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Saturday, 2 November, 2024
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1967 में मुट्ठी भर कश्मीरी पंडितो द्वारा चलाया गया ‘परमेश्वरी आंदोलन’ आज भी एक मिसाल है

जब गुलाम बख्श सत्ता में आए तो उनके शिक्षा अभियान ने चौतरफा विस्तार किया. उस कारण नौजवानों की एक नई ‘पढ़ी-लिखी’ पीढ़ी तैयार हुई, जिन्हें अब जिंदगी से उम्मीदें थीं.

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लाल-लाल सेब से गाल, भूरी आंखें, हल्के घुंघराले बाल. उसने साटन की गुलाबी फ्रॉक पहनी हुई है. वह चलती कम है और दौड़ती ज्यादा है. शीतलनाथ मंदिर में दर्शन के बाद वह अपने पापा का हाथ छुड़ाकर भागी. उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान है, जैसे मानो दुनिया जीत लेगी. उसको दौड़ता देख उसकी मां भी जैसे उसकी बलैया ले रही है और पापा, वे तो जानते ही हैं कि उनकी शीन उनके बिना और वे शीन के बिना कहीं जा ही नहीं सकते. कोई ढाई तीन साल की शीन दौड़ती हुई वह जो सामने सरोवर है न, बस वहां पहुंची ही थी कि एक पहाड़नुमा आदमी उसके आगे आकर ऐसा खड़ा हुआ कि वह अचानक आए इस रोड़े से खुद को संभाल ही नहीं पाई और लड़खड़ाकर गिर गई. अचानक उसके रोने की आवाज से सारा मंदिर प्रांगण गूंज गया.

उसके मां-बाप लपक कर उसकी ओर भागे तो सही, पर ये क्या! अब तो उनकी आंखों में ऐसा खौफ है कि जैसे भूत ही देख लिया हो. आदमकद-सा एक आदमी और सरोवर की दूसरी ओर कोई चार-पांच और. एक ने शीन को ऐसे पकड़ रखा था कि वह खुद के छुड़ाने के लिए हाथ-पैर भी नहीं मार पा रही थी. एक तरफ शीन का रोना और दूसरी ओर उन सबकी कर्कश अट्टहास. अंदर तक सब बर्फ सा ठंडा लगने लगा था. फिर एकाएक उस एक आदमकद एकदम लाल और गोरे, लेकिन वीभत्स से दिखनेवाले आदमी ने शीन को कमर तक उठा लिया और उसके मां-बाप की ओर देख बोला, “इस्लाम कबूल है?” क्या होने वाला है और क्या होगा, इसका एक पल में शीन के पिता को अंदाजा हुआ, क्योंकि यह कश्मीर है…तेज तर्राट आवाज फिर से सुनाई दी, “बोल, अल्ला-हू-अकबर!…या फिर बच्‍ची की सांसें बंद करें…?”

शीन के पिता की आंखें पत्थर हो चुकी हैं, वह हाथ जोड़े सिर्फ अपने जिगर के टुकड़े की भीख मांग रहा है. गिड़गिड़ा रहा है, पर शीन की मां को क्या हुआ? उसमें तो जैसे कोई मर्दानी जाग उठी है. उसने लगभग दहाड़कर कहा, “मेरे शिव, शीन के रक्षक हैं. उसे कुछ नहीं होगा. हमारे मां-बाप कभी तुम लोगों के आगे नहीं झुके. हम भी न झुकेंगे.” शीन रो-रोकर अब हिचकियां ले रही है और शिव तो क्या मंदिर में मौजूद 40-50 लोगों में भी कोई बचाने नहीं आ रहा. शीन के मां-बाप को जबरिया एक पेड़ से बांध दिया गया है. एक खौफनाक सन्नाटे के बीच कुछ लोग दुबके-सहमे दूर से तमाशा देख रहे हैं. शीन का पिता चिल्ला रहा था, “बचाओ, बचाओ. हमारी बेटी को बाहर निकालो. हम तुम्हारी सब बात मानेंगे. हमारी बेटी को बख्‍श दो.” आंसुओं ने उनकी आंखों को ढक लिया था. वे कुछ देख नहीं पा रहे थे. और शीन की मां बार-बार शीतलनाथ का नाम ले रही थी. उनको पुकार रही है. लगातार यह ही कह रही है कि हिंदू जन्मी हूं. हिंदू ही मरूंगी. जो चाहे कर लो. मेरे शीतलनाथ तुम्हें छोड़ेंगे नहीं.

