(किताब को पेंगुइन स्वदेश ने छापा है जिसका अंश प्रकाशन की अनुमति से छापा जा रहा है.)
बिना ब्लाउज़ की साड़ी
बात 1860 के दशक की है. कोलकाता की वामाबोधिनी पत्रिका में एक विज्ञापन छपा. बताया जाता है कि विज्ञापन और भी कई अखबारों में छपा. इसमें बताया गया था कि आधुनिक महिला के साड़ी पहनने का तरीका क्या है. आधुनिक महिला ब्लाउज़, शमीज़, पेटीकोट, ब्रोच और जूतों के साथ साड़ी पहनती है. सर्दियों में जैकेट लेती है, बालों में पिन लगाती है. जिस किसी महिला को इस तरह साड़ी पहननी हो, उसे साड़ी पहनना सिखाया जाएगा और ये पेटीकोट, ब्लाउज़ वगैरह भी दिलवाए जाएंगे. विज्ञापन देने वाली महिला का छद्म नाम छापा गया था, लेकिन कुछ ही समय बाद ज्ञानदानंदनी देवी टैगोर के पास औरतों की लाइन लग गई, जिन्हें ब्लाउज़ और पेटीकोट के साथ साड़ी पहनना सीखना था.
यह विज्ञापन रबींद्रनाथ की भाभी ज्ञानदा यानी ज्ञानदानंदिनी देवी टैगोर ने ही दिया था. उनके पति और भारत के पहले आईसीएस सत्येंद्रनाथ टैगोर को इससे कोई समस्या नहीं थी. हां, ससुर देबेंद्रनाथ को थी. ठाकुरबाड़ी के दो अहम सदस्य ज्योतिंद्रनाथ और रबींद्रनाथ भी भाभी के मुरीद थे. ज्ञानदा ने उसी समय कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा कि हर बंगाली लड़की ऐसे ही साड़ी पहनेंगी, लेकिन ज्ञानदा का अंदाज़ा थोड़ा गलत निकला उनका साड़ी पहनने का तरीका बंगाल की सीमाओं से बहुत आगे निकल गया.
उनके साड़ी पहनने के तरीके में थोड़े बहुत बदलाव हुए और आज तक भारत की ज़्यादातर महिलाएं ‘नीव ड्रेप’ वाली साड़ी पहन रही हैं. पारसी गारे और साड़ी पहनने के कुछ दूसरे ढंग को मिलाकर ज्ञानदा ने जो तरीका बनाया उसमें ब्लाउज़ था, पेटी कोट था सामने प्लेट्स थीं और पल्ला बाईं ओर लिया जाता था, ताकि दायां हाथ खाली रहे. आज भी साड़ी पहनने का यही तरीका चल रहा है. मज़ेदार बात यह है कि उस समय इसे परंपराओं के विरुद्ध, अश्लील, खराब और न जाने क्या-क्या कहा गया.
लगभग डेढ़ सौ साल बाद वही तरीका संस्कृति है और अन्य चीज़ें अश्लील हैं. आपको अगर अब भी यकीन न हो तो कभी रबींद्रनाथ का उपन्यास चोखेर बाली (आंख की किरकिरी) पढ़कर देखिए. पढ़ने का समय न मिले तो इसी नाम से बनी ऐश्वर्या राय, प्रस्नजीत और राम्या सेन वाली फिल्म देख लीजिएगा. फिल्म में एक सीन है जहां विधवा विनोदिनी (ऐश्वर्या राय) ब्लाउज़ पहनती हैं और घर की सारी औरतों को ऐसे सांप सूंघ जाता है कि जैसे आज की तारीख में किसी को टॉपलेस घूमते देखकर सूंघ जाए.
वैसे त्रावणकोर के स्वतंत्रता सेनानी सी केसवन ने अपने संस्मरणों में भी इस तरह की एक घटना का ज़िक्र किया है. केसवन ने लिखा है कि उनकी सास को अपनी जवानी के दिनों में एक ब्लाउज़ तोहफे में मिला. पति चाहते थे कि बीवी ब्लाउज़ पहनकर दिखाए. मां ने मना कर दिया. बंद कमरे में पति के सामने ब्लाउज़ पहनकर दिखाया और वे ब्लाउज़ पहने-पहने ही सो गईं. सुबह उठकर कमरे से बाहर निकलीं तो याद ही नहीं रहा कि कोई प्रतिबंधित चीज़ पहन रखीं है. लड़की की मां ने देखा तो नारियल का डंडा उठाया और बेटी को मारने दौड़ीं कि अब इस घर में ये दिन आ गए हैं कि लड़िकियां लड़कों की तरह कमीज़ पहनकर घर में घूमेंगी. पूरे दृश्य की कल्पना करिए और सोचिए कि जिन परंपराओं और संस्कृति को हम सदियों से एक जैसा मानते हैं, उसमें शताब्दी भर के अंदर कितना परिवर्तन आ जाता है.
