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Friday, 17 May, 2024
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महात्मा गांधी का पाकिस्तान से ‘युद्ध करने का आह्वान’, नोबेल शांति पुरस्कार से उन्हें दूर ले गया

एक भ्रमित करती न्यूज़ रिपोर्ट ने महात्मा गांधी के पुरस्कार जीतने के मौके को क्षीण कर दिया. इसके बाद 1948 में उन्हें ओस्लो जरूर बुलाया जाता अगर नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या न की होती.

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नोबेल शांति पुरस्कार ने ‘शांति के प्रतीक’ की उपेक्षा क्यों की?

ये वही सवाल है जो मोहनदास करमचंद गांधी और महात्मा की 72 साल पहले 30 जनवरी 1948 को हुई हत्या के समय से ही पूछा जा रहा है.

नोर्वेजिएन नोबल समिति के अर्काइव से पता चलता है कि उन्हें पांच बार इस पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था और तीन बार शॉर्टलिस्ट किया गया था. लेकिन एक भ्रमित करती न्यूज़ रिपोर्ट जिसमें उनकी प्रार्थना सभा में उनके द्वारा पाकिस्तान से युद्ध की वकालत करने की बात ने उनके पुरस्कार जीतने के मौके को क्षीण कर दिया. इसके बाद 1948 में उन्हें ओस्लो जरूर बुलाया जाता अगर नाथूराम गोडसे ने उनकी हत्या न की होती.

गांधी के समर्थकों ने उन्हें इस बड़े सम्मान के लिए 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 में नामांकित किया. लेकिन हर बार कमिटी ने किसी और की तरफ ही देखा. साल दर साल ऐसे लोग नोबल पुरस्कार लिए अपने घर लौटे जो ज्यादा प्रसिद्ध भी नहीं थे लेकिन गांधी जैसी शख्सियत को पुरस्कार देने से चूक जाना कमिटी को भी खलती रही.

ट्रीविया क्विज़ के सवालों के ड्रीम लिस्ट में जिन बड़े नामों को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है देखा जाए तो उसमें जोसफ स्टालिन, एडॉल्फ हिटलर, विंस्टन चर्चिल और बैनिटो मुसोलिनी के नाम शामिल होंगे. दो लोग और इस सूची में शामिल थे, एक वो जिनसे गांधी प्रेरित थे और एक जिन्हें उन्होंने प्रेरित किया था- लियो टॉल्स्टॉयऔर जवाहरलाल नेहरू.

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महात्मा गांधी की हत्या के बाद से शर्मिंदा नोबल कमिटी (जो नोर्वेगिएन संसद द्वारा चुना जाता है) ने गांधीवादी लोगों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जिसमें मार्टिन लूथर किंग (1964), आंग सान सू ची (1991), नेल्सन मंडेला (साथ में फ्रेडरिक विलेम डी कर्ल्क,1993) और कैलाश सत्यार्थी (साथ में मलाला युसफजई, 2014) शामिल हैं.

1989 में 14वें दलाई लामा को पुरस्कार देते हुए कमिटी के चेयरमैन ने कहा था कि ‘ये महात्मा गांधी की याद में एक श्रद्धांजलि है’.

नोबल पुरस्कार ने गांधी की उपेक्षा क्यों की

आलोचकों ने आरोप लगाया है कि नोबेल समिति के पास एक यूरोसेंट्रिक विश्वदृष्टि थी, और यह ग्रेट ब्रिटेन को गलत तरीके से रगड़ने से डरता था जब उसने गांधी को पुरस्कार देने के लिए नहीं चुना.

कमिटी की तरफ से कभी भी इस तरह की कवायतों पर कुछ नहीं बोला गया लेकिन दस्तावेज़ों के जरिए जब ये बात सामने आई और सार्वजनिक हुई तो ये सब पता चला.


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‘फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया’ संघों से प्रेरित होकर, यह ओले कोल्बॉर्न्सन थे, जो नॉर्वे की संसद के एक लेबर पार्टी के सदस्य थे, जिन्होंने पहली बार 1937 (और फिर 1938 और 1939 में) महात्मा गांधी को नामित किया था. गांधी का नाम शॉर्टलिस्ट किया गया था.

