मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी यानी हम सबके बापू कहलाने वाले का जन्म दो अक्तूबर, 1869 को आज के गुजरात के पोरबंदर गांव में एक संस्कारी जैन परिवार में हुआ था. इसलिए वर्ष 1969 में गांधीजी की जन्मशती पूरे भारत देश में ही नहीं, अपितु विश्व के भी अनेक देशों में मनाई जा रही थी. मैं उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एस-सी. का छात्र था जैसा कि विवरण पहले आ ही चुका है.
मैं यहां गांधी जन्मशती की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करना चाहूंगा. मैं एक घटना में सहभागी था और दूसरी में साक्षी.
इस जन्मशती समारोह के सिलसिले में एक अखिल भारतीय निबंध प्रतियोगिता रखी गई थी. इस प्रतियोगिता का विषय था ‘इज गांधी आउट ऑफ डेट’. निबंध की प्रविष्टियां अंग्रेजी भाषा में होना अनिवार्य था जैसा कि मुझे स्मरण आ रहा है. उस समय तक वैसे भी मुझे पता नहीं था कि जो बात अपनी मातृभाषा में प्रभावी ढंग से कही जा सकती है, वह अन्य किसी भाषा में सहज नहीं होगा; भले ही उसमें कितनी भी दक्षता क्यों न प्राप्त कर ली जाए. इस गलतफहमी ने आई.ए.एस. की परीक्षा में निबंध के प्रश्नपत्र में पहले दो अवसर पर इतना पीछे ढकेला कि मैं अपनी योग्यतानुसार स्थान हासिल न कर सका. बाद में मैंने इस गलती को सुधारा और लाभान्वित भी हुआ. जो भी हो, मैंने अंग्रेजी भाषा में निबंध कमेटी को भेज दिया. इस प्रतियोगिता की संयोजक रायबरेली जिला कांग्रेस कमेटी थी जिसने प्रथम स्थान पाने वाले को एक लाख रुपए का पुरस्कार भी रखा था. मेरे लिए यह बड़ा आकर्षण ही नहीं, गरीबी भगाओ भी था.
मुझे गांधी के बारे में कुछ बातें पता थीं. सत्य, अहिंसा की बात तो गांधी के संदर्भ में करते ही रहते हैं. पर गांधी की कोई समझ मुझे नहीं थी. आज भी बहुत सीमित और संकुचित समझ और सोच ही है. जब 2017 में चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मनाई गई, तब अवश्य मैंने गांधी को कुछ गहराई से पढ़ा. हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड ने छत्तीसगढ़-मध्य प्रदेश सीमा पर कान्हा नेशनल पार्क से लगे कॉपर माइंस की साइट लोकेशन पर ‘चंपारण के सौ वर्ष’ विषय पर मेरा एकल संबोधन रखा था. यह मेरे मित्र कवि गीतकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र के सौजन्य से हुआ था. तब मुझे समझ में आया था कि गांधी को समझ पाना बिना गहन साधने के संभव नहीं है. फिर भी इन अनुभवों से प्रेरणा प्राप्त करने लायक परिचय तो मेरा गांधी से हो ही गया. इस प्रतियोगिता में सहभागी बनना ही मेरा पुरस्कार था.
मैं इस सबको भूल चुका था और दशहरे के अवकाश में गांव आया था कि गांधी अध्ययन केंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दो अक्तूबर, 1969 को वहां होने वाले समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रण पत्र गांधीजी की तरह पोस्टकार्ड में मिला. मैं उत्साहपूर्वक इलाहाबाद लौटा. गांव में एक तरह से तहलका ही मच गया था कि देखो, बड़े-बड़े समारोह के न्योते भैया को आने लगे हैं. मैं भी थोड़ा-बहुत मिजाज में आ गया था. मुझे आशा थी कि कुछ बड़े लोगों से परिचय होगा. पोस्ट कार्ड लेकर उत्सव स्थल पहुंचा. गिने-चुने लोग थे. बड़े प्रेम से लोग मिले. मुझे वहां आने के लिए धन्यवाद भी दिया गया. लड्डू, केला, नमकीन मिला, संभवतः कुछ भाषण भी हुए होंगे. पर वहां की संपूर्ण उत्साहहीनता ने इस समारोह को एक सिर पड़े कर्मकांड में बदल दिया था. मैंने तो बहुत लिखा था कि न सत्य, अहिंसा आउट ऑफ डेट हो सकते हैं और न ही गांधी. पर यह समारोह बता रहा था कि गांधी भले ही आउट ऑफ डेट न हों, उनकी राजनीतिक जरूरत और उपयोग भी समय-समय पर इसी तरह कर्मकांड के रूप में होता रहे, पर ‘गांधी इज नॉट इन आइदर’.
