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Sunday, 3 November, 2024
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महाराष्ट्र : स्कूल के प्रयास से अब ईंट भट्टों पर नहीं जाते हैं आदिवासी बच्चे

यह स्कूल के प्रयासों का ही नतीजा है कि पिछले दो वर्षो में ऐसे 20 बच्चों ने अपने परिजनों के साथ ईंट भट्टों पर जाने के लिए गांव नहीं छोड़ा.

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महाराष्ट्र में बुलढ़ाना जिले से करीब 15 किलोमीटर दूर दाहिद गांव का जिला परिषद उच्च प्राथमिक मराठी स्कूल अपने अतिरिक्त प्रयासों से भील आदिवासी समुदाय के ईंट भट्टा मजदूरों को शिक्षा का महत्त्व समझाने में सफल हो रहा है.

यही वजह है कि हर साल दिवाली के बाद दूसरे क्षेत्रों में पलायन करने वाले इन परिवारों के कई बच्चों का पलायन रुका है. यह स्कूल के प्रयासों का ही नतीजा है कि पिछले दो वर्षो में ऐसे 20 बच्चों ने अपने परिजनों के साथ ईंट भट्टों पर जाने के लिए गांव नहीं छोड़ा. शिक्षक ऐसे बच्चों को नियमित तौर पर स्कूल में उपस्थिति रहने में कामयाब रहे. वहीं, शिक्षकों की कोशिश से इन बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि जागी है. साथ ही, उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ रहा है. अब ये बच्चे समुदाय के दूसरे बच्चों के साथ आपस में अच्छी तरह से घुल मिल रहे हैं. इन बच्चों के व्यवहार में आ रहे शिष्टाचार को देखकर इनके परिजन भी खुशी जाहिर कर रहे हैं.

बता दें कि करीब तीन हजार की आबादी का यह मराठा और बौद्ध समुदाय बहुल गांव है. यहां ज्यादातर दलहन और तिलहन उत्पादक किसान और मजदूर परिवार रहते हैं. वहीं, वर्ष 1932 में स्थापित इस स्कूल में प्रधानाध्यापक सहित छह शिक्षक-शिक्षिकाएं हैं. यहां कुल 153 बच्चों में 90 लड़के और 63 लड़कियां हैं. इस स्कूल में सिंतबर 2017 से मूल्यवर्धन लागू है.

बनाया अपनापन का रिश्ता

प्रधानाध्यापक विष्णु धंदर ने यहां मूल्यवर्धन नाम की गतिविधियों के सहारे स्कूल और ऐसे बच्चों के बीच अपनापन की भावना पर आधारित रिश्ता तैयार किया है. वे कहते हैं, ‘अब ऐसे बच्चों को लगता है कि यह स्कूल उनका घर-परिवार है. यहां के शिक्षक और दूसरे बच्चे उनके सुख-दुख के साथी हैं. इसलिए, इनमें से कई बच्चे अब स्कूल से महीनों गायब नहीं रहते. इसके अलावा, स्कूल में इन बच्चों के साथ होने वाले झगड़े भी लगभग बंद हो गए हैं.’


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बच्चों का स्कूल के प्रति आकर्षण बढ़े, इसके लिए उनके मन की बातों को समझना बहुत जरूरी था. इस बारे में शिक्षिका आशा खेत्रे बताती हैं कि पलायन करने वाले ज्यादातर बच्चों में स्कूल नहीं आने का कारण उनके मन में बैठी हीनभावना थी. ऐसे बच्चों को लगता था कि वे दूसरे बच्चों से पढ़ाई में पीछे हैं. फिर, ऐसे बच्चों में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता की भी कमी थी. इसलिए, कई बार अपनी कक्षा के बाकी बच्चों से उनके झगड़े हो जाते थे.

ऐसी स्थिति में स्कूल के शिक्षक-शिक्षिकाओं ने मूल्यवर्धन के सत्रों में ‘मित्रता’ और ‘स्वच्छता’ से संबंधित गतिविधियों पर जोर दिया. इसके अलावा, इस दौरान शिक्षक-शिक्षिकाओं ने अपनी-अपनी कक्षा के सभी बच्चों से आपस में एक-दूसरे को जानने से जुड़ी गतिविधियां भी कराईं.