उधर से आवाजें आ रही है कि बस ‘हां’ बोलो और अपनी बच्‍ची बचा लो. उन्होंने प्यार से, डराकर तीन-चार बार पूछा. कहा कि मांस खाओ, नमाज पड़ो और मुसलमान बन जाओ. बोलो हां? बाप गिड़गिड़ाता रहा, पर मां…उस दिन शायद मां के अंदर की चंडी हावी हो गई थी. वह बोली, “इतने सालों से हम खुशी-खुशी रह रहे हैं. आगे भी ऐसे ही होगा. तुम्हारी गीदड़-भभकी से डरेंगे नहीं. और यहां ‘शीतलनाथ’ के दर पर तुम हमें कुछ नहीं कर पाओगे.”

बस यह सुनते ही उनमें से जो सबसे छोटा था, वह तैश में आ गया. तुरंत हरकत में आकर उसने रोती हुई शीन को खींच लिया और एक चटाई में रोती हुई शीन को बांध दिया. उसकी वह हरकत देख पिता चीख पड़ा, “रहम-रहम, अपने अल्लाह से डर, नन्ही बच्‍ची को छोड़, हमारे साथ दुश्मनी है तो हमसे निकाल.” उसकी वह आवाज बस पत्थरों से टकराकर वापस गूंज रही थी…उस आवाज का उन दरिंदों पर कोई असर नहीं था…इस सबके बीच देखते-ही-देखते आवाज आई…छपाक…! और सब जैसे रुक सा गया, रोना, सांसें, हंसी, बद्दुआएं शोर, तड़प सब कुछ!

उफ्फ, कितनी घुटन, कितना पसीना, कितनी बेचारगी! झील के पानी में से बुलबुले उठ रहे थे—धीरे-धीरे. छोटे-छोटे बुलबुले. टप-टप-टप. और अचानक एक चटाई का गट्ठर सा ऊपर आ गया. बुलबुले और तेज हो गए. जैसे उस गट्ठर के भीतर ही कोई सांस ले रहा हो. सामने वे लोग बेठे थे…अपनी-अपनी पठानियों में. दाढ़ियों से ढकी एक शातिर और बेरहम हंसी चेहरे पर लिये…चिल्ला रहे थे, ‘बोतलवुज! वोतलबुज.’ पानी से बुलबुले उठ रहे थे. मां-बाप की आवाज गुम हो चुकी थी. उनके रोने की आवाज उनके गले से नहीं निकल रही थी. पर घाटी चिंघाड़ रही थी. फूट-फूटकर रो रही थी. जैसे ही चटाई में बंधा उसका शरीर ऊपर आता. वे लोग झूम जाते और खुशी से नारे लगाते…

नारा-ए-तद्बीर, अल्लाह-हू-अकबर! अल्लाह-हू-अकबर!

अपने कमरे में खिड़की के पास ही लेटा जवाहर बुरी तरह पसीने में तर हुआ जा रहा था.

वह धीरे-धीरे कुछ बुदबुदा रहा था. उसकी शक्ल बिगड़ रही थी. वह कसमसा रहा था, पर शायद इतना डर चुका था कि आंखें खोल ही नहीं पा रहा था.

“जवाहर… जवाहर…जवाहर… उठो जवाहर…!”

और एकदम से जवाहर उठा. चेहरे पर एक अजीब सी हताशा है. डर है. सांस चढ़ गई है और शरीर इस तरह कांप रहा है, जैसे जो नींद से उठा है, वह जवाहर का शरीर है ही नहीं. किसी और का है. जिसे वह चाहकर भी अपने वश में नहीं कर पा रहा. आंखें खुली हैं, मगर वह बिस्तर से उठ नहीं पा रहा.

…सामने अपने बड़े भाई रामचंद्र को देख रहा है…पर उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह कहाँ है…उसकी यह हालत देख रामचंद्र उसके पास बैठता है, उसके सर पर हाथ फेरता है…उसे शांत करता है. उसे अहसास दिलाता है कि सब ठीक है…जवाहर अब अपने पूरे होश में है.

