याद करें तो ‘दिल्ली 6’, ‘क्वीन’, ‘जन्नत’, ‘द स्काई इज पिंक’, ‘पी के’, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘सात उचक्के’ जैसी कई फिल्मों में पुरानी दिल्ली की तंग गलियों को दिखाया गया लेकिन इस इलाके की कम देखी गई सच्चाई, यहां के निम्नवर्गीय किरदारों और इन गलियों के हाशिये की जिंदगी को हूबहू दिखाने का काम अपनी फिल्मों में कम ही हुआ है.
अलबत्ता ‘दिल्ली 6’ में जरूर यह सब बेहतर ढंग से था. अब अनामिका हकसर की यह फिल्म ‘घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं’ पुरानी दिल्ली की इन्हीं तंग गलियों को खंगालते हुए यहां के कुछ ऐसे किरदारों की रोजमर्रा की जिंदगी में झांकने का प्रयास करती है जिन्हें सिनेमा ने ही नहीं बल्कि समाज ने भी हाशिये पर रखा हुआ है.
देश-दुनिया के कई फिल्म समारोहों का हिस्सा रही यह फिल्म असल में बहुत सारे किरदारों के जीवन का कोलाज दिखाती है. इन किरदारों में से हर किसी की अपनी कहानी है, अपनी बेबसी. एक हवेली के बाहर कचौड़ी तलने वाले छद्दामी को वहां से हटना पड़ा क्योंकि अब वहां मॉल बनेगा. दिल्ली आने वाले सैलानियों को नफीस उर्दू में पुरानी दिल्ली की हैरिटेज वॉक करवाने वाला आकाश जैन है. शादियों में बैंड बजाने और लोगों की जेबें काटने वाला पतरू है जो एक दिन तय करता है कि वह अब टूरिस्ट को इन गलियों की असल और सच्ची जिंदगी दिखाएगा जिसे देख कर किसी एन.जी.ओ. से आई लड़कियां ‘इससे बेहतर तो हम ध्रुवीय भालू को ही बचा लें’ कह कर खिसक लेती हैं.
प्रवासी, बेघर मजदूर, भिखारी, सफाईकर्मी, नशे की लत में पड़े युवक, यहां के बाशिंदे, यहां के पुलिस वाले, दुकानदार… ऐसे तमाम लोगों के जरिए यह फिल्म दरअसल इनके सपनों को खंगालने का काम करती है. ये इनके सपने ही तो हैं जो असल में इन्हें जीवित रखे हुए हैं. न ये सपने पूरे होते हैं और न ही गायब. इनकी हालत उस घोड़े जैसी है जिसका मालिक यह कहता रहता है कि घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं… क्योंकि जलेबी खाना घोड़े का सपना है जो कभी पूरा होने से रहा, मगर इस सपने के पूरा होने की आस में घोड़ा चले जा रहा है.
अनामिका हकसर की झोली में रंगमंच का दशकों का अनुभव है. यही वजहा है कि इस फिल्म में रंगमंचीय शैली और प्रभाव ‘बुरी तरह से’ हावी रहा है. ‘बुरी तरह से’ इसलिए क्योंकि जब आप ‘सिनेमा’ बनाते हैं तो उसकी अपनी शैली, अपनी जुबान होती है. लेकिन यह फिल्म प्रयोगधर्मी होते हुए अपने भीतर सिनेमाई जुबान के साथ-साथ रंगमंचीय शैली को तो जोड़ती ही है, कहीं-कहीं डॉक्यूमैंट्री भी बन जाती है. फिर इसमें ढेर सारा ऐनिमेशन भी डाला गया है जो इसे एक अलग ही रंगत देता है. इसकी यह पैकेजिंग इसे एक अलग जगह पर ले जाकर खड़ा करती है. एक ऐसी जगह, जहां यह फिल्म अति प्रयोगधर्मी और लीक से एकदम हट कर बना हुआ सिनेमा देखने वाले दर्शकों को तो फिर भी पसंद आ सकती है लेकिन बहुसंख्य आम दर्शकों को बिल्कुल नहीं.
सिनेमाई कला को अलग नजर से देखने वालों को इस फिल्म में किसी कविता या पेंटिंग के दीदार भी हो सकते हैं. लेकिन सच यह है कि यह कविता अतुकांत है और पेंटिंग उस मॉडर्न आर्ट की तरह जो कम ही लोगों को समझ आती है. अनामिका अपनी इस पहली फिल्म को कुछ अधिक सरल, कुछ अधिक सहज रखतीं तो यह ज्यादा लोगों तक पहुंच सकती थी. ‘फेस्टिवल सिनेमा’ देखने के शौकीन दर्शक चाहें तो इस दुरूह किस्म की फिल्म को अपने करीबी थिएटरों में खोज और देख सकते हैं जिसमें उम्दा कैमरा वर्क के साथ-साथ रघुवीर यादव, लोकेश जैन और रवींद्र साहू, अरुण कालरा आदि की बढ़िया एक्टिंग भी है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)