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Friday, 1 November, 2024
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जो ऐश कर रहे रजधानी में, नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी मे : काका हाथरसी

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एक ज़माना था कि काका हाथरसी के हास्य व्यंग से ओतप्रोत कवि सम्मेलनों में सुनने वालों की भीड़ उमड़ती थी

प्रभु लाल गर्ग जिन्हें हम और आप काका हाथरसी के नाम से जानते है, जैसे जिये वैसे ही दुनिया को अलविदा कह गए. सन 1906 की 18 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के हाथरस में पैदा हुए काका की मृत्यु भी 18 सितम्बर को 1995 में हुई.

हिंदी के व्यंगकार और कवि प्रभु लाल गर्ग ने काका हाथरसी नाम से लिखना शुरु किया. हाथरस से आए थे तो हाथरसी हो गए और काका नाम के किरदार से जिसे उन्होंने एक नाटक में खेला उन्होंने इतनी शोहरत पाई की वे सभी के काका हो गए. काका हाथरसी के हास्यरस से ओतप्रोत कविताओं ने उन्हे हरदिल अज़ीज़ बना दिया. समाज और आस पास की दुनिया पर उनके पैने व्यंग बाण लोग आज भी याद करते है.

वसन्त नाम से उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत पर तीन किताबें लिखी. और संगीत नामक भारत की एकमात्र शास्त्रीय गायन और नृत्य की पत्रिका छापी जो 78 सालों तक छपती रही.

एक ज़माना था कि काका हाथरसी के हास्य व्यंग से ओतप्रोत कवि सम्मेलनों में सुनने वालों की भीड़ उमड़ती थी और उनके अंदाज़ेबयान के कायल फैन्स की तादाद निरंतर बढ़ती रही. 1985 में उन्हे सरकार ने पद्मश्री से नवाज़ा.

गरीबी और मुफ़लिसी में बड़े हुए काका हाथरसी के चेहरे पर ग़म और शिकन कभी नज़र नहीं आया. अपने व्यंग की पैनी धार से वे राजनीति और समाज पर तीखे कटाक्ष करते थे.

काका की इच्छा थी कि उनकी मौत पर भी मातम न मने. उन्होंने ऊंट गाड़ी में अपनी अंतिम यात्रा की और उस वक्त भी कवि सम्मेलन में ठहाकों के साथ उन्हें याद किया गया.

काका हाथरसी को याद करने का सबसे अच्छा तरीका उनकी हास्य व्यंग कविताओं से हो सकता है:

जय बोलो बेइमान की

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !……

हिंदी की दुर्दशा

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य
सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य
है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-
बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा
कहँ ‘काका’, जो ऐश कर रहे रजधानी में
नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में…….

सारे जहां से अच्छा है इंडिया हमारा

सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह गड़ेरिया हमारा

सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका
तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका
इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा.

हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा…….

कुछ प्रमुख हास्य दोहे :

अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज

अंतरपट में खोजिए, छिपा हुआ है खोट,
मिल जाएगी आपको, बिल्कुल सत्य रिपोट

अंदर काला हृदय है, ऊपर गोरा मुक्ख,
ऐसे लोगों को मिले, परनिंदा में सुक्ख

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