्तर प्रदेश के अकबरपुर जिले में 1910 में हुआ था.
लोहिया के पिता गांधीवादी थे, जिसका असर लोहिया पर भी हुआ. लेकिन डॉ आंबेडकर के बाद जितनी आलोचना गांधीवाद की उन्होंने की, उतनी शायद ही किसी ने की हो. मात्र 23 साल की उम्र में जर्मनी से पीएचडी करने के बाद वे आज़ादी की जंग में कूद गये. देश आज़ाद कराने के लिए लोहिया सात बार जेल गए थे, आगरा जेल में उन्हें इतना प्रताड़ित किया गया था कि उनके शरीर ने काम करना बंद कर दिया था.
जिस जनेऊ यानी जाति के वर्चस्व के खिलाफ आज बहुजन जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसे तोड़ने के लिये लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी के जरिए जाति छोड़ो जनेऊ तोड़ो अभियान चलाया था और लाखों लोगों के जनेऊ तुड़वाकर जलवा दिया था.
60 के दशक में लोहिया ने ही कांग्रेस और ‘हिंदुस्तानी वामपंथ’ के ब्राह्मणवादी चरित्र पर सवाल करते हुए पहली दफा पिछड़ों के आरक्षण की मांग करते हुए नारा दिया था ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’. दिलचस्प बात है कि पिछड़ों के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले लोहिया खुद मारवाड़ी बनिया (सवर्ण) थे. वे जाति नहीं मानते थे कहते थे कि मेरे मां बाप ज़रूर मारवाड़ी रहे हैं, पर मैं नहीं रहूंगा.
माना जाता है कि पहली दफा पिछड़ों को नेतृत्व देने वाली बिहार सरकार के नेता कर्पूरी ठाकुर को नेता बनाने वाले लोहिया ही थे. ग्वालियर में रानी के खिलाफ एक दलित को चुनाव लड़कर रानी बनाम मेहतरानी का चुनाव बनाने वाले भी लोहिया ही थे.
आज जिन भी यूनिवर्सिटीज में भारतीय भाषाएं पढ़ाई जा रही हैं या जो भी यूपीएससी या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जो प्रश्न छपना शुरू हुए उसकी शुरुआती लड़ाई लड़ने में लोहिया प्रमुख थे. भारतीय भाषाओं के प्रति उनका ये झुकाव उनके जर्मनी प्रवास के दौरान हुआ.
नहर और नदी सफाई योजना के बारे में जो वो 1960 में सुझाव दिये थाे उस पर अब काम करने की योजना बनाई जा रही है, चाहे सिल्ट मैनेजमेंट हो या नदियों को जोड़ना हो. भारत की आज़ादी के बाद भी गोवा गुलामी के चंगुल में जकड़ा हुआ था उसे आज़ाद कराने वालों में डॉ लोहिया प्रमुख थे.
आज जिस एमएसपी और मिनिमम वेजेस की बात होती है उसको सबसे पहले मज़दूर और किसानों के ‘दाम बांधो’ नाम से सड़क से संसद तक संघर्ष चलाने वाले डॉ लोहिया ही थे.
वो फेमिनिस्ट लोहिया थे जो कहते थे कि एक वयस्क मर्द और औरत के बीच वादाखिलाफी और बलात्कार के अलावा सारे सम्बन्ध जायज़ हैं. वे लोहिया ही थे जो छुआछूत और रंगभेद के उस दौर में ऐतिहासिक लेख लिखकर बताते हैं कि चमड़ी के रंग का उसकी सुंदरता से कोई लेना देना नहीं है, रंगभेद का विरोध करते हुए ही वे अमेरिका में भी गिरफ्तार कर लिए गए थे.
आज़ादी के पहले लोहिया कांग्रेस के सचिव हुआ करते थे और आज़ादी के बाद पहली कैबिनेट में भी उन्हें मंत्री बनाया जाना था लेकिन अगर वे उसे स्वीकार कर लेते तो तो गरीबों के हक़ के लिए नेहरू के खिलाफ चलाई गई उनकी ऐतिहासिक तीन आना बनाम छः आना की बहस कौन चलाता. जिस पंचायती राज व्यवस्था के द्वारा रिप्रजेंटेशन देने पर हम आज फूले नहीं समाते हैं वो लोहिया के सुझाये गये ‘चौखम्भा राज’ का ही रूप है.
मात्र 57 वर्ष की उम्र में 1967 में मौत से पहले वे ऐसा करके और लिख कर साबित कर गये कि वे आज भी भारतीय परिदृश्य के हिसाब से सबसे प्रासंगिक नेताओं में से एक हैं.
कहा जाता है जाति पर मुखर रूप से बोलने के कारण भारतीय एकेडमिया यानी शिक्षा जगत ने उन्हें वो जगह नहीं दी, जिसके वे हकदार थे, और खुद को उनका राजनैतिक वारिस बताने वाले लोग भी उनकी वैचारिकी से काफी दूर हो गये.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में कानून के विद्यार्थी हैं.)
bahoot hi khubsurat lekh h bhaiya jee