ज्ञानदानंदिनी को ब्रह्मिका साड़ी लोकप्रिय बनाने का क्रेडिट तो दिया ही जाता है, लेकिन उन्होंने ऐसा बहुत कुछ किया जिस पर आज के आधुनिक भारतीय मध्यमवर्ग के चाल-चलन की नींव रखी हुई है. कोई भी सामान्य शहरी-अर्धशहरी मध्यमवर्गीय परिवार जिन चीज़ों पर प्रोग्रेसिव बनता है उनमें से ज़्यादातर ज्ञानदा की ही देन है. हां, ज्ञानदानंदिनी की तारीफ़ करने और उनके योगदान गिनाने में उनके पति सत्येंद्रनाथ को भूलना अन्याय होगा. दोनों की शादी 1857 (कुछ जगहों पर 1859 भी मिलता है) में हुई थी और दोनों ने कई क्रांतियां कीं. ज्ञानदानंदिनी के लिए सत्येंद्रनाथ ने रास्ता तैयार किया और यह पक्का किया कि सिर्फ उनकी पत्नी ही नहीं, दूसरी तमाम महिलाएं भी उस पर चल सकें. खुद सत्येंद्रनाथ को इसके लिए कितने पापड़ बेलने पड़े, ज़रा सुनिए.
करीब 15-16 साल के सत्येंद्रनाथ जब कॉलेज में पढ़ते थे तब उनकी शादी 7 साल की ज्ञानदानंदिनी से करवा दी गई. सत्येंद्रनाथ का सिलेक्शन आईसीएस में हुआ. सत्येंद्रनाथ टैगोर देश के पहले भारतीय आईसीएस बनने के लिए लंदन चले गए. टैगोर परिवार के दूसरे बेटे को लंदन जाकर पता चला कि दुनिया तो बहुत आगे निकल चुकी है बॉस. हम और हमारा परिवार अब भी मध्य युग में जी रहे हैं. उस समय माना जाता था कि अच्छे घर की महिलाओं को असूर्यमस्पर्श होना चाहिए. साथ ही, साक्षर लड़की आगे चलकर विधवा हो जाती है. सत्येंद्रनाथ के पिता महर्षि देबेंद्रनाथ इतने प्रगतिशील तो हो गए थे कि घर की लड़कियों को पढ़ाने लगे थे, लेकिन असूर्यमस्पर्श वाला कीड़ा परिवार में बाकी था.
अचानक से घनघोर प्रगतिशीलता की क्रांति में खोए सत्येंद्रनाथ ने सीधे अपने पिता को खत भेजा कि उनकी बीवी को लंदन भेज दें, साथ ही, यह भी कहा कि जब तक वह बड़ी नहीं हो जाएगी, उन दोनों में पति-पत्नी के संबंध नहीं बनेंगे. अब ज़ाहिर सी बात है कि देबेंद्रनाथ ने सोचा होगा कि ये आजकल के लड़के भी न जाने क्या-क्या करते रहते हैं. देबेंद्रबाबू ने बहू को लंदन तो नहीं भेजा, लेकिन नाक तक घूंघट करवा कर घर में ही पढ़ाई करवाने लगे. हालांकि, कुछ समय बाद ठाकुरबाड़ी की लड़कियों और बहुओं का स्कूल जाना और पढ़ना सामान्य बात बन गई. इसका एक कारण देबेंद्रनाथ का ब्रह्म धर्म की सभाओं में महिलाओं को शामिल करना था, लेकिन एक बात जान लें कि उस दौर में ब्रह्मसमाज की हर महिला पढ़ी-लिखी रही हो, ऐसा ज़रूरी नहीं था.
