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Thursday, 21 November, 2024
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पढ़ाई में कमजोर, अच्छे ऑब्जर्वर, बेबाक, पिता के खिलाफ जा कर बने कलाकार, ऐसा रहा है नसीरुद्दीन शाह का सफर

शाह की ख़ासियत ये थी की वो कायदे के कलाकार थे, और इसलिए केवल आर्ट मूवीज़ ही नहीं बल्कि कमर्शियली हीट पिक्चर्स भी उन्होंने खूब दिए.

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नसीर जैसे जैसे बड़े हुए वैसे वैसे उनके अंदर का रंगमंच और उस रंगमंच पर खड़ा कलाकार भी बड़ा हुआ. मगर कैसे? आईए जानें.

अपने संस्मरण, ‘और फिर एक दिन’ के दूसरे बाब में नसीरुद्दीन शाह लिखते हैं कि –
‘और मुझे यक़ीन हो चला था की इस दुनिया में जो भी जादू होता है वो मंच पर होता है .’

ये बात लगभग 1953-54 के आस पास की होगी जब नसीरुद्दीन छोटे थे और ये बात मान चुके थे की जादू अगर कहीं होता है तो मंच पर होता है. तब एक नाटक देखने के बाद उनके ज़ेहन में ये बात बैठ गई की बस यहीं पर जादूगरी है. थिएटर को लेकर उनका समर्पण और प्रगाढ़ होने लगा. नसीरुद्दीन ने जब अपनी ज़िंदगी का सबसे पहला नाटक देखा तो वो बड़े मुतासिर हुए उस लहजे से जो कलाकार मंच पर लेकर चला करते थे. नाटक करते हुए आर्टिस्ट की आंखों का पूरब-से-पश्चिम होन ; नेपथ्य से हवा का बहना ; किरदारों का आना और फिर गुम हो जाना ; पर्दे के गिरते ही मनःस्थिति का तब्दील होना , ये सब उनके लिए बहुत ख़ास-ख़ूबसूरत और ख़ुशनुमा एहसास था.

एक अच्छे आर्टिस्ट की पहचान इस बात से भी होती है की उसमें अवलोकन की क्षमता कितनी तीव्र और प्रबल है. नसीर एक अच्छे ऑब्जर्वर थे. इस बात की पुष्टि एसे की जा सकती है कि जब वह छोटे थे तो उनके घर में वो अपने भाईयों के साथ मिलकर अपने आसपास-दूरदराज के रिश्तेदारों की नक़्ल उतारा करते थे. केवल रिश्तेदार ही नहीं बल्कि फ़िल्म स्टार्स की भी. उन्होंने एक जगह अपनी किताब में अपने किशोरावस्था के दिनों का ज़िक्र करते हुए पढ़ाई के प्रति अपनी अरूची को साझा किया. मगर इस वाक़ये को जान लेने से ये तो समझ आता है कि वे पढ़ाई के प्रति बहुत जुझारू नहीं थे पर एक अच्छे आर्टिस्ट होने के उनमें सारे लच्छन-करम थे.

वे लिखते हैं कि – ‘टीचर के पढ़ाने से कहीं ज़्यादा मेरे लिए ये देखना दिलचस्प था की वो कैसे बोल रहे हैं, क्या हाव-भाव है, क्या पहन कर आए हैं, किस तरह से अपनी आस्तीन मोड़ी है, या किस तरीके से वो ब्लैकबॉर्ड को साफ़ कर रहे हैं.’

ये सब बारीक़ी से ग़ौर करना और उस कैरेक्टर को दिमाग़ में बैठा लेना ये बताता है कि कोई कितना ऑब्जर्वेटीव हो सकता है. और जो जितनी मज़बूत अवलोकन क्षमता को रखता है उतना ही बेहतरीन आर्टिस्ट बनता है. शाह नसीरुद्दीन इस बात की मिसाल हैं.

कलाकार और कलाकारी :

पूरी दुनिया का अवलोकन करते हुए कला को अपनाकर उन्होंने अपने अंदर के कलाकार को आकृति दी. शायद इसलिए थिएटर से उनकी गहरी चाहत है. पब्लिक डोमेन में अभी कुछेक एसे क्लिप्स मौजूद हैं जहां नसीरुद्दीन शाह के बारे में बॉलीवुड अभिनेता परेश रावल ये कहते हुए नज़र आते हैं कि ‘नसीर सिर्फ़ एक्टिंग की वजह से नसीरुद्दीन शाह नहीं हैं बल्कि एटिट्यूड की वजह से हैं’.

