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Wednesday, 17 April, 2024
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मनोरंजन से ज्यादा कन्फ्यूजन से भरी है मल्टी स्टारर फिल्म ‘जुग जुग जिओ’

हाल के बरसों में तो ऐसी कहानियां बहुतायत में आने लगी हैं जिनमें हर आड़ी-टेढ़ी बात को शादी वाले घर की पृष्ठभूमि में दिखाया-बताया जाने लगा है.

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शादी के बाद कनाडा चले गए कुक्कू और नैना शादी के पांच साल बाद ही एक-दूसरे से तलाक चाहते हैं. ये तय करते हैं कि पटियाला में बहन की शादी के दौरान वे परिवार वालों को अपने फैसले के बारे में बता देंगे. मगर इससे पहले कि कुक्कू कुछ बता पाता उसका बाप बम फोड़ देता है कि बेटी की शादी के बाद वह उनकी मां को तलाक दे रहा है. उधर बेटी भी अपने स्ट्रगलर प्रेमी को छोड़ एक ‘सेटल’ लड़के से मजबूरी में शादी कर रही है. हर किसी की अपनी मजबूरी, अपनी चाहतें, अपना संघर्ष.

हाल के बरसों में तो ऐसी कहानियां बहुतायत में आने लगी हैं जिनमें हर आड़ी-टेढ़ी बात को शादी वाले घर की पृष्ठभूमि में दिखाया-बताया जाने लगा है. यह रास्ता फिल्म वालों के लिए तो आसान है ही, जहां वे वर्जित या दबे-छुपे विषयों को चमक-दमक वाली पैकिंग और कॉमेडी के रैपर में लपेट कर परोस देते हैं वहीं दर्शकों को भी यह माहौल भाता है क्योंकि हर किसी को अपने-अपने मतलब का मसाला मिल जाता है.

कहानी में नयापन भले न हो, एक ट्विस्ट जरूर है कि जहां बेटे को शादी के 5 साल बाद जिंदगी ठहरी हुई लग रही है वहीं बाप को 35 साल बाद ठहराव महसूस हुआ है. फिल्म कहना चाहती है कि हम अपने अहं और अपनी इच्छाओं की पूर्ति में इस कदर उलझे रहते हैं कि अपने पार्टनर की उंगली पकड़ना ही भूल जाते हैं और इसीलिए दोनों के बीच दूरियां आने लगती हैं.

फिल्म यह भी कहना चाहती है कि यदि आपस में बात हो, संवाद हो तो कड़वाहटों और दूरियों को काफी हद तक कम किया जा सकता है. लेकिन यह सब फिल्म सिर्फ कहना चाहती है, खुल कर कह नहीं पाती है क्योंकि कहने के लिए जिस किस्म के किरदार यह गढ़ती है, जिस तरह की सिचुएशंस यह बनाती है, उनमें सहजता नहीं है.


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सबसे पहले तो फिल्म यह बताने में ही नाकाम रहती है कि कुक्कू और नैना की जिंदगी में ठंडापन आखिर आया ही क्यों? निर्देशक ने कह दिया, आपको मानना ही पड़ेगा. कुक्कू पांचवीं क्लास से नैना पर फिदा है, उसके लिए किसी से भी भिड़ जाता है लेकिन शादी के बाद ऐसा क्या होता है कि वह उसके लिए भिड़ना तो दूर, खड़ा तक नहीं हो पाता? लेखकों की मंडली पर जब ये दबाव हों कि पटकथा लिखते समय उन्हें हर थोड़ी देर बाद कोई न कोई मसाला डालना है और कैरेक्टर खड़े करते समय उन्हें रंग-बिरंगे तेवर देने हैं तो अक्सर इसी किस्म की खिचड़ी बन कर सामने आती है.

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अब कन्फ्यूजन बेचारे दर्शक को होती है कि वह किस किरदार को प्यार करे, किसे दुत्कारे, किस की बात को सही माने और किसे कटघरे में खड़ा करे और यह भी कि दिखाए जा रहे सीन पर उसे हंसना है या सोचना है, गुस्सा करना है या शोक मनाना है. कहानी से पटकथा और पटकथा से पर्दे तक के सफर को जब ‘प्रपोजल’ बना दिया जाता है तो फिल्में कुछ ऐसा ही रूप लेती हैं. इस फिल्म के नाम का इसकी कहानी या कंटेंट से कोई नाता नहीं है. कोई आकर्षक नाम रखना था, सो रख दिया.

वरुण धवन अपनी सीमित रेंज में जो कर सकते थे, उन्होंने दम लगा कर किया. कुछ सीन में वह खूब जंचे. कियारा आडवाणी को अच्छे सीन कम ही मिले. अनिल कपूर, नीतू सिंह सीनियर हैं, सो छाए रहे. यू-ट्यूबर प्राजक्ता कोली ने अपनी पहली फिल्म में प्रभावित किया. सबसे दमदार रहे मनीष पॉल. जब-जब आए, हंसा गए. गीत-संगीत अच्छा है लेकिन म्यूज़िक की ज्यादा खुराक अखरने लगती है.

राज मेहता ने फिल्म लंबी बहुत कर दी. बातें फैलाते हुए वह दूर निकल गए और समेटते समय नाकाम रह गए. इसीलिए फिल्म का अंत न उम्मीदों पर खरा उतरा, न ही उसने असर छोड़ा. राज की पिछली फिल्म ‘गुड न्यूज’ में जो कसावट थी, वह इसमें नहीं दिखती.

और हां, इस फिल्म को पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनाने की क्या जरूरत थी, यह भी समझ से बाहर है. 35 साल से पटियाला में रह रहे शादीशुदा जोड़े (अनिल-नीतू) को अगर मुंबईया हिन्दी ही बोलनी है तो फिल्म को भी मुंबई में सैट किया जा सकता था. क्या सिर्फ इसलिए कि हर किरदार हर थोड़ी देर बाद पर्दे पर शराब पीते हुए दिखाया जा सके?

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो  टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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