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मंगलवार, 3 जून, 2025
होमसमाज-संस्कृतिक्या ग़ज़ल सिर्फ मर्दों की नज़र से औरत की तस्वीर है?

क्या ग़ज़ल सिर्फ मर्दों की नज़र से औरत की तस्वीर है?

शायद इसीलिए जब भी नशिस्त में कोई ज़टल पढ़ी जाती है, कोई गन्दा लतीफ़ा सुनाया जाता है, किसी लड़की के जिस्मानी रिश्तों का ज़िक्र निकल पड़ता है तो दोस्त-अहबाब कितने ख़ुश हो जाते हैं, उनके चेहरों पर कैसी ताज़गी फूट पड़ती है.

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उसे याद आया कि उसने जमील जालिबी के एक मज़मून में पढ़ा था, उन्होंने एक क़िस्सा लिखा था, जिसमें एक शायर ने जब स्टेज पर सरापा हसरत होकर ये शेर पढ़ा—

तुम्हारी दीद से हसरत हमारी नाज़नीं निकली,
मगर जैसी निकलनी चाहिए वैसी नहीं निकली.

तो एक लड़की ने मुशायरे में खड़े होकर पूछ लिया, हज़रत ये तो बताइए कि इसमें नाज़नीन का क्या क़ुसूर है…

‘ग़ज़ल की दुनिया में भी सब कुछ एकतरफ़ा है. शायर भी, उसका इज़हार-ए-मोहब्बत भी, उसके इशारे भी, उसका फ़न भी. देखा जाए तो ग़ज़ल का शायर पूरी ज़िन्दगी एक धोखे, एक वहम का शिकार रहता है. क्या मैं ख़ुद भी इसी वहम का शिकार हूं? क्या मैं भी अपनी ही तरफ़ से ख़्वाब देखे जा रहा हूं, अपनी ही तरफ़ से ऊटपटांग तारीफ़ें किये जा रहा हूं? किसी के होंठ अच्छे हैं तो क्या हमें उसकी नुमाइश लगाने की इजाज़त मिल जाती है? किसी के बाल अच्छे हैं तो क्या उनके साए पर हमारा कोई कॉपीराइट हो जाता है? क्या ग़ज़ल ने हमें औरत को देखने का कोई दूसरा तरीक़ा बताया ही नहीं? या फिर ये पूरा समाज ही औरत को इसी तरह देखता है, जिस तरह ग़ज़ल देखती है. ग़ज़ल भी तो इसी समाज का हिस्सा है, वो इसीलिए तो इस समाज में इतनी मक़बूल है.

क्यों एक पुर-मानी नज़्म, गहरे मसाइल-ओ-मुआमलात से लबरेज़ ग़ज़ल की मक़बूलियत के आगे इतनी फीकी पड़ जाती है, क्योंकि ग़ज़ल पढ़ते वक़्त शायर तमाम सुननेवालों को औरत से अपने रिश्ते और तसव्वुर के हिसार में ले आता है, पूरा मजमा वाह-वा की सदा से गूंज उठता है. सबकी निगाह में बहुत-सी औरतों के साए रोशन हो उठते हैं. तो क्या ग़ज़ल एक सभ्य मुट्ठमारी के अलावा और कुछ नहीं है? एक गिरोह की मुट्ठमारी, एक क़ौम की मुट्ठमारी? और ये कैसा समाज है, जिसमें मुट्ठमारी का हक़ भी सिर्फ़ मर्दों को है? क्या उसने किसी औरत की ऐसी कोई ग़ज़ल पढ़ी है, जिसमें मर्द के सुडौल बाज़ुओं, शफ़्फ़ाफ़ सीने या नाफ़ की लकीर का ज़िक्र होता? नहीं पढ़ी और शायद कभी पढ़ेगा भी नहीं, क्योंकि ग़ज़ल में शायर औरतों से बात करता है, औरतों पर बात करता है.

जो विधा औरत के लिए बनाई ही नहीं गई, उसमें औरत लिखेगी भी तो मर्द के चबाए हुए और थूके हुए निवालों पर ही उसे गुज़ारा करना पड़ेगा. शायद इसीलिए जब भी नशिस्त में कोई ज़टल पढ़ी जाती है, कोई गन्दा लतीफ़ा सुनाया जाता है, किसी लड़की के जिस्मानी रिश्तों का ज़िक्र निकल पड़ता है तो दोस्त-अहबाब कितने ख़ुश हो जाते हैं, उनके चेहरों पर कैसी ताज़गी फूट पड़ती है, उनके दरमियान कैसे गन्दे इशारे होते हैं, जैसे इन सब ग़ज़ल-गो शायरों की ज़िन्दगी औरत की योनि के आसपास चक्कर लगाते हुए बीत जानी है, उसी तरह जैसे ज़मीन सूरज के गिर्द चक्कर लगाती रहती है, लगाती रहती है.”