ये बात तो ज़ाहिर तौर पर हम सब जानते हैं कि नसीरुद्दीन शाह फिल्म के अभिनेता बाद में मगर उससे पहले थिएटर के कलाकार हुए. शायद कुछ लोग कॉमर्शियल अभिनेता और कलाकार दोनों को ही एक नज़र से देखते होंगे पर समझने की बात तो ये है की कलाकार होना एक वाईड कैनवस है. अभिनय करना उस वाईड कैनवस का एक हिस्सा भर है. फ़र्क़ है दोनों में. कलाकारी रचनात्मकता एवं कल्पनाशीलता से की जाती है, और उसके पीछे की मंशा व मनोभाव होता है- कला के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन. वहीं कॉमर्शियल अभिनय के पीछे पूंजी की लागत होती है, और उस अभिनय के पिछे डायरेक्टर का निहित स्वार्थ होता है. लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं की कॉमर्शियली काम करने वाले लोग कमतर होते हैं, बल्कि इस बात का असल रस ये है की जब कोई व्यक्ति एक बेहतरीन कलाकार होता है तब वह अपनी कला का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन ही नहीं करता बल्कि कॉमर्शियली भी भारी सफलता प्राप्त करता है. यही फ़र्क़ है थिएटर और फ़िल्मों में.

इस बात को तरजीह देते हुए नसीरुद्दीन अपने संस्मरण में लिखते हैं कि – ‘फ़िल्में आपको बांधती हैं. वो सब कुछ आपको थाली में परोस कर देती हैं. फ़िल्मों में जो माहौल बनाया जाता है वो शायद आपको अपने हिसाब से बहा ले जाए मगर थिएटर के माहौल में आपकी कल्पना शक्ति और तीव्र हो जाती है जिसके कारण हम अधिक आनंद महसूस कर पाते हैं. यह केवल थिएटर में ही संभव है कि दर्शक और कलाकार के बीच इस प्रकार की ऊर्जा का आदान-प्रदान हो सके. ‘

वो ये भी लिखते हैं कि – ‘ इट इ    ज़ अ वन टू वन एक्सपीरियंस. ‘


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थिएटर से फ़िल्मों का सफ़र :

स्कूल के वक़्त किए गए काम के बाद सीधे नसीरुद्दीन शाह थिएटर में भर्ती हुए. दिल्ली के मंडी हाउस के भगवानदास रोड़ पर स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में थिएटर सीखने के बाद भी नसीरुद्दीन शाह ने खुद को रोका नहीं बल्कि खुद को और सीखने समझने का मौक़ा दिया. उनके हिसाब से नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के तीनों साल मिलाकर भी वो, वो न कर सके जो वाकई में वो करना चाहते थे. यहां से निकल कल तुरंत ही उन्होंने फ़िल्म इंस्टीट्यूट पुणे में दाखिला लिया. एन.एस.डी के दिनों में नसीरुद्दीन शाह और बॉलीवुड के आर्ट अभिनेता ओम पुरी बड़े जीगरी दोस्त बने. माली हालत ठीक ना होने के कारण ओम पुरी ने फ़िल्म इंस्टीट्यूट ज्वाइन करने से मना कर दिया था मगर नसीरुद्दीन ने पूरे ज़ोरों से उनका भी अपने साथ वहां दाख़िला दर्ज़ करवाने मे मदद की. थिएटर से फ़िल्मो॔ तक के ही सफ़र में नहीं बल्कि निजी ज़िन्दगी में भी ये दोनों काफ़ी समय तक साथ रहे, ख़ासकर तब जब दोनों ही कलाकारों की जेब खाली हुआ करती थी.

नसीरुद्दीन ने बताया था कि मेरे पिता कभी नहीं चाहते थे कि मैं फिल्‍मों में काम करूं। मैंने उनके खिलाफ जा कर एक्टिंग इंस्‍टीट्यूट में दाखिला लिया और कलाकार बन गया.

एक ज़माने में ये चलन था की हिरो हो या शीरो, दोनों का ही सुंदर होना अनिवार्य है, तभी पिक्चर्स चलेंगी , वर्ना कौन देखेगा. ये सोच थी एक समय की. मगर उस समय नसीर और ओम पुरी दोनों ही लोग समाज के बनाए खूबसूरती के मापदंड के आस पास भी नहीं थे. ऐसे में किस्सा ये हुआ कि एक दिन शबाना आज़मी ने दोनों को एक फ्रेम में देख कर मज़ाकिया होकर कहा कि- ‘ये दो इतने बदशक्ल लोग एक्टर बनने की कैसे सोच सकते हैं’. इस बात को खुद नसीरूद्दीन शाह ने साल दो साल पहले ओम पुरी के साथ बैठकर दिए हुए एक इंटरव्यू में कहा. बहुत ख़ूबसूरत ना होने के बावजूद अपनी कला के दम पर फ़िल्मों में नसीरुद्दीन शाह सन् 1975 के बाद से धीरे धीरे दिखने लगे.

फ़िल्मों में नसीरुद्दीन शाह सन् 1975 के बाद से धीरे धीरे दिखने लगे. वैसे तो सन् 1967 में भी उन्होंने राजेन्द्र कपूर और शायरा बानो की पिक्चर ‘अमन’ में काम किया था मगर रीलीज़ होने से पहले ही उनके तमाम सीन काट दिए गए. उनके लिए उस वक़्त ये एक धक्का था. बहरहाल अब जब वो फ़िल्म इंस्टीट्यूट से पास होकर निकले तो उसी साल हिन्दी सिनेमा के कालजयी निर्देशक श्याम बेनेगल की पिक्चर ‘निशांत’ में नज़र आए. सन् 1975 में आई इस फ़िल्म में नसीरुद्दीन शाह के साथ साथ अमरीश पुरी, शबाना आज़मी, गिरिश कर्नाड और स्मिता पाटिल सी नायाब हस्तियां भी नज़र आईं .

