पिछले दिनों हिंदी सिनेमा के मशहूर अभिनेता और निर्देशक गुरू दत्त की 55वीं पुण्यतिथि थी. आज भी उनका ज़िक्र कागज़ के फूल, चौधवीं का चांद, प्यासा और साहिब बीबी और गुलाम जैसी यादगार फिल्मों के लिए होता है. लेकिन दिप्रिंट आज उनकी साल 1955 की सुपरहिट फिल्म, मिस्टर एंड मिसेज़ 55 को याद कर रहा है.
अनीता (मधुबाला) एक जवान लड़की है जिसके पिता की हालही में मृत्यु हुई है. उसके पिता ने एक शर्त पर अपनी बेटी के सात लाख रूपये छोड़े हैं. शर्त है- अनीता को अपने इक्कीसवें जन्मदिन के एक महीने के अंदर शादी करनी होगी. अनीता की एक नारीवादी बुआ है सीता देवी (ललिता पवार), जो अपने भाई की इस वसीयत से काफी गुस्सा हो जाती हैं.
सीता देवी तलाक बिल के लिए लड़ाई लड़ रहीं हैं (इस फिल्म का नाम भी उस साल से जुड़ा है जब हिन्दू मैरिज एक्ट पारित हुआ). सीता देवी अनीता के लिए ऐसा पती ढूंढना शुरू करती हैं जो वसीयत के पैसे मिलने के बाद तलाक देने को राज़ी हो. वह ऐसा आदमी ढूंढने में कामयाब हो जाती हैं, लेकिन वह आदमी, प्रीतम (गुरू दत्त), पहले से ही अनीता से प्यार करता है और वह भी उसे चाहने लगती है. इस चाहने और दिखावे के बीच रचती है एक ऐसी कॉमेडी जिसमें दोनों को लगता है कि दूसरा केवल पैसों के लिए यह सब कर रहा है.
जब लोग मिस्टर एंड मिसेज़ 55 की बात करते हैं, अक्सर याद करते हैं गुरू दत्त की मस्ती-भरी आंखें जो मधुबाला का हाल बुरा कर देती हैं, ओ.पी नय्यर के खूबसूरत गीत और जॉनी वॉकर की बेहतरीन कॉमेडी.
फिल्म उस ज़माने पर भी एक दिलचस्प समीक्षा है
और यह सब सच है. लेकिन यह फिल्म उस ज़माने पर भी एक दिलचस्प समीक्षा है, जब औरतों के पास शादी के अलावा एक अच्छी ज़िन्दगी के लिए कम रास्ते थे – अनीता जैसी पढ़ी-लिखी और अमीर लड़की के लिए भी. फिल्म के कुछ सीन शंका उत्पन्न करते हैं, जैसे कि जब प्रीतम अनीता को उसकी मर्ज़ी के बिना अपने घर ले जाता है, ताकि दोनों कुछ समय साथ बिता सकें –’क्यूंकि उसका अपनी बीवी पर हक़ है.’ या फिर जब प्रीतम की भाभी अनीता को पत्नी और मां होने की खुशियों पर भाषण देती है, यह कहते हुए कि पती की मार-पीट भी ठीक है क्यूंकि वह प्यार का हिस्सा है. और ‘अगर खाने के दौरान हमें चावल में कंकड़ मिले तो इसका यह मतलब तो नहीं की हम खाना ही बंद कर दें?’
महिला के अधिकार पर अजीब प्रदर्शन
शेरनी सीता देवी का किरदार मर्दों से नफरत करने वाला है. अनीता की देखभाल के लिए पैसों का इस तरह इस्तेमाल करने में उन्हें कोई बुराई नहीं दिखती. औरतों के अधिकार और हक़ के लिए लड़ने वाली किसी महिला का यह अजीब प्रदर्शन है. हम सीता देवी के महिलाओं के विकास की लड़ाई के तो साथ हैं लेकिन उनके तरकीबों के साथ नहीं हैं.
जॉनी वॉकर के कुछ सीन और उसमें बोले गए डायलॉग भी अंचभित करने वाले हैं , खासकर जब वह अपनी दफ्तर में काम करने वाली जूली से प्यार जताता है – आज हम ऐसे बर्ताव को यौन उत्पीड़न कहेंगे. जूली सीन में कहती भी है कि वह सम्पादक से उसकी इस बात की शिकायत करेंगी. लेकिन जॉनी वॉकर उसे मनाने में जुटे रहते हैं और उनकी थोड़ी और कोशिश, और एक बेहतरीन गाने के बाद, उसकी ना ‘हां’ में बदल जाती है. फिर ऑफिस में गाना होता है- जाने कहां मेरा जिगर गया जी.
किरदार और व्यवहार
लेकिन इस फिल्म के बहाने इस बात पर बहस की जा सकती है और यह भी कहा जा सकता है कि पुरानी फिल्मों को नए सामाजिक नियमों के तौर पर नहीं देखा जा सकता. और ऐसा भी नहीं है कि यह फिल्म अपने किसी भी किरदार के व्यवहार को ठीक ठहराती है. दरसल यह इस फिल्म की ख़ूबसूरती है –कि हर किरदार में कोई न कोई नुक्स है और हर एक को अपनी कुछ सोच बदलने को मजबूर करती है जिससे मुश्किलों का समाधान किया जा सकेगा.
अनीता के रूप में मधुबाला ने बहुत उम्दा काम किया है – स्कूल की लड़की की तरह वह हंसती और रूठती हैं. कोई और होती तो शायद देखने में चिढ़ होती लेकिन मधुबाला की मदमस्त अदाकारी प्यारी लगती है. उसके ठीक विपरीत गुरू दत्त का वह खामोश जादू, वह दुख-भरी मुस्कुराहट जो बिना बोले बहुत कुछ कह जाती है.
बेहतरीन बोल
और हां, बोल की अगर बात की जाए तो अबरार अल्वी के मज़ेदार और चुटकी लेते डायलॉग का ज़िक्र ज़रूरी है. इस फिल्म एक ख़ास सीन है जब सीता देवी प्रीतम से पूछती हैं ‘तुम कम्युनिस्ट हो ?’ और वह जवाब देता है ‘नहीं, कार्टूनिस्ट.’ फिल्म का यह ज़बरदस्त सीन है जो महज़ छ: शब्दों में दोनों के चरित्र को खूबसूरती से स्थापित करता है. (बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि फिल्म के कार्टून मशहूर कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण ने बनाए थे.)
मधुबाला और गुरू दत्त की कामुक्ता से भरी जोड़ी को एक हसीन गाने में सबसे खूबसूरती से फिल्माया गया है – उधर तुम हसीं. गीता दत्त और मुहम्मद रफ़ी का गाया हुआ यह गीत कहानी को बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदू से आगे की ओर बढ़ाती है. गाने में अनीता और प्रीतम के बीच बढ़ते प्यार के साथ बहुत ही खूबसूरती के साथ उनकी जिंदगी में बीते दुखों का ज़िक्र भी किया गया है. सिनेमाटोग्राफर ने इस फिल्म में धूप और छाया का भी अच्छी तरह से इस्तेमाल किया है . वैसे इस फिल्म का गीत ‘जाने कहां मेरा जिगर गया जी’ तो है ही आज के युग में भी सबका चहेता गाना, लेकिन असल में यह गाना ही इस पूरी फिल्म का दिल भी है.