पिता से कुछ खास मदद नहीं मिली तो तरफ सत्येंद्रनाथ ने अपनी पत्नी को खत लिखना शुरू किया और कहा कि तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें आज़ाद होना चाहिए, तुम्हें अपने आप सोचना चाहिए कि तुम्हें क्या पहनना है, क्या करना है. अब ज्ञानदा को उस कच्ची उम्र में यह फेसबुक पोस्ट टाइप खत कुछ खास समझ आए या नहीं आए हमें नहीं पता, लेकिन इससे उनकी सास का माथा फिर गया. हर सास की तरह उन्हें भी लगा कि लड़की ने पढ़ाई-लिखाई करते ही मेरे बेटे को चला लिया है. उन्होंने ज्ञानदानंदिनी के सारे गहने लिए और अपनी दोनों बेटियों की शादी में दे दिए. देबेंद्रनाथ की अपनी मझली बहू से बहुत मौकों पर अनबन हुई, लेकिन इस बार उन्होंने अपनी पत्नी की गलती मानते हुए ज्ञानदा को हीरों का सेट बनवाकर दिया.
अच्छा, सामान्य ज्ञान के एक नंबर के प्रश्न में हम सिर्फ इतना कह देते हैं कि सत्येंद्रनाथ टैगोर भारत के पहले आईसीएस बने, लेकिन उनका अपना सफर कितना मुश्किल था. हमें इसका अंदाज़ा नहीं होता. यूपीएससी पास करना आज भी बेहद मुश्किल काम है. उस समय पर अंग्रेज़ों ने इसे भारतीय लड़कों के लिए असंभव बनाकर रखा था. उस समय आईसीएस की परीक्षा में भारतीय छात्रों को सिर्फ कहने के लिए अनुमति दी गई थी. लंदन जाकर परीक्षा देनी पड़ती, उसमें भी सारा पाठ्यक्रम अंग्रेज़ों का होता. साथ-साथ ग्रीक और लैटिन में ऐसे विषयों की परीक्षा देनी होती, जिन्हें भारत में पढ़ाया ही नहीं जाता. ये सारी चीज़ें करने के लिए अधिकतम उम्र 23 साल थी, जिसे बाद में घटाकर 19 कर दिया गया.
सत्येंद्रनाथ और मनमोहन घोष ने इस परीक्षा में शामिल होने का फैसला किया. लंदन जाकर परीक्षा दी, लेकिन सिर्फ सत्येंद्रनाथ ही सफल हुए. इसलिए, उस दौर में आईसीएस क्रैक करने वाले किसी भी भारतीय को बड़ी श्रद्धा की नज़र से देखना चाहिए. इस परीक्षा की बात चली है, तो दूसरे परीक्षार्थी के बारे में भी जान लें. मनमोहन घोष, इस परीक्षा में शामिल होने से पहले तक छात्र जीवन में ही एक अखबार ‘इंडियन मिरर’ चला रहे थे. आईसीएस की परीक्षा में दो बार असफल होने के साथ-साथ उन्हें लंदन में नस्लीय भेदभाव का सामना भी करना पड़ा. इसके बाद वे लंदन में बार में शामिल होने वाले दूसरे भारतीय वकील बने (पहले ज्ञानेंद्रनाथ टैगोर हैं, जिन्हें क्रिश्चियन लड़की से शादी करने के चलते परिवार से बाहर कर दिया गया था). मनमोहन ने इस दौरान प्रसिद्ध कवि माइकल मधुसुदन दत्त की मदद भी की. वापस आने के बाद मनमोहन घोष ने स्त्री शिक्षा पर काफी काम किया. उन्होंने अपनी पत्नी को पढ़ने भेजा और उसकी शिक्षा शुरू होने के बाद ही पारिवारिक जीवन शुरू किया. हालांकि, कोलकाता में मनमोहन घोष ने पूरे अंग्रेज़ी तौर तरीके दिखाए. खाने-पीने के सलीके भी अंग्रेज़ी रहे, यहां तक कि पत्नी भी विक्टोरियन गाउन पहनती थी. इस बीच पता चला कि घोष बाबू कोलकाता में तो अंग्रेज़ी भोजन कर रहे हैं, लेकिन लंदन में इनको मछली और चावल की याद आती थी, तो ऐसे में मनमोहन घोष को लोगों ने निशाने पर भी लिया, लेकिन कांग्रेस के संस्थापक सदस्य रहे मनमोहन घोष ने भारतीय इतिहास में पर्याप्त योगदान दिया है.
(ठाकुरबाड़ी: गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का कुटुंब वृत्तांत के लेखक अनिमेष मुखर्जी हैं.)
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