सत्तर के दशक के शुरुआती सालों की बात है. गंगा में कटान इस बार कुछ ज़्यादा ही था. गांव के गांव हर रोज़ पीछे खिसक रहे थे. पूर्व मुख्यमंत्री दीपनारायण सिंह के साथ रामपुकार सिंह लोगों को मदद पहुंचाने में जुटे थे. कटान के कारण मिट्टी के नीचे नज़र आ रही बालू संकेत कर रही थी कि यह नदी का ही घर है.
बाढ़ से गांव बचाने के लिए लटके रहे देर तक
नदी ने रास्ता बदला तो उस छूटी हुई जगह पर गांव बस गए.अब गंगा दोबारा अपनी ज़मीन की ओर लौटी है तो गांवों में हाहाकार मचा हुआ है. ऐसा ही एक गांव था चेचर. चेचर, पटना के उस पार यानी गंगा के उत्तरी तट पर बसा था.
रामपुकार और दीपनारायण सिंह ने तय किया कि एक गाछ (पेड़) काटकर यदि कटान की जगह पर बांध कर लटका दिया जाए तो कटान रुक सकती है. पेड़ काटने की ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि बाढ़ अपने साथ पीछे से पेड़ भी बहाकर ला रही थी. गांव वालों ने पेड़ को रस्सी से बांधकर लटकाने की कोशिश की ताकि पेड़ की टहनियां और पत्ते गंगा की धारा के जोर को कुछ कम कर दें. इसी कोशिश में पेड़ के सहारे लटके रामपुकार सिंह का पैर किसी धातु से टकराया. वे कुछ देर तो उसी का सहारा लिए रहे फिर एक डाल को मज़बूती से पकड़ हाथों से उसे टटोलने लगे.
संग्रहालय में मोहरों से लेकर त्रेता युग का सामान तक
दीपनारायण सिंह ने उन्हें ऊपर से कुछ खंगालते देखा तो इस तनाव के समय भी उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई. वे जानते थे रामपुकार जी को पुरानी वस्तुएं ढूढ़ने और उन्हे संभालने का शौक है. वे अब तक कई मोहरों के साथ पॉलिशदार बर्तन के टुकड़े, टेराकोटा मूर्तियां, हेलेना की मूर्तियां, हड्डी के औजार, पत्थर के औजार, मनके और ना जाने क्या-क्या जमा कर चुके हैं.
रामपुकार सिंह ने अपना हाथ मिट्टी से बाहर खींचा तो उनके हाथ में कोई नुकीली सी धातू आ गई, पहली नज़र में उन्हें समझ ही नहीं आया कि यह क्या है. उन्होने सोचा कि बाढ़ में बहे किसी तांबे के बर्तन का टुकड़ा लगता है फिर आदतानुसार उसे संभाल कर रख लिया. रामपुकार कोई पुरातत्वेत्ता तो थे नहीं जो किसी धातु की उम्र समझ पाते लेकिन शौक पूरा था. और उनके सहित वहां मौजूद किसी शख्स को यह अंदेशा नहीं था कि उनकी ज़मीन के नीचे क्या दबा हुआ है.
पुरानी चीजों को सहेजने के जुनून से बना चेचर संग्राहलय
रामपुकार तांबे की बनी उस नुकीली वस्तु को लेकर पटना भारतीय पुरात्तव विभाग पहुंचे. तब पता लगा कि उन्होंने त्रेता युग का बाण का अगला हिस्सा (एरो हेड) खोज लिया है.पुरानी चीज़ों को सहेजने का यह जुनून कुछ इस कदर परवान चढ़ा कि देखते ही देखते चेचर संग्राहलय ने आकार ले लिया.
रामपुकार की कोशिशों पर सरकार का ध्यान गया और पुरातत्व विभाग द्वारा वहां खुदाई की गई. खुदाई में रामायण काल में महानगर होने के अवशेष मिले. साथ ही फारसी में शेरों शायरी के अंदाज़ में लिखी रामायण भी मिली. फारसी भाषा में रामायण का अनुवाद करने वाले ईरान के प्रसिद्ध शायर सादिक अली थे और यह 17वीं सदी में लिखी गई थी. वैसे रामायण का अनुवाद तो दुनिया की तकरीबन हर भाषा में किया गया है लेकिन शेरो-शायरी के अंदाज़ में यह पुस्तक निराली है. रामायण काल से लेकर फारसी अनुवाद तक की सामग्री बताती है कि इस जमीन ने तकरीबन हर कालखंड को जीया है.
