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Friday, 22 November, 2024
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खुदा हाफिज-चैप्टर 2 में इमोशन कम ‘ढिशुम-ढिशुम’ वाला एक्शन ज्यादा है

फारूक कबीर का निर्देशन इस किस्म की फिल्मों के लिए उपयुक्त है. उनसे बड़े वादे करवाना सही नहीं होगा. एक्शन और कैमरा वर्क उम्दा है.

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पिछली वाली ‘खुदा हाफिज’ करीब दो साल पहले तब आई थी जब सारे थिएटर महीनों से बंद थे और एंटरटेनमेंट के भूखे दर्शक ओटीटी. पर आ रहे हर किस्म के मसाले को चटकारे लेकर पसंद कर रहे थे. ऐसे में डिज्नी-हॉटस्टार पर आई वह फिल्म भी साधारण और औसत होने के बावजूद अच्छी-खासी पसंदगी पा गई थी. उस फिल्म में 2008 के लखनऊ में समीर और नरगिस ने खाड़ी के देश नोमान में नौकरी के लिए अर्जी डाली थी. नरगिस पहले चली गई थी और जाकर गायब हो गई थी. तब समीर ने अपनी पत्नी को ढूंढने और वापस लाने का मुश्किल काम किया था.

अब इस फिल्म में 2011 के लखनऊ में समीर और नरगिस के रिश्ते ठंडे हैं. नरगिस नोमान में हुए जुल्म को याद करके डिप्रेशन की दवाइयां खा रही है. ये लोग एक पांच साल की बच्ची को गोद ले लेते हैं जो कुछ आवारा लड़कों की बुरी हरकत का शिकार हो जाती है. अब समीर उन लड़कों को मौत के घाट उतारने निकल पड़ता है, उसके रास्ते में जो भी आता है, मारा जाता है.

हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में सीक्वेल फिल्में पहले से तय करके नहीं बनाई जातीं. अगर पहला पार्ट सही-से खिंच जाए तो उसी खांचे में, पहले इस्तेमाल किए गए तमाम फॉर्मूलों को दोहराते हुए अगला पार्ट खड़ा कर दिया जाता है. यह फिल्म भी तय लीक से नहीं हटी है.

पिछली वाली फिल्म में हीरो विद्युत जामवाल से एक्शन कम करवाया गया था और एक्टिंग ज्यादा, जो उनसे हो नहीं पाई थी. इस वाली फिल्म में उनसे दोनों चीजें भरपूर करवाई गईं. एक्टिंग उनसे इस बार भी नहीं हो पाई क्योंकि बतौर अभिनेता उनकी रेंज बेहद सीमित है. हां, एक्शन उन्होंने जम कर किया है. इन फिल्मों में वह चूंकि एक आम आदमी के किरदार में हैं इसलिए उनसे उनका जाना-पहचाना मार्शल आर्ट वाला एक्शन कराने की बजाय ढिशुम-ढिशुम वाला फिल्मी एक्शन करवाया गया है जो दर्शकों को भाता है.

जुल्म करने वाले पर किसी ताकतवर इंसान का हाथ है लेकिन जुल्म सहने वाले पर खुदा का, इसलिए वह जीतता भी है. इस किस्म की कहानियां अब साधारण हो चुकी हैं. शुरू में बेहद सुस्ती के साथ चलने वाली यह फिल्म लड़कियों के साथ हुई बदसलूकी के बाद कचोटती है और फिर एक्शन वाले फॉर्मूले को पकड़ कर गतिमान हो जाती है. विद्युत का काम यहीं अच्छा लगता है. शिवालिका ओबेरॉय बस खूबसूरत और प्यारी बन कर रह गई हैं.

शीबा चड्ढा ओवर होने के बावजूद जंचीं. दिब्येंदु भट्टाचार्य, दानिश हुसैन, रिद्धि शर्मा, इश्तियाक खान व अन्य कलाकार अच्छे रहे. राजेश तैलंग के हिस्से में कुछ अच्छे सीन व संवाद आए जिन्हें उन्होंने गहराई से अंजाम दिया. गीत-संगीत ठीक-ठाक रहा. फारूक कबीर का निर्देशन इस किस्म की फिल्मों के लिए उपयुक्त है. उनसे बड़े वादे करवाना सही नहीं होगा. एक्शन और कैमरा वर्क उम्दा है.

यह फिल्म छोटे सैंटर्स, सिंगल-स्क्रीन थिएटर्स और मारधाड़ वाली फिल्में पसंद करने वाले दर्शकों के फ्लेवर की है, उन्हें भाएगी भी.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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