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Thursday, 21 November, 2024
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बढ़िया है लेकिन और बेहतर फिल्म हो सकती थी ‘कार्तिकेय 2’

इस फिल्म में डॉक्टर हो चुका कार्तिकेय एक और बड़े रहस्य को सुलझाने निकला है. हालांकि पिछली वाली फिल्म से इसका सीधे तौर पर कोई नाता नहीं है.

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दक्षिण से डब होकर आने वाली फिल्मों का अच्छा वक्त चल रहा है. तभी तो पिछले हफ्ते चंद थिएटरों में रिलीज हुई ‘कार्तिकेय 2’ के शो एक ही सप्ताह में न सिर्फ लगभग सौ गुना बढ़ाने पड़े, बल्कि इसकी टीम भी हिंदी इलाकों में प्रचार के लिए पहुंच गई. नतीजा यह हुआ कि तेलुगू से डब होकर आई इस फिल्म को हिंदी के बाजार में भी खूब देखा जा रहा है.

नाम से ही जाहिर है कि यह फिल्म ‘कार्तिकेय’ का अगला भाग है. पिछला भाग 2014 में आया था जिसमें मेडिकल स्टूडेंट हीरो कार्तिकेय ने एक रहस्य को सुलझाया था. इस फिल्म में डॉक्टर हो चुका कार्तिकेय एक और बड़े रहस्य को सुलझाने निकला है. हालांकि पिछली वाली फिल्म से इसका सीधे तौर पर कोई नाता नहीं है.

जिज्ञासु स्वभाव का डॉक्टर कार्तिकेय अपनी मां के साथ हैदराबाद से गुजरात श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका के दर्शन को जाता है. वहां एक घायल बूढ़ा उसे कुछ पल के लिए मिलता है और गायब हो जाता है. पुलिस उसे पकड़ लेती है. कुछ लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं कि बूढ़े ने उसे क्या बताया था. बूढ़े की पोती, अपने मामा और टैंपो ड्राइवर सुलेमान के साथ कार्तिकेय उस रहस्यमयी चीज की खोज में निकल पड़ता है. वे लोग इन्हें रोकने में लगे हैं. उधर अभीर नामक समुदाय के लोग भी इनके पीछे पड़े हुए हैं. श्रीकृष्ण की डूब चुकी नगरी बेट द्वारका, गोवर्धन पर्वत, हिमाचल आदि होते हुए ये आखिर उस रहस्यमयी चीज तक जा पहुंचते हैं जो असल में श्रीकृष्ण के पांव के सोने का कड़ा है जिस पर ऐसे मंत्र लिखे हुए हैं जिनसे महामारियों को ठीक करने की दवा बन सकती है.


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यह फिल्म पौराणिक विवरणों को आज के समय से जोड़ कर एक ऐसी काल्पनिक कहानी परोसने का प्रयास करती है जिस पर यकीन कर लेने का मन होता है. फिल्म एक जगह कहती भी है कि श्रीकृष्ण को देवता बना कर हमने उन्हें मिथक मान लिया जबकि वह हमारे इतिहास का हिस्सा हैं. एक तरह से यह फिल्म कहानियों के अंधेर में हाथ-पांव मार रहे फिल्म वालों को उस उजाले की तरफ ले जाने की कोशिश करती है कि अपने पुराणों और इतिहास को खंगाल कर कहानियां तलाशी जाएं और आधुनिक समय से उनके रिश्ते जोड़े जाएं तो न अच्छी कहानियों की कमी रहेगी और न ही अच्छी फिल्मों का टोटा.

यह फिल्म बताती है कि श्रीकृष्ण एक वास्तविक मानव थे जिनके पास ज्ञान से अर्जित शक्तियां थीं. उसी ज्ञान का एक हिस्सा उनके पांव के उस कड़े पर लिखा है जिसे उनके सखा उद्धव ने कहीं सुरक्षित रख कर उस तक पहुंचने के रास्ते में बाधाएं बना दीं और उन बाधाओं से पार पाने के संकेत भी छोड़ दिए. शोधकर्ताओं का एक गुप्त समूह इस कड़े को बुरे इरादों से हासिल करना चाहता है जबकि मरते हुए घायल बूढ़े ने नेक नीयत वाले कार्तिकेय को इस काम के लिए चुना जो अपनी बुद्धि और बल का इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ता है.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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