गणेश शंकर विद्यार्थी न सिर्फ महान् स्वातंत्र्य–वीर थे, वरन् लेखन और राष्ट्र-सेवा में जिस ईमानदारी, त्याग और बलिदान की आवश्यकता होती है, वे उसकी मिसाल थे. अंग्रेज अधिकारियों एवं देशी नरेशों की निरंकुशता, शोषण एवं दमनकारी नीतियों के विरुद्ध उनकी लेखनी ने अद्वितीय जनजागरण का कार्य किया था.
निर्धनों, किसानों व मजदूरों की समस्याओं को उजागर करने तथा सामाजिक जड़ताओं, अंध-परंपराओं एवं कुरीतियों के विरुद्ध सामाजिक जागृति का उद्देश्य लिये पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का लेखन अपने आप में ही महान् है. साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीयता की अलख जगाना वे बखूबी जानते थे.
अहर्निश राष्ट्र-सेवा को समर्पित एक ऐसा व्यक्ति, जो स्वातंत्र्य–समर, समाज-सेवा, सामाजिक, राजनीतिक संगठन और पत्रकारिता में एक साथ सक्रिय रहा हो. उन सबके साथ, जिसने कोर्ट-कचहरी और जेल-जीवन का भी सहर्ष वरण किया हो, यह विलक्षण प्रतिभा, अदम्य साहस और अटूट लगन को ही दरशाता है.
26 अक्तूबर, 1890 को प्रयागराज (इलाहाबाद) के अतरसुइया मोहल्ले (ननिहाल) में जनमे विद्यार्थीजी का आरंभिक जीवन शिक्षा व धर्म ज्ञान के बीच शुरू हुआ. विद्यार्थीजी की प्रारंभिक शिक्षा विदिशा एवं साँची के सांस्कृतिक वातावरण में हुई. आगे की शिक्षा उन्होंने कानपुर और प्रयागराज में प्राप्त की. प्र
यागराज प्रवास उनके जीवन का एक ऐसा मोड़ था, जो उनके व्यक्तित्व की निर्मिति का आधार बना. ‘कर्मयोगी’ के संपादक पं. सुंदरलालजी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके प्रारंभिक गुरु बने. ‘स्वराज्य’ में भी विद्यार्थीजी की टिप्पणियां प्रकाशित होती थीं, जो उन दिनों क्रांतिकारी विचारों का संवाहक था. उन्हीं दिनों ‘सरस्वती’ के यशस्वी संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को एक युवा और उत्साही सहयोगी की आवश्यकता थी, अतः 2 नवंबर, 1911 को वे उनके सहायक संपादक नियुक्त हुए.
यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, जबकि विद्यार्थीजी पत्रकारिता के माध्यम से स्वातंत्र्य समर में भी योगदान करना चाहते थे, अतः दिसंबर 1912 में वे पं. मदनमोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से जुड़ गए. यहां भी उनका मन नहीं लगा, तब
उन्होंने कानपुर से हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन (9 नवंबर, 1913) प्रारंभ किया.
‘प्रताप’ को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. कई बार अंग्रेज सरकार द्वारा छापेमारी की गई. प्रताप प्रेस द्वारा प्रकाशित लक्ष्मण सिंह के नाटक ‘कुली प्रथा’, नानक सिंह ‘हमदम’ की क्रांतिकारी कविता ‘सौदा-ए-वतन’ जैसी रचनाएं जब्त की गईं. उन पर राजद्रोह की काररवाई हुई, हजारों रुपए का जुरमाना व जेल की सजा मिली. बावजूद इसके विद्यार्थीजी विचलित नहीं हुए.
‘प्रताप’ ऐसा पत्र था, जिसमें समाज के हर वर्ग के दुःख और उनकी तकलीफों को वाणी मिलती थी. संघर्ष करने की ताकत और अन्यायी, अत्याचारी का सशक्त प्रतिकार करने की सामर्थ्य भी. विद्यार्थीजी ने 1916 से 1919 के दौरान कानपुर में लगभग 25 हजार मजदूरों के संगठन ‘मजदूर सभा’ का नेतृत्व किया तथा उनके पत्र ‘मजदूर’ के प्रकाशन में सहयोग भी.
इसी प्रकार अवध के किसान आंदोलन को उन्होंने ‘प्रताप’ में इतनी प्रमुखता से प्रकाशित किया कि उसकी आंच इंग्लैंड तक पहुंची, जिसके कारण वहाँ की सरकार ने लंदन स्थित भारतीय सचिवालय के माध्यम से तत्कालीन वायसराय से रिपोर्ट मांगी। यहां पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि चंपारण में नील की खेती करने को विवश पीड़ित, प्रताड़ित किसानों के प्रतिनिधि राजकुमार शुक्ल की भेंट गांधीजी से विद्यार्थीजी ने ही कराई थी, फलस्वरूप चंपारण आंदोलन अस्तित्व में आया, जिसके माध्यम से भारत में सर्वप्रथम गांधीजी के नायकत्व ने उभार पाया. ‘प्रताप’ के अनेक विशोषांक भी आजादी की
लड़ाई के संवाहक बने, जिसमें ‘राष्ट्रीय अंक’ और ‘स्वराज्य अंक’ विशेष चर्चित रहे.
‘प्रताप’ का कार्यालय राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के साथ साहित्यकारों का भी केंद्र था. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्लाह खान, ठाकुर रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा तथा छैलबिहारी दीक्षित ‘कंटक’ आदि का उन्होंने समय- समय पर सहयोग और मार्गदर्शन किया. सरदार भगत सिंह अपनी फरारी के दिनों में वेश बदलकर ‘प्रताप’ कार्यालय में रहे तथा बलवंत सिंह छद्दा नाम से उन्होंने वहां कार्य किया एवं लेख लिखे.
श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से झंडा गीत की रचना कराने में विद्यार्थीजी का बहुत बड़ा योगदान है. स्वाधीनता और राष्ट्र की नवनिर्मिित के लिए उनका लेखनीय योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसकी चर्चा सामान्यतः कम होती है. उनका संस्मरण ‘जेल- जीवन की झलक’ आज के प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए, ताकि वे समझ सकें कि हमारी आजादी कितने कष्टों और बलिदानों का प्रतिफल है.
(‘रक्त का कण-कण समर्पित’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 300₹ की है.)