वो इन्हीं सब बातों पर ग़ौर करता रहा. उसने फ़ैसला किया कि वो शहनाज़ से जब भी इज़हार-ए-मोहब्बत करेगा, उसे जब भी दिल की बात बताएगा तो उसे किसी ग़ज़ल में लपेटकर नहीं कहेगा. ‘क्या पता तनवीर ये ग़ज़ल किस लड़की के लिए ठीक करवाकर ले गया है, शायद वो यूं ही लिखवाकर ले गया हो, उसे नसीम की अम्मा फ़ुर्सत ही कब लेने देती हैं. ज़रूर वो अगली नशिस्त में शामिल होने की ग़रज़ से ही ये सब लिख रहा है. अच्छी बात ये है कि वो ख़ुद कोशिश करता है, वरना कितने ही ऐसे शायर और शायरात नजीब ने इस छोटे से दौर में देखे हैं, जिन्होंने उससे ग़ज़लें-नज़्में लिखवाई हैं. नसीम तो फिर भी इस फ़ायदे से दूर है, मगर ताइर अमरोहवी…उसके लिए नजीब ने नई फ़िल्म के जो गाने लिखे थे वो तो अब सुपरहिट हो चुके हैं.

ये कैसी दुनिया है? जहां क्षमताओं का कोई मोल नहीं…सुना है ताइर अगले महीने अंधेरी जा रहा है, वो अब यहां नहीं रहना चाहता. उसने नजीब को तीन गानों के तीन सौ रुपये दिये थे…और ख़ुद उसने कितने रुपये कमाए होंगे…तीस हज़ार? तीन लाख? या फिर वो आगे कितने रुपये कमाएगा? वो अंधेरी जाने के बाद क्या करेगा? ज़रूर उसे किराए पर गाने लिखने के लिए लोग मिल जाएंगे. एक बार उसका नाम जम गया तो उसे नग़्मे लिखवाने के लिए कई लोगों की ज़रूरत पड़ेगी, ऐसे लोग जो ख़ुद नग़्मा-निगारी के शौक़ में मुम्बई में एड़ियां चटकाते-चटकाते बूढ़े हो गए हैं या फिर नजीब जैसे लड़के, जिनको मेहनत से डर लगता है, जिनका लोकल ट्रेन के डिब्बे में भीड़ की ज़्यादती से दम घुटने लगता है, जिन्हें बड़े-बड़े दफ़्तरों, बंगलों के बाहर हाथ में फ़ुलस्केप की फ़ाइल लिये घंटों तक खड़े रहने के ख़याल से ही चक्कर आता है.

कल जब ताइर अमरोहवी, जावेद अख़्तर और गुलज़ार की तरह एक कामयाब नग़्मा-निगार कहलाएगा तो क्या कोई पूछेगा कि उसकी शोहरत के पीछे कितनी नाकाम मेहनतों का पसीना है? उसके घर में उगने वाले दौलत के दरख़्त की जड़ें कितने भूखे पेटों की सौ-पचास रुपये की ज़रूरतों से जुड़ी हुई हैं?

‘सब कुछ झूठ है, ग़ज़ल की तरह ये सारी शोहरत, ये सारी दौलत, ये सारी इज़्ज़त…सब पर एक ग़िलाफ़ चढ़ा हुआ है. सृजना अपने बल पर जितना बो नहीं सकती, दौलत उससे कई गुना एक लम्हे में काट सकती है. क्या इस शहर में सिर्फ़ शायर ही नक़ली हैं? क्या उन्हीं के चेहरों पर नक़ाब है? या डाक्टरों, वकीलों, प्रोफ़ेसरों की डिग्रियां, बनिए के सामान और नेताओं के भाषण सभी में किसी न किसी नक़ली चीज़ की मिलावट मौजूद है?’

नजीब ये सब कुछ सोच रहा था कि उसे ख़बर मिली कि बाहर नासिर यलग़ार आया है. नासिर यलग़ार का नाम सुनकर वो जल्दी से उठा और बाहर की तरफ़ लपका. ये शख़्स बहुत दिनों बाद आया था, और उसकी बातें और बोलने का अन्दाज़ इतना दिलचस्प था कि सिर्फ़ नजीब ही क्या, सभी घरवाले उसके गिर्द घेरा बनाकर बैठ जाया करते थे.

(नया नगर उपन्यास के लेखक तसनीफ़ हैदर हैं. इस किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. किताब का यह अंश प्रकाशन की अनुमति से छापा जा रहा है.)

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