नई दिल्ली: रविवार को रचनाकार ममता कालिया ने कहा इस आधुनिक समय में जब बाकी चीजें तोड़ती हैं ऐसे में किताबें हैं जो जोड़ने का काम करती है. यह बातें ममता ने तीन दिन चले कलिंग साहित्य महोत्सव के दौरान कहीं जिसका रविवार को आखिरी दिन था. भारतीय साहित्य और हिंदी: जोड़ती हैं किताबें- के विषय पर बात करते हुए ममता ने कहा कि ‘आधुनिक समय में जब बाकी चीजें तोड़ती हैं जैसे अर्थव्यवस्था, राजनीति, समाज की सोच- इन सबके बीच जोड़ने वाले कुछ ही तत्व बचे हैं उनमें एक हैं किताबें.’
समाज में किताबों के किरदार पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि ‘किताबें आपके साथ सिर्फ फिजिकली साथ नहीं होती हैं बल्कि वो आपकी यादों में भी होती हैं.’
वो आगे कहती हैं कि ‘जब मैंने बंगला साहित्य पढ़ा था तब उसका अनुवाद काफी खराब हुआ करता था. मैंने वो कहानियां पढ़ीं थीं. उस वक्त मुझे यह तक नहीं मालूम था कि यह बंगला कहानियां हैं. मैंने उस समय रबींद्रनाथ ठाकुर की कहानियों से प्रेम किया था. वो प्रेम अब तक चलता आ रहा है. अब वो समरेश बसु और शंख घोष तक आ गया. इसी तरह ओड़िया साहित्य में ना जाने हमने कितने लोगों को पढ़ा है. हमने प्रतिभा राय को हिंदी में पढ़ा जबकि वो उड़िया लेखक हैं.’
ममता कहती हैं ‘लेखन और किताबें, भारतीय संस्कृतिक गरिमा और महिमा को हम तक लाती हैं. वो सूचनाएं हम तक पहुंचाती हैं. हमें सुबह-शाम भात खाने से संकोच नहीं होता है क्योंकि हमने किताबों में पढ़ा है कि यहां का मुख्य भोजन भात है. आप देखिए किताबें कितना काम करती हैं. वो हमारे लिए एक पुल निर्मित करती चली जाती हैं.
वो समस्त भारतीय साहित्य को जोड़ती हैं. जब वसंत देव के नाटक खेले जाते थे तब हमें यह नहीं मालूम होता था कि वो मराठी लेखक हैं.’
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किताब का कवर
इस विषय पर चर्चा करने के लिए ममता के साथ बतौर स्पीकर लेखक धर्मेंद्र सुशांत भी शामिल थे.
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धर्मेंद्र सुशांत हिंदी के पाठकों के घटने और किताब की पैकेजिंग पर बात करते हुए कहते हैं ‘एक पुरानी कहावत है कि आदमी को उसके गुण से पहचानना चाहिए कपड़ों से नहीं. इसी तरह से अगर किताब का कवर ज्यादा आकर्षक हो और वो किताब की विषय वस्तु बताने में समर्थ हो तो एक संभावित पाठक उसकी तरफ ज्यादा आकर्षक होता है. इसीलिए किताबों के विषय और कवर के तारतम्य पर विशेष ध्यान दिया जाता है.’
वो आगे कहते हैं कि ‘किताब किसी के लिए भावनात्मक चीज भी हो सकती है लेकिन उस पर काम करना संपादक, प्रकाशक और लेखक के लिए एक कारखाने में कार्य करने जैसा है. इसमें बहुत सारे लोगों का श्रम, प्रतिभा
मिलकर एक चीज तैयार होती है किताब की शक्ल में.आज कल किताब पर काम करते हुए हम यह देखते हैं कि इसका संभावित पाठक कौन होगा? इसके साथ ही जो बात हम उस तक पहुंचाना चाहते हैं वो कैसे पहुंचे? इसका ख्याल रखते हैं.’
धर्मेंद्र बताते हैं कि ‘पहले भी किताबों के कवर आकर्षक होते थे जिन्हें कलाकार बनाया करते थे. उनका तरीका पारंपरिक था. अब हमारे पास तकनीकी सुविधाएं और कलाकार भी हैं. कवर तैयार करते समय किताब के परिचय के बारे में बहुत थोड़े शब्दों में बहुत ज्यादा बता दिया जाता है. यह सब उसके तकनीकी पक्ष हैं. इन सबके बारे में बड़ी बारीकी से ध्यान रखा जाता है.’
हिंदी को अच्छे अनुवादक क्यों नहीं मिलते
अपनी चिंता को जाहिर करते हुए ममता कहती है कि ‘मैं यह मानती हूं कि हिंदी का यह दुर्भाग्य है कि उसके पास अच्छे अनुवादक नहीं हैं. मैंने उड़िया की बहुत अच्छी कहानियां हिंदी में पढ़ी हैं लेकिन हिंदी की कितनी कहानियां उड़िया या अन्य भाषाओं में गईं इसपर भी सवाल उठता है. जब भी नोबेल प्राइज़ की घोषणा होती है तो मुझे लगता है कि इससे बेहतर तो हिंदी में लिखा जा रहा है लेकिन वहां तक पहुंच उन भाषाओं की है जिनके पास अनुवादक अच्छे हैं. हमें भारतीय साहित्य के लिए सबसे पहले अच्छे अनुवादक तलाशने होंगे.’
धर्मेंद्र ममता की बात से सहमत होते हुए कहते हैं ‘बिल्कुल हमारे पास अनुवादकों की कमी है क्योंकि हमारे देश,समाज ऐसा है. बहुत सारी भाषाएं और संस्कृतियां हैं. इसके लिए जितना चाहिए वो बहुत कम है. हजार-हजार अपवादक हों तो भी शायद कम पड़ जाएं. हमें अनुवादकों की जरूरत है.’
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इस विषय पर धर्मेंद्र और ममता के अलावा उत्पल बनर्जी और अशोक महेश्वरी भी बतौर स्पीकर शामिल थे.
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