“तुम शायद कोई बुरा सपना देख रहे थे…” रामचंद्र ने कहा. जवाहर ने मन में ही भगवान् को धन्यवाद दिया कि वह सिर्फ एक सपना देख रहा था.

“क्या चल रहा है मन में…?” रामचंद्र ने उससे पूछा. जवाहर बिस्तर से उठा. सिरहाने पड़े पानी के लोटे को उसने उठा लिया. पानी पीते-पीते जवाहर ने कहा…वही सब आजकल जो माहौल चल रहा है…रामचंद्र ने इस पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया और वह अपनी मेज पर पड़े कागज ठीक करने लगा…. उस वक्त घड़ी में रात के डेढ़ बज चुके थे…घड़ी को देख जवाहर ने रामचंद्र से पूछा कि तुम इतनी रात-रात तक क्या लिखते रहते हो…?

रामचंद्र ने एक स्माइल दिया और कहा, “वही जो आजकल हो रहा है, उसकी जड़ें कहां है, उसे ढूंढ़कर अपनी भाषा में लिखकर रख रहा हूं…” “क्यों…?” जवाहर ने पूछा. रामचंद्र ने कहा, “अब हमें नौकरियाँ मिलने से रहीं…दिन भर यहां-वहां भटकने से अच्छा यही है कि हमारा इतिहास हम ही लिखकर रख दें, क्योंकि हमारे साथ जो हो रहा है, उसके सिर्फ हम ही साक्षी हैं. आगे जाकर कोई हमें मिटा दे, उससे पहले हम पर जो बीती और बीत रही है, उसको दुनिया के सामने रखना जरूरी है, ताकि आगे चलकर कोई तो इसे समझे.”

उसके जवाब से जवाहर थोड़ा उदास हुआ. असल में, वह साल था 1967. आजादी को बस 20 साल ही हुए थे. कश्मीर अपने नए रूप में ढलने की कोशिश कर रहा था. 1965 के युद्ध से देश के साथ-साथ कश्मीर भी उभर रहा था.
आजादी के 5 साल बाद ही शेख अब्दुल्ला की भूमि सुधार नीतियों के चलते काफी लोग उनसे नाराज थे….उनकी सरकार को बहुमत नहीं होने के चलते गिरा दिया गया. अब्दुल्ला ने सदन में बहुमत साबित करने के लिए गुहार लगाई. उन्हें इसका मौका नहीं मिला. शेख अब्दुल्ला की कैबिनेट के हिस्सा रहे बख्शी गुलाम मोहम्मद को कश्मीर का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया. कुछ ही दिनों बाद शेख अब्दुल्ला को कश्मीर-साजिश के आरोप में लगभग 11 सालों के लिए जेल में डाल दिया गया. इस बात का आतंक बहुसंख्यक मुस्लिमों के मन में पनप रहा था.

जब गुलाम बख्श सत्ता में आए तो उनके शिक्षा अभियान ने चौतरफा विस्तार किया. उस कारण नौजवानों की एक नई ‘पढ़ी-लिखी’ पीढ़ी तैयार हुई, जिन्हें अब जिंदगी से उम्मीदें थीं. किंतु कश्मीर की तनावपूर्ण स्थिति तथा भौगोलिक परिवेश के कारण वहां उद्योग-धंधों का विकास नहीं हुआ. अपनी पूंजी वहां लगाने में लोग कतराते थे, इसलिए वहां कोई व्यवसाय फला-फूला नहीं. ऐसे में इन पढ़े-लिखे नौजवानों के पास अपनी नौकरियों को लेकर सिर्फ ‘सरकारी दफ्तर’ ही एक विकल्प बचा था. जहां भ्रष्टाचार तो था ही, किंतु हिंदू की हिस्सेदारी कितनी और मुस्लिम की हिस्सेदारी कितनी, इस बात का संघर्ष धार्मिक ध्रुवीकरण में बदलता नजर आ रहा था. तो जाहिर था कि कश्मीरी पंडित अल्पसंख्यक होने के कारण अपने अधिकार के लिए जी-तोड़ संघर्ष कर रहा था और उसके सामने बार-बार सरकारी आँकड़े फेंककर यह जताया जा रहा था कि जितनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, उससे अधिक तुम लोगों को दिया जा रहा है.

