एक आम दर्शक पृथ्वीराज चौहान के बारे में इतना ही जानता है कि पहले अजमेर और फिर दिल्ली के सम्राट बने पृथ्वीराज चौहान ने कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता का उसकी इच्छा से हरण किया जिसके बाद जयचंद ने गजनी के सुलतान मौहम्मद गोरी को अपनी मदद के लिए बुला भेजा. वही गोरी जिसे कभी चौहान ने जीवन-दान दिया था. कपट से गोरी ने पृथ्वीराज को बंदी बना लिया और दिल्ली की गद्दी पर कुतुबुद्दीन ऐबक को बिठा कर पृथ्वीराज को अपने साथ ले जाकर उसे अंधा कर दिया. बाद में सम्राट के कवि मित्र पृथ्वीचंद भट्ट यानी चंद बरदाई के इशारे पर चौहान ने शब्दभेदी बाण चला कर गोरी को मार डाला जिसके बाद इन दोनों मित्रों ने एक-दूसरे के पेट में खंजर भोंक कर जान दे दी. यहीं से उत्तर और मध्य भारत में हिन्दू साम्राज्य का खात्मा हुआ और इसीलिए आज तक भी देश के गद्दारों को जयचंद की संज्ञा दी जाती है.
इतिहास के उन पन्नों को सिनेमा के पर्दे पर उतारना बहुत जोखिम भरा होता है जिनमें इतिहास और दंतकथाओं का मिला-जुला रूप हो. यही वजह है कि ऐसी फिल्में अक्सर विवादों में घिरती हैं और बावजूद इसके फिल्मकार ऐसे विषयों पर हाथ आजमाते हैं और अक्सर दर्शकों द्वारा सराहे भी जाते हैं. यह फिल्म भी इसी कतार में है.
‘चाणक्य’ जैसा शोधपरक टी.वी. धारावाहिक बना चुके डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी किसी ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनाएं तो उससे बड़ी उम्मीदें लगना स्वाभाविक है. उन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो’ समेत पृथ्वीराज चौहान पर लिखे गए अन्य ग्रंथों से प्रसंग लेकर उनमें अपनी कल्पनाओं का मेल करवा कर जो कहानी रची, वह रोचक तो है लेकिन उस कहानी के इर्दगिर्द बुना गया पटकथा का जाल रंग-बिरंगा और भव्य होने के बावजूद कसा हुआ नहीं है. इसीलिए यह जाल दर्शक को आकर्षित तो करता है मगर उसे पूरी तरह से फंसा नहीं पाता.
जब कोई प्रमाणित इतिहास मौजूद न हो और उस पर बनने वाली फिल्म में कारोबारी गणित का ध्यान भी रखना हो तो उस फिल्म के ‘फिल्मीपने’ पर भला कैसा एतराज. तो, क्यों न इसे सिर्फ एक फिल्म समझ कर ही देखा जाए. पहले ही सीन से यह फिल्म आपको बांध लेती है और आप इसके फैलाए रंगीन आवरण में घिरते चले जाते हैं. भव्य सैट्स, रंगीन माहौल और शानदार वी.एफ.एक्स व सिनेमैटोग्राफी वाली यह फिल्म आंखों को काफी भाती है. शौर्य, साहस, न्याय, नारी को सम्मान देने और शरण में आए की रक्षा के लिए तत्पर रहने वाले इतिहास के हमारे नायकों की सोच के लिए इसे देखिए. देखिए कि कैसे उन लोगों ने हम पर पलट कर वार किए जिन्हें जीवन-दान दिया गया था. कैसे उन लोगों ने हमारे वीरों को छल से हराया. उस जयचंद के लिए इसे देखिए जिसने निज स्वार्थ के लिए अपने परिवार और कौम ही नहीं, देश तक से दगा किया. पृथ्वीराज और संयोगिता के प्रेम के लिए इसे देखिए और देखिए कि कैसे केसरिया बाना पहन कर इस देश की वीरांगनाओं ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किए थे.
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(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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