अब हम पूज्य स्वतंत्रता सेनानी अफगान एक्टिविस्ट पश्तून नेता श्री खान अब्दुल गफ्फार खान के वर्ष 1969 में गांधी जन्मशती के अवसर पर भारत सरकार के आमंत्रण पर भारत आने की चर्चा करते हैं. खान साहब को सीमांत गांधी भी कहते थे. वे उस समय के अखंड भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस के तेजस्वी कांग्रेस नेता होने और महात्मा गांधी के नक्शे-कदम पर चलनेवाले होने के कारण सीमांत गांधी कहलाते थे. वे खुदाई खिदमतगार आंदोलन अभियान के अगुआ थे. महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे संभवतः सबसे बड़े गांधीवादी अथवा यों कहें कि जीवंत गांधी थे. खान-पान में नहीं—विचारधारा, अनुशासन और अपरिग्रह में. रही बात स्वयं गांधी की, तो गांधी जैसा तो कोई था ही नहीं, हुआ भी नहीं, होगा भी नहीं.
गांधीजी के बारे में आधुनिक भौतिकी युग की क्रांति का उद्घाटन करनेवाले प्रो. अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि आनेवाली पीढ़ियाँ यह कदाचित् ही विश्वास करेंगी कि ऐसा एक हाड़-मांसवाला व्यक्ति भी कभी इस धरा पर आया था. सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान साहब अखंड भारत के हिमायती थे और भारत के विभाजन से वे बेहद दुःखी हुए थे. वे अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध अग्रणी योद्धा बनकर साथ लड़े, पर विभाजन का फैसला चंद लोगों ने ले डाला. खान साहब, उनके लोगों और उनकी धरती को उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें बगैर विश्वास में लिये पाकिस्तान का शिकार बनने के लिए छोड़ दिया गया.
खान साहब भारत के राजकीय अतिथि और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के स्वयं के व्यक्तिगत अतिथि के तौर पर उनके विशेष अनुरोध पर गांधी जन्मशताब्दी समारोहों में शिरकत करने के लिए विशेष तौर पर आए थे. वे उन दिनों पाकिस्तान की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी नेशनल अवामी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष थे. उनके सुपुत्र खान वली खान साहब नेशनल अवामी पार्टी और खुद पाकिस्तान के भी बहुत बड़े नेता थे. दोनों बाप-बेटे लंबे, हट्टे-कट्टे गोराई में लाल रंग लिये हुए आर्यों के नाक-नक्श वाले थे. खान साहब को दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर स्वागत करने स्वयं श्रीमती गांधी गई थीं.
इन्हीं जन्मशती समारोहों की शृंखला में 1969 में ही सीमांत गांधी का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अतिथि के रूप में आगमन हुआ था. उनका विज्ञान संकाय के स्पोर्ट्स ग्राउंड पर संबोधन हुआ था. उस संबोधन में उनका पास से दर्शन करने और संबोधन का लाभ उठाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था. मंच मजे के स्थानवाला लंबा-चौड़ा किंतु अपेक्षाकृत नीचा था. वह ऐसा आभास देता था कि हम बालवृंद अपने परिवार के मुखिया के सामने बैठे उनकी बातों का आनंद ले रहे हैं. हमारे समक्ष इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण जीवंत बैठा अपनी कथा सुनानेवाला था. खान साब रक्तिम आभा लिये हुए थे गोया छूते ही खून बहने लगे. मंच पर सफेद खादी की चादर बिछी हुई थी. वे उस पर नीचे ही सहज आसन में विराजमान थे. कोई कुरसी नहीं थी. उनके पार्श्व में उनकी लाठी रखी थी जिसमें एक सफेद कपड़े की छोटी गठरी में उनका कुछ सामान बंधा हुआ था. जब वे मंच पर पधारे तो यह डंडा उनके कांधे पर और पोटली पीछे की ओर लटकी हुई थी. वे बिना कोई ध्वनि किए मंच पर पधारे और बिना कोई ध्वनि किए शालीनता से बैठते हुए लाठी पोटली को हौले से बिना कोई ध्वनि किए ऐसे लिटा दिया, जैसे कोई मां अपने सोते हुए बच्चे को धीरे से कोमलता से लिटाती है. इसके विपरीत कितनी हिंसा है हम सब जो हमारी प्रत्येक क्रिया में शब्दों के माध्यम से फूटती है. हम चलते हैं तो धरती को पीटते हैं.
गिलास रखते हैं तो आवाज होती है. कुरसी तो पकड़कर ऐसे खींचते हैं जैसे कि किसी शत्रु को दंडित करने को उद्यत हैं. हमारी हर हरकत सूक्ष्मता से देखें तो पागलों जैसी होती है. यहां तक कि भोजन स्वाद लेकर करने के बजाय भक्षण करते हैं. ग्रहण नहीं करते. इसलिए पेट में अंदर जाकर ही संग्रहण होता है. खान साहब श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे. अत्यंत साधारण, स्वच्छ और शालीