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Thursday, 13 June, 2024
होमसमाज-संस्कृति‘सच्चाई कैसे सामने आएगी?’ — बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप पर उर्दू प्रेस

‘सच्चाई कैसे सामने आएगी?’ — बंगाल के राज्यपाल के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप पर उर्दू प्रेस

पेश है दिप्रिंट का राउंड-अप कि कैसे उर्दू मीडिया ने पिछले हफ्ते के दौरान विभिन्न समाचार संबंधी घटनाओं को कवर किया और उनमें से कुछ ने इसके बारे में किस तरह का संपादकीय रुख अपनाया.

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नई दिल्ली: इस हफ्ते उर्दू प्रेस में चुनाव सुर्खियों में रहा, लेकिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप को भी महत्वपूर्ण कवरेज मिली. प्रमुख उर्दू अखबार रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय में सवाल उठाया गया कि क्या मामले में निष्पक्ष जांच संभव है.

इस महीने की शुरुआत में पश्चिम बंगाल राजभवन में अस्थायी स्टाफ सदस्य होने का दावा करने वाली एक महिला ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्व नेता बोस पर उनके साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगाते हुए राज्य पुलिस से संपर्क किया था.

बोस के कार्यालय ने इस आरोप को “मनगढंत कहानी” कहा है.

इस बात पर टिप्पणी करते हुए कि फरवरी में पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में कथित यौन उत्पीड़न के मामलों को भाजपा ने कैसे “उछाला” था, सहारा संपादकीय ने सवाल किया कि बोस के खिलाफ आरोप से कैसे निपटा जाएगा, यह देखते हुए कि संविधान सेवारत राज्यपालों को छूट प्रदान करता है.

संविधान का अनुच्छेद-361 राज्यपाल को पद पर बने रहने तक किसी भी आपराधिक कार्यवाही से छूट प्रदान करता है.

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संपादकीय में पूछा गया, “शिकायत का समाधान कैसे किया जाएगा, सच्चाई कैसे सामने आएगी और यह कैसे दिखाया जाएगा कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है? कानून के तहत सभी नागरिकों को समान न्याय कैसे मिलेगा? संविधान द्वारा प्रदत्त सुरक्षा का क्या हुआ?”

इसके अलावा, संपादकीय में भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा मतदान प्रतिशत डेटा जारी करने में देरी और नफरत भरे भाषणों को लेकर चिंता पर भी सवाल उठाए गए.

दिप्रिंट आपके लिए इस हफ्ते उर्दू प्रेस में पहले पन्ने पर सुर्खियां बटोरने और संपादकीय में शामिल सभी खबरों का एक राउंड-अप लेकर आया है.


यह भी पढ़ें: लोकसभा चुनाव में कम मतदान से उर्दू प्रेस चिंतित, कहा- ‘इससे कमजोर होती हैं लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं’


चुनाव

तीनों उर्दू अखबारों — सहारा, सियासत और इंकलाब — में चुनाव लगातार सुर्खियों में रहा, तीनों ने लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में मतदान के आंकड़ों को जारी करने में चुनाव आयोग की देरी पर चिंता जताई.

19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान का डेटा 11 दिन बाद और 26 अप्रैल को दूसरे चरण का अंतिम डेटा चार दिन बाद दिया गया. अंतिम डेटा जारी करने में देरी के कारण चुनाव सुधार गैर-लाभकारी एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है.

9 मई को अपने संपादकीय में इंकलाब ने कहा कि डेटा जारी करने में निर्वाचन आयोग की ओर से असामान्य देरी के बारे में चिंताएं वैध थीं.

अपने 8 मई के संपादकीय में इंकलाब ने मौजूदा चुनाव में घटते मतदान प्रतिशत के कारणों पर बहस की.

‘जवाब कहां हैं?’ — शीर्षक वाले संपादकीय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों के प्रति उत्साह की कमी का उल्लेख किया गया है और कहा गया है कि उनके बारे में बहुत सार्वजनिक बहसें बहुत कम हुई. इसमें कहा गया है, “यहां तक कि उनके कट्टर समर्थक भी प्रेरणाहीन लगते हैं. यह पहले दो चरणों में घटते मतदान प्रतिशत पर सवाल उठाता है, जो मोदी की रैलियों और मतदाता व्यस्तता के बीच एक अंतर का संकेत देता है. अंतर्निहित प्रश्न यह है: यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई?”

सहारा ने अपने 8 मई के संपादकीय में निर्वाचन आयोग के स्वतंत्र रहने की ज़रूरत पर बात की. संपादकीय में कहा गया, केवल चुनाव आयोग ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कर सकता है और इसके लिए उसे राजनीति से दूर रहना होगा.

इसमें कहा गया, “निर्वाचन आयोग देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कड़ी है. इसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए. इस बीच, राजनीतिक दलों को (चुनावों में) पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर रहना चाहिए.”

7 मई को — तीसरे चरण के मतदान का दिन — उसी अखबार ने उम्मीद जताई कि चुनाव आयोग इस चरण के लिए मतदान प्रतिशत डेटा तेज़ी से जारी करेगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मतदाताओं के मन में कोई सवाल न हो, “जैसे कि क्या इसमें कोई बदलाव होता है. मशीनों को मतदान प्रतिशत की रिपोर्ट करने में बहुत समय लगता है.”

हालांकि, उसी संपादकीय में चुनाव आयोग की प्रशंसा भी की गई, जिसमें कहा गया कि यह चुनाव कराने में अपनी उत्कृष्टता प्रदर्शित करने में “कोई कसर नहीं छोड़ता”.

लेकिन मतदाता मतदान के आंकड़ों को जारी करने में देरी उर्दू प्रेस के लिए चिंता का एकमात्र विषय नहीं है. संपादकीय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के चुनावी भाषणों को भी शामिल किया गया है.

जबकि मोदी ने यह सुनिश्चित करने की कसम खाई है कि कोई “धर्म-आधारित आरक्षण” नहीं होगा — बार-बार दावा करते हुए कि वे “दलितों, आदिवासियों और ओबीसी का आरक्षण मुसलमानों को नहीं देने देंगे” — शाह ने वादा किया है कि अगर बीजेपी सत्ता में वापस आती है तो “मुस्लिम आरक्षण को खत्म कर देंगे”.

सहारा के 6 मई के पत्र में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि कैसे राजनीतिक दल चुनाव आयोग के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद ऐसे भाषण देना जारी रखे हुए हैं.

इस संपादकीय में कहा गया है कि चुनाव प्रचार के दौरान मुसलमानों को अनावश्यक रूप से निशाना बनाया जा रहा है. इस बीच, ऐसे भाषण देने वाले नेताओं को जनता से जुड़े मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं है.

इसमें कहा गया, “कोई भी इस बारे में नहीं सोच रहा है कि नफरत की ऐसी राजनीति समाज को क्या संदेश देती है.”

सियासत ने भी बढ़ते नफरत भरे भाषणों पर चिंता जताई. इस संपादकीय में कहा गया है कि गृह मंत्री ने समस्या को “एक कदम आगे” बढ़ाया जब उन्होंने कहा कि “दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण को मुसलमानों के बीच विभाजित नहीं किया जाएगा”.

वर्तमान में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे कुछ राज्य मुसलमानों को आरक्षण देते हैं. सियासत के संपादकीय के अनुसार, यह आरक्षण उनके “आर्थिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और सामाजिक पिछड़ेपन” पर आधारित है.

संपादकीय में कहा गया, “(इन भाषणों का) मुख्य उद्देश्य समाज में नफरत फैलाना है. इसी तरह अब यह दावा किया जा रहा है (कुछ वर्गों द्वारा) कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है, तो एक मुस्लिम सरकार स्थापित की जाएगी. ये बीजेपी का काम है. यह (पार्टी की) चिंता का नतीजा है, जो जनता के विरोध के डर से पैदा हुई है.”

इस बीच, सियासत के 10 मई के संपादकीय में उस पत्र पर प्रकाश डाला गया, जो सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर, दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाह और वरिष्ठ पत्रकार एन.राम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लिखा है. पत्र में दोनों नेताओं को सार्वजनिक बहस के लिए आमंत्रित किया गया है.

सियासत के संपादकीय में मीडिया के प्रति दोनों नेताओं के रवैये की तुलना की गई है.

संपादकीय में कहा गया है, “पिछले 10 वर्षों में एक भी उदाहरण नहीं है जब प्रधानमंत्री ने मीडिया को बातचीत में शामिल किया हो. हालांकि उन्होंने कुछ (भाजपा) कार्यकर्ताओं के सवालों का जवाब दिया है कि क्या वे आम आदमी का खाना खाते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी जनता की चिंताओं का जवाब नहीं दिया है.”

दूसरी ओर, राहुल अक्सर मीडिया से बातचीत करते हैं, अक्सर प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग लेते हैं और मीडिया के सवालों को संबोधित करते हैं.

अंबानी और अडाणी पर मोदी की टिप्पणी

10 मई को अपने संपादकीय में सहारा रोज़नामा ने राहुल गांधी को मुकेश अंबानी और गौतम अडाणी के साथ जोड़ने वाली मोदी की टिप्पणियों की आलोचना की.

तेलंगाना के वेमुलावाड़ा में एक चुनावी सभा में अपने भाषण में मोदी ने दावा किया कि कांग्रेस नेता ने “संभावित गुप्त समझौते” के कारण लोकसभा चुनाव से पहले अंबानी और अडाणी की आलोचना करना बंद कर दिया था.

संपादकीय में कहा गया है कि मोदी के उन दो उद्योगपतियों का नाम लेने के कृत्य ने — जो अतीत में अक्सर खुद से जुड़े रहे हैं — “जनता को भ्रमित कर दिया है”.

संपादकीय में कहा गया, “उन्हें समझ नहीं आ रहा कि प्रधानमंत्री किस पक्ष में हैं. क्या वे राहुल गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं? या क्या उन्हें अपने संरक्षकों के ‘आशीर्वाद’ पर संदेह है?”

इसमें कहा गया है कि राहुल गांधी ने बार-बार मोदी के अडाणी के साथ संबंधों पर सवाल उठाया है, लेकिन उन्हें हमेशा चुप्पी ही मिली है.

इसमें कहा गया है, “इसके विपरीत, वे (प्रधानमंत्री) अपने कार्यों के माध्यम से अपने रिश्ते को साबित करना जारी रखा, जबकि उनका मंत्रिमंडल उन सवालों का जवाब देने के लिए आगे आया, जो अडाणी की संपत्ति में पर्याप्त वृद्धि पर उठाए जा रहे थे.”

हरियाणा संकट

सियासत के 9 मई के संपादकीय में मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के नेतृत्व वाली राज्य की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार पर पैदा हुए राजनीतिक संकट पर चर्चा की गई.

गौरतलब है कि तीन निर्दलियों ने अपना समर्थन वापस ले लिया है, जिससे सैनी सरकार अल्पमत में आ गई है.

सियासत के संपादकीय के अनुसार, स्थिति भाजपा के लिए अनिश्चित प्रतीत होती है, जिसने मार्च में सत्ता विरोधी लहर को मात देने के लिए अपने तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को हटा दिया था.

संपादकीय में कहा गया, “मौजूदा परिस्थितियों में भाजपा (राज्य में) सत्ता बरकरार रखने के लिए विभिन्न रणनीतियों और युक्तियों का सहारा ले सकती है, भले ही इसका मतलब लोकतंत्र की सीमाओं को बढ़ाना हो. भाजपा लोकतंत्र पर सत्ता को प्राथमिकता देती है और (इसके लिए) किसी भी हद तक जाने को तैयार है.”

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(उर्दूस्कोप को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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