पुरस्कार की वेबसाइट के पूर्व शांति संपादक ओईविंड टोनेसन ने लिखा कि समिति ने इतिहासकार जेकोब वॉर्म मूलर की सलाह ली थी. वॉर्म मूलर ने गांधी की सराहना की थी और कहा था कि बिना किसी संदेह के वो अच्छे इंसान है- एक ऐसे व्यक्ति जो पुरस्कार के लायक है और भारत की जनता का प्रिय है. हालांकि उन्होंने कहा कि ‘उनकी नीतियों में काफी मुड़ाव थे जो मुश्किल से उनके समर्थकों द्वारा संतोषजनक है. वह स्वतंत्रता सेनानी है, एक तानाशाह हैं, आदर्श हैं और एक राष्ट्रवादी. अचानक से वो क्राइस्ट हो जाते हैं और फिर झटके से साधारण नेता.’

उन्होंने कहा कि दक्षिण अफ्रीका में उनका संघर्ष केवल भारतीयों के मद्देनज़र था न कि उन भूरे लोगों के लिए जिनकी रहने की स्थिति काफी खराब थी.

आज़ादी के बाद क्या हुआ

महात्मा गांधी को 1947 में दूसरी बार नोबेल पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया. भारत की आज़ादी से ठीक पहले जिसमें गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चला. देश के तीन नेताओं ने टेलीग्राम के जरिए उनको पुरस्कार के लिए नामांकित किया था. बॉम्बे प्रोविंस के प्रधानमंत्री बीजी खेर, यूनाइटेड प्रोविंस के प्रीमियर जीबी पंत और नेशनल लेजिसलेटिव असेंबली के अध्यक्ष जीवी मावलंकर ने उनका नाम नामांकित किया था.

इसके बाद समिति ने एक अन्य इतिहासकार जेन्स अरूप सीप से सलाह ली. टोनेसन ने लिखा कि उनकी रिपोर्ट वॉर्म मूलर से अलग थी जो उनके पक्ष में थी लेकिन पूरी तरह से समर्थन में नहीं थी. कुछ अन्य बातों समेत सीप ने लिखा, ’15 अगस्त 1947 के द टाइम्स में ये प्रदर्शित किया गया कि भारतीय बंटवारे के बाद अगर खूनखराबा का दायरा ज्यादा नहीं बढ़ा तो इसके पीछे गांधी के विचार, उनके समर्थकों के प्रयास और उनका खुद का वहां होना था.’

फिर भी, प्रशंसा समिति के सदस्यों को मनाने में विफल रही. टोनेसन कुछ लोगों के विचारों के बारे में बताते हैं.

‘कमिटी के चेयरमैन गुन्नार जाह्न की डायरी से पता चलता है कि जब 30 अक्टूबर 1947 को सदस्य फैसला ले रहे थे तब दो सदस्यों एक क्रिश्चियन हरमन स्मिट इंगरब्रेटसन और क्रिश्चियन लिबरल क्रिश्चियन ओफ्टेडल ने गांधी के पक्ष में बोला था. हालांकि 1947 में वो बाकी तीन सदस्यों को समझाने में असफल रहे. लेबर पार्टी के नेता मार्टिन ट्रेनमाइल भारत-पाकिस्तान के संघर्ष के बीच गांधी को शांति पुरस्कार देने के लिए संतुष्ट नहीं थे. पूर्व विदेश मंत्री बीरगर ब्रैडलैंड ट्रेनमाइल से सहमत थे.’

रीयोटर्स की रिपोर्ट से वो काफी प्रभावित थे जो 27 सितंबर 1947 को द टाइम्स में छपा था जिसमें लिखा हुआ था कि गांधी पाकिस्तान के साथ युद्ध करने के हिमायती हैं.