उस दौर में निर्देशक श्याम बेनेगल की पिक्चरर्स में दिखने की वजह से उन्हें एक संजीदा कलाकार की तरह देखा जाने लगा. इस तरह पांच साल गुज़रे और सन् 80 नसीरुद्दीन के स्वर्णीम भविष्य के लिए सौभाग्यशाली साबित हुआ. इसके बाद उनको कभी पलट कर देखना नहीं पड़ा. आर्ट कलाकार शबाना आज़मी के साथ मिलकर ‘स्पर्श’ जैसी बेहतरीन मुवी बॉलिवुड को दी और खुद के नाम काम में चार चांद लगाए. इसी तरह 1982 में ‘बाज़ार’ जैसी क्लासिक फ़िल्म में अपना योगदान देकर अपना शिख़र स्वयं तय किया. इसी दौरान नसीरुद्दीन शाह ने गौतम घोष की फ़िल्म ‘पार’, जो कि एक ड्रामा फ़िल्म थी, उसमें भी काम किया .

आर्ट और कॉमर्स का मिश्रण :

शाह की ख़ासियत ये थी की वो कायदे के कलाकार थे, और इसलिए केवल आर्ट मूवीज़ ही नहीं बल्कि कमर्शियली हीट पिक्चर्स भी उन्होंने खूब दिए. हर फ़िल्म में सकारात्मक रोल में नज़र ना आने के बावजूद भी उन्हें जनता का पूरा प्यार मिला.

ना जाने कितने ही फ़िल्म फ़ेयर के वो हक़दार बनें. फिर एक दिन बॉलीवुड की दहलीज़ फांन कर वो हॉलीवूड में भी नज़र आए. सन् 2003 में स्टीफ़न नॉरिंगटन की फ़िल्म – ‘द लीग ऑफ़ एक्सट्राऑर्डिनरी जेन्टलमेन’ में कैप्टन नीमो का किरदार अदा किया. ये फ़िल्म हॉलीवूड में कमर्शियली तो सफल हुई मगर किन्हीं कारणों से क्रिटिकली मात खा गई. नसीरुद्दीन शाह ने अपने पूरे करियर में अधिकांश बढ़िया ही काम किया है. शायद इसलिए उनके एकाध फेलियर से उनके करियर पर कोई दुष्प्रभाव कभी नहीं पड़ा. टीवी पर भी जब उन्होंने काम किया तो बेतहाशा धूम मचा दी. सम्पूर्ण सिंह कालरा उर्फ़ गुलज़ार के निर्देशन में बनाई गई मिर्ज़ा ग़ालिब में जो ग़ालिब का किरदार नसीरुद्दीन शाह ने अदा किया है उसपर एक बार खुद गुलज़ार बोल पड़े कि जैसे इस रोल को निभाने के लिए नसीरुद्दीन ही बने हों और ये रोल भी यक़ीनन उनके लिए ही बना है. कोई और अगर करता तो क्या करता.

द अनकट नसीर

फ़िल्मों में या थिएटर में रोल निभाने की अगर बात हो तो नसीर की एक्टिंग के असीर तो सब हुए. अनकट स्वभाव वाले नसीर कुछ सालों से पब्लिकली भी एक्टिव होकर बोलने लगे हैं. चाहे लव जिहाद वाला मामला हो या फिर हाल ही में आई ‘द केरला स्टोरी’ वाला वबाल , दोनों पर ही उन्होंने अनकट होकर अपनी टिप्पणी दी है. इसी सिलसिले में उन्होंने बॉलीवुड अभिनेता अनुपम खेर पर भी अनकट टिप्पणी दी और उनपर सार्वजनिक रूप से तंज कसा. ऐसा नहीं है कि नसीर किसी विशेष पर ही अपनी टिप्पणी देते हैं बल्कि उन्हें जो भी कुछ अटपटा लगता है वो तुरंत उसपर थर्ड गियर ले लेते हैं.

एक बार किसी बड़े सांस्कृतिक मंच से वह युवाओं के किताब में घटती रुचि को लेकर ये कहते हुए नजर आए कि –‘मैं पढ़ने को बेहद ज़रूरी समझता हूं लेकिन मेरी अपनी औलाद जब ये बात नहीं सझती कि उन्हें पढ़ना चाहिए तो मैं और किसी को क्या समझा सकता हूं.’

अपने अनकट स्वभाव के कारण नसीरुद्दीन शाह आए दिन सुर्खियों से घिरे रहते हैं मगर एक ज़माने में मीर तक़ी ‘मीर’ ने एक बात कही थी कि –

‘शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए’

नसीरूद्दीन, उनकी कला और उनका जज़्बा, यही वो तीन तत्व हैं जो नसीरूद्दीन शाह को कलाकार नसीरूद्दीन शाह बनाए रखने के लिए उनके करियर में पिछले पचास सालों से सहायक रहे हैं. आज उनका जन्मदिन है.

(लेखिका फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं)


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