मिटने लगीं दूरियां

शिक्षिका कावेरी जाधव बताती हैं कि विशेष तौर से सहयोगी खेलों में बच्चे जब एक-दूसरे की मदद से आपस में खेलने लगे तो उनके बीच की दूरियां मिटने लगीं. साथ ही, मूल्यवर्धन में सभी बच्चों को बोलने के लिए बढ़ावा दिया जाता है. इससे सभी बच्चे सबके साथ गाना गाने और नाचने लगे.

मूल्यवर्धन के सत्रों का दूसरा फायदा ऐसे बच्चों का शिक्षक-शिक्षिकाओं के साथ बढ़ते लगाव के रूप में देखा जा सकता है. शिक्षिका शोभा भानुसे कहती हैं, ‘कई बार जब हम बच्चों की शर्ट में बटन टूटे देखते हैं तो सुई धागे से उनकी शर्ट में नई बटन लगा देते हैं. अब वे अक्सर हमारे साथ खाना खाते हैं और नजदीक आकर हमसे बात करते हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि बहुत सारे बच्चे अच्छी तरह से पढ़ने लगे हैं. इसलिए, वे पढ़ाई का महत्त्व भी समझ रहे हैं.’

कक्षा पांचवीं की मनीषा गायकवाड़ बताती है कि सर (प्रधानाध्यापक) दिवाली का त्यौहार उनके साथ उनके घर पर मनाते हैं. वे कहती है कि जब कोई बच्चा बीमार होता है तो सर कुछ बच्चों के साथ बीमार बच्चे के घर जाते हैं, उसे फूल देते हैं और कहते हैं कि ठीक होने पर स्कूल आना.

स्कूल के प्रति टूटी धारणा

विष्णु बताते हैं कि जब उन्होंने भील समुदाय के कुछ परिवारों से चर्चा की और उनके बच्चों को स्कूल भेजने पर जोर दिया तो शुरुआत में बात नहीं बनी.

विष्णु के मुताबिक, ‘भील समुदाय के परिवारों का मानना था कि पढ़ने से नौकरी नहीं मिलती, इसलिए स्कूल जाने का कोई मतलब नहीं. फिर ऐसे परिवारों की आर्थिक हालत भी खराब रहती है, इसलिए उन्हें लगता था कि उनके बच्चे जल्दी मजदूरी सीखकर उनकी मदद करें.’


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विष्णु स्कूल के प्रति ऐसे परिवारों की धारणाओं को तोड़ना चाहते थे. इसलिए, वे शिक्षा का महत्त्व समझाने के लिए बार-बार ऐसे परिवारों के घर गए. उन्होंने स्कूल परिसर में इस समस्या पर भील समुदाय के व्यक्तियों और गांव के प्रतिष्ठित लोगों के बीच एक बैठक भी आयोजित की. इस दौरान, एक बात स्पष्ट हुई कि ऐसे परिवार अपने बच्चों के लिए पढ़ाई के काम आने वाली मामूली चीजें भी नहीं खरीद सकते. तब स्कूल के स्टॉफ ने तय किया कि वह हर महीने चंदा जमा करके हर जरुरतमंद बच्चे को आवश्यक सामग्री देगा.

इसी स्कूल के एक विद्यार्थी धनंजय के पिता रवीन्द्र गायाकवाड़ बताते हैं कि कई बार तो स्कूल के शिक्षक उनकी काम की जगहों पर आकर समझाते थे कि यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे उनका अपना कोई भी काम अच्छी तरह करें, या ठगने वाले व्यक्तियों से बचें तो पढ़ाई जरुरी है. शिक्षक समझाते थे कि यदि बच्चे रोज स्कूल आएंगे तो वे बच्चों को शराब जैसी बुरी लतों से दूर रहने की शिक्षा देंगे. वे उन्हें पैसों का हिसाब रखना और पैसों की बचत करना सिखाएंगे.

विष्णु इस तरह से बतौर प्रधानाध्यापक मूल्यवर्धन के माध्यम से गांव के आदिवासी बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ रहे हैं. उन्होंने अपने क्षेत्र में शिक्षा के बूते नौकरी पाने और प्रतिष्ठा हासिल करने वाले भील समुदाय के कुछ विशेष व्यक्तियों की सूची तैयार की और उन्हें रोल मॉडल की तरह प्रस्तुत किया. इससे भील समुदाय की नई पीढ़ी में यह उम्मीद जागी कि अच्छी शिक्षा से उनका जीवन भी बदल सकता है.

(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं.)

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