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रिपोर्ट में लिखा था, ‘मिस्टर गांधी ने अपनी प्रार्थना सभा को रात को बताया कि, हालांकि, उन्होंने हमेशा सभी युद्ध का विरोध किया था, अगर पाकिस्तान से न्याय हासिल करने का कोई और तरीका नहीं था और अगर पाकिस्तान ने अपनी सिद्ध त्रुटि को देखने से इनकार कर दिया और इसे कम करना जारी रखा, तो भारतीय संघ सरकार को इसके खिलाफ युद्ध में जाना होगा. कोई भी युद्ध नहीं चाहता था, लेकिन वह कभी भी किसी के साथ अन्याय करने की सलाह नहीं दे सकता था. यदि सभी हिंदुओं को न्यायसंगत ठहराया जाता, तो वह बुरा नहीं मानते.’

गांधी को यह बताने की जल्दी थी कि रिपोर्ट सही थी, लेकिन अधूरी. उन्होंने यह भी कहा था कि ‘उनके पास एक नए क्रम में कोई जगह नहीं थी जहां वे एक सेना, एक नौसेना, एक वायु सेना और क्या नहीं’ चाहते थे.

समिति के अध्यक्ष जह्र ने अपनी डायरी में लिखा, ‘जबकि यह सच है कि वह (गांधी) नामांकित व्यक्तियों में सबसे महान व्यक्तित्व हैं- उनके बारे में बहुत सारी अच्छी बातें कही जा सकती हैं- हमें याद रखना चाहिए कि वह केवल शांति के लिए प्रेरित नहीं हैं, वह सबसे पहले देशभक्त है.… इसके अलावा, हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि गांधी भोले नहीं हैं. वह एक उत्कृष्ट न्यायविद और वकील हैं.’

अंतिम बार

1948 में, महात्मा गांधी की हत्या के दो दिन बाद नामांकन की समय सीमा तय की गई थी.

कमिटी को महात्मा के लिए छह नोमिनेशन मिले थे. एमिली ग्रीन बाल्च (1946 के शांति पुरस्कार विजेता), द क्वेकर्स (1947 के शांति पुरस्करा विजेता), क्रिश्चियन स्टीफेंसन ओस्टेडल (समिती सदस्य), कोलंबिया विश्वविद्यालय के पांच प्रोफेसरों, बोरडियोक्स विश्वविद्यालय के छह प्रोफेसरों और फ्रेड कास्टबर्ग नार्वेजियन न्यायविद और समिति के पूर्व सलाहकार के द्वारा.

गांधी के नाम को तीसरी बार शॉर्टलिस्ट किया गया था.

सीप ने अपनी रिपोर्ट को अपडेट किया और यह निष्कर्ष निकाला कि गांधी ने एक नैतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण पर अपना गहरा प्रभाव डाला था जो कि भारत के अंदर और बाहर दोनों में बड़ी संख्या में लोगों के लिए एक आदर्श के रूप में प्रबल होगा. उन्होंने कहा, ‘इस संबंध में गांधी की तुलना केवल धर्मों के संस्थापकों से की जा सकती है.’

किसी को भी तब तक मरणोपरांत शांति पुरस्कार से सम्मानित नहीं किया गया था, हालांकि नोबेल फाउंडेशन के क़ानूनों ने इसे कुछ परिस्थितियों में अनुमति दी थी. (डैग हम्मरस्कॉल्ड को 1961 में मरणोपरांत पुरस्कार के लिए नामित किया गया था. मरणोपरांत सम्मान के खिलाफ एक नियम 1974 में आया.)


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नोबेल पुरस्कार वेबसाइट स्वीकार करती है कि 1948 में गांधी को सम्मानित करना संभव था. मुश्किल ये थी कि, ‘गांधी एक संगठन से संबंधित नहीं थे, उन्होंने कोई संपत्ति नहीं छोड़ी और कोई इच्छा नहीं थी, पुरस्कार राशि कौन प्राप्त करता?’

मरणोपरांत पुरस्कार पर खूब आंतरिक चर्चा के बाद जो सिर्फ एक बात निष्कर्ष निकली की जो 18 नवंबर 1948 की घोषणा में भी कहा गया कि ‘इस साल नोबल शांति पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया जाएगा क्योंकि ‘कोई उपयुक्त जीवित उम्मीदवार नहीं था.’

(आशीष मेहता दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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