आज सरकारी रिकार्ड में हाजीपुर-महनार रोड के किनारे बारह किलो मीटर क्षेत्र में फैला चेचर ग्राम समूह नवपाषाण काल की सबसे बड़ी बस्तियों में एक है. इतिहासकारों ने माना है कि चेचर ग्राम समूह में तेरह कालखंडों का इतिहास छुपा है. बेशक बाढ़ और कटाव के कारण कई पुरातत्व स्थल खो गए. लेकिन हाजीपुर के छोटे केले की इफरात फसल वाले इस इलाके से गुज़रते हुए पुरातन से साक्षात्कार का अनुभव होता है.
रामपुकार सिंह की मेहनत रंग लाई
आज यह इलाका सरकार के संरक्षण में हैं. वह एरो हेड जो अब तक संग्रहालय की एक अलमारी में यूं ही रखा था, अब सरकार के उपलब्ध कराए लॉकर में रखा हुआ है. जब तक यहां मौजूद चीज़ों की कीमत नहीं पता थी तब तक सबकुछ सामान्य से बिना सुरक्षा वाले कमरे में भी सुरक्षित था लेकिन कीमत पता चलते ही संग्रहालाय की सुरक्षा बढ़ा दी गई.
पुरातत्व प्रेमियों का ध्यान भी चेचर की ओर गया. जिन्हें वे ढूंढ़ा करते थे, वे रेड वेयर, ग्रे वेयर, पेटेन्ट ग्रे वेयर, पॉलिशदार बर्तन के टुकड़े, टेराकोटा में मूर्तियां आदि सब एक ही जगह पर मौजूद हैं. इतनी साइट मिलने और खुदाई के बाद इस इलाके को बौद्ध सर्किट से जोड़ने की मांग उठी और देश विदेश से स्कॉलर यहां आने लगे. आज 28 गांवों वाला चेचर ग्राम समूह मूल वैशाली साम्राज्य होने का दावा करता है.रामपुकार सिंह आज करीब सौ साल के होने वाले है. आंखों में रोशनी नहीं है लेकिन चमक बरकरार है.
15 किलो सोना दिया इंदिरा गांधी को
जब उन्होने पुरानी चीज़ों को सहेजने का काम शुरु किया तब देश में जेपी आंदोलन जोर पकड़ने लगा था. स्वाभाविक तौर पर वे इस आंदोलन से जुड़ गए. उन्होने जेपी के विचारों को गंगा पथ के गांवों में प्रचारित करना शुरु किया. वे गंगा किनारे भटकते पुरानी चीज़े जमा करते और आपातकाल के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए मछुआरों को प्ररित करते.
इसी तरह गंगा- गंडक के किनारे घूमते हुए उन्हें एक साथ 500 सोने के सिक्के प्राप्त हुए. इन सोने के सिक्कों का वज़न 15 किलो था. रामपुकार जी को लगा कि ये प्राचीन सिक्के देश की धरोहर हैं और अपने पास रखने से चोरी होने का डर था. उन्होने यह सिक्के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंप दिए. उनके इस कदम की देश भर में सराहना हुई. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पुरातत्व के प्रति उनके प्रेम और समर्पण की प्रशंसा की. हालांकि उनके कई साथी चाहते थे कि सोने के सिक्कों को आंदोलन में लगाया जाए यानी गाढ़े धन का उपयोग सत्ता उखाड़ने में किया जाए. लेकिन रामपुकार ने कहा, कि इससे हमारा वह उद्देश्य दूषित हो जाएगा जिसके लिए जेपी आंदोलन कर रहे हैं. खुद जेपी ने उनकी तारीफ की और देश-विदेश के अखबारों का ध्यान चेचर और उसके योगी रामपुकार की ओर गया.
उन्हे याद नहीं कि वे दसवीं पास है या फेल. लेकिन इससे फर्क भी क्या पड़ता है.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)