बहुतेरे लोग मानते आए हैं कि फिल्में बच्चों को बिगाड़ने का काम अधिक करती हैं. लेकिन यही फिल्में अक्सर पढ़ने-पढ़ाने के माहौल में भी दखल देती हैं. फिल्मों में अध्यापक का चेहरा बदला है और कई सारी फिल्में भी ‘गुरु’ की भूमिका में आती हैं और सिनेमाघर को ‘क्लास-रूम’ का दर्जा देकर बहुत कुछ सिखा-पढ़ा जाती हैं.
हमारी फिल्मों में अध्यापक और शिक्षा की भूमिका को कभी भी अनदेखा नहीं किया गया. सबसे पहले जो नाम एकदम से याद आता है वह है 1954 में आई सत्येन बोस निर्देशित फिल्म ‘जागृति’ का. अभिभट्टाचार्य अभिनीत इस फिल्म के अध्यापक शेखर का मानना है कि असली पढ़ाई बंद कमरों की बजाय बाहर प्रकृति की गोद में बैठ कर ही हो सकती है. वह अपने छात्रों को भारत-दर्शन के लिए ले जाता है और गाता है-‘आओ बच्चो तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की…’. इस फिल्म का ही असर था कि इसके बाद छात्र-छात्राओं को देशाटन के लिए ले जाए जाने की परंपरा को बल मिला.
गुलजार निर्देशित ‘परिचय’ (1972) का नायक एक ऐसे अमीर घर के बच्चों को पढ़ाने के लिए आता है जिनके माता-पिता नहीं हैं और जो अपनत्व से महरूम भी. वह न सिर्फ इन्हें पढ़ना सिखाता है बल्कि इनके भीतर संस्कारों का संचार भी करता है. वी. शांताराम की 1967 में आई फिल्म ‘बूंद जो बन गई मोती’ का नायक भी एक आदर्शवादी अध्यापक है जो ‘यह कौन चित्रकार है…’ गाते हुए बच्चों को प्रकृति का पाठ पढ़ाता है. राज कपूर की ‘श्री 420’ में स्कूल टीचर विद्या (नरगिस) बच्चों को गाते हुए पढ़ाती है-‘तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर…’. भले ही इस फिल्म की कहानी पढ़ाई-लिखाई के बारे में नहीं थी लेकिन यह गीत यह संदेश तो देता ही है कि बच्चों को इस रोचक तरीके से भी पढ़ाया जा सकता है.
1991 में आई नाना पाटेकर निर्देशित फिल्म ‘प्रहार’ हालांकि एक कमांडो ट्रेनिंग स्कूल के बारे में है लेकिन यह फिल्म यह भी बताती है कि अपने छात्रों में अच्छे गुणों को भरने के लिए प्रेरणा का काम उनके अध्यापक, उनके गुरु को ही करना पड़ता है. नाना पाटेकर इस फिल्म में सेना के कमांडो ट्रेनिंग स्कूल के कड़क, अनुशासनप्रिय ट्रेनर की भूमिका में अपने छात्रों को जीवन जीने और देश पर मर-मिटने का पाठ पढ़ाते हैं.
2003 में आई राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ मुख्यतः चिकित्सा-क्षेत्र में व्याप्त असंवेदनशीलता पर आधारित है लेकिन पढ़ाई-लिखाई पर भी यह सार्थक टिप्पणियां कर जाती है. हेराफेरी से मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाला एक टपोरी मुन्ना यहां आकर सबको यह जता जाता है कि ज्ञान भले ही किताबों में बंद हो लेकिन किसी को भला-चंगा करने के लिए इन किताबी हदों से बाहर भी जाना चाहिए.
संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ (2005) के केंद्र में एक ऐसा अध्यापक है जो अपनी गूंगी, बहरी और अंधी शिष्या को पढ़ा-लिखा कर सक्षम बनाता है. अंत में वही शिष्या बुजुर्ग और अक्षम हो चुके अपने गुरु को सहारा देती है. 2004 में आई आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘स्वदेस’ किताबी बातों को सहजता से समझने और उस ज्ञान को अपने लोगों के उत्थान के लिए उपयोग में लाने की सीख देती नजर आई. महात्मा गांधी के दर्शन, उनके विचारों और शिक्षाओं के बारे में जितना ज्ञान और जो सीख हजारों किताबें मिल कर नहीं दे पाईं, वह अकेली ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) ने दे दिया.
पढ़ाने-सिखाने वाली फिल्मों की धारा में प्रभावशाली बदलाव तो आया आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ (2007) के बाद. इस फिल्म में उठाए गए इन सवालों को काफी चर्चा मिली कि क्या सभी बच्चों को एक ही तरीके से पढ़ाया जाना उचित है? कहीं दूसरे बच्चों से होड़ के चक्कर में हम अपने बच्चों से उनका बचपन तो नहीं छीन रहे? इस फिल्म का आर्ट-टीचर राम निकुंभ कहता भी है-‘अगर घोड़े दौड़ाने का इतना ही शौक है तो रेसकोर्स में जाओ, बच्चे क्यों पैदा करते हो…?’ इस फिल्म का असर भी हुआ और शिक्षा-क्षेत्र से जुड़े लोगों, शिक्षाविदों व अभिभावकों में चेतना भी जगी.
देश के कई राज्यों में अध्यापकों को यह फिल्म दिखाने के लिए ले जाया गया ताकि वे लोग बच्चों को पढ़ाने के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाएं. देश के प्रत्येक स्कूल में विशेष प्रतिभा वाले बच्चों के लिए अलग से एक अध्यापक रखे जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के पीछे भी इस फिल्म के आने के बाद समाज में आई चेतना को ही कारण माना जा सकता है.
2009 में आई राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘3 ईडियट्स’ को भी पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीकों के चलते खासी चर्चा मिली. यह फिल्म अपने तीन मुख्य नायकों के द्वारा यह संदेश देती दिखाई दी कि जीवन में सफलता पाने के लिए उस काम को करना अधिक सही है जिसमें आपका मन हो और जिसे आप बेहतर ढंग से कर सकें. यह फिल्म बताती है कि पढ़ने से ज्यादा गुढ़ना जरूरी है और कभी-कभी पढ़ने में ‘ईडियट’ लगने वाले लोग भी जीवन में दूसरों से अच्छा कर जाते हैं.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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