अगर इस बात को एक त्रयस्थ (थर्ड व्यू) नजरिए से देखा जाए तो कश्मीर की सरकार सही बात कर रही थी. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से जहां 95 फीसदी मुसलमान और 5 फीसदी गैर-मुसलमान थे, वहां सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी का आंकड़ा 70-30 का था. कागज पर यह एकदम सही और कश्मीरी पंडितों के प्रति सरकार सहृदयपूर्ण व्यवहार करती दिख रही थी, पर असल सामाजिक ताने-बाने में इसके अलग मायने, मतलब और इतिहास थे. जो पंडितों के प्रति अन्याय क्यों है, इसका जवाब देते हैं. इस अंतर्विरोध में कश्मीरी पंडित युवक फंसा हुआ था. जवाहर, लालजी, देवेंद्र, ललित और कन्हैया इसी सामाजिक स्थिति के शिकार थे…वहीं रामचंद्र, जवाहर का बड़ा भाई, नौकरी के लिए हर दफ्तर के चक्कर काट चुका था…नौकरी के लिए उससे कई जगहों पर रिश्वत माँगी गई थी…उतने पैसे तो उसके पास थे नहीं, पर उसे दिक्कत इस बात की थी कि उसकी हक की नौकरी के लिए उससे रिश्वत माँगी जा रही थी. उसका मानना था कि इसकी जड़ में कहीं-न-कहीं उसका पंडित होना काफी था!

अपने कागजों को एक फाइल में समेटकर रामचंद्र अपने बिस्तर में जाकर सो गया. पर सपने के कारण जगा जवाहर अभी भी नींद के लिए तरस गया था…काफी कोशिश के बाद भी वह सो नहीं पा रहा था. दरवाजा खोलकर बाहर चला जाए तो घरवालों की नींद खुल जाएगी, इस बात का डर था. खासकर मां की नींद…सबके घर आने के बाद ही वह सो पाती थी…क्योंकि आजकल हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे कि घर का एक भी मेंबर बाहर रहा…या उसे किसी कारण देर हुई तो माँ के मन में दस बुरे खयाल उमड़ पड़ते. उसका बी.पी. हाई हो जाता. ऐसे में सबने वक्त पर घर लौटने का नियम ही बना लिया था. अब करे तो क्या करे, इस विचार में जवाहर था कि तभी उसकी नजर रामचंद्र की फाइल पर पड़ी. फाइल का टाइटल था—‘आंदोलनों के आख्यान’. जवाहर ने फाइल उठा ली और पढ़ने लगा. उसमें लिखा था—

मैं एक मध्यम वर्गीय कश्मीरी पंडित हूं. सबसे पहले तो मैं अपने उन सारे पूर्वजों को तहेदिल से सलाम करता हूँ, जिन्होंने अल्पसंख्यक होने के बावजूद हर कदम पर बिना डरे, बिना अपना धर्म खोए, निडरता से अपने हक की लड़ाई जारी रखी. जब भी मैं कमजोर महसूस करता हूं तो उन्हीं कश्मीरी पंडितों को याद करता हूं, जो थे तो मुट्ठी भर, पर जिन्होंने अपना धर्म बदलने से साफ इनकार कर दिया और मौत को गले लगा लिया…उन्हीं की प्रेरणा से मैंने इस लेखन की शुरुआत की है…मेरा धर्म हाथ में बंदूक लेने का नहीं है, एक ब्राह्म‍ण होने के कारण मेरा धर्म है कलम…मैंने इसी धर्म का पालन करने का निश्चय किया है.

मैं अपने ताल्लुक से आज की सामाजिक स्थिति के बारे में लिखूंगा. आज इसे कोई पढ़े या न पढ़े, पर जब भी पढ़े तो मेरी कहानी समझने के लिए उन्हें कश्मीर का आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक इतिहास समझना बेहद जरूरी है. इसकी धार्मिक जड़ें मुस्लिम आक्रमणों तक जाती हैं; सामाजिक जड़ें कश्मीर जब से है, तब से जुड़ती हैं और आर्थिक जड़ें 600 सदी पीछे ले जाती हैं. पर मैं इस इतिहास का चिंतन करने या लिखने नहीं बैठा हूं…मैं जो आज 1966 में जैसा हूं…वैसा क्यों हूं, बस यह थोड़े में ही समझाना चाहता हूं.

(‘1967 कश्मीर का परमेश्‍वरी आंदोलन ’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 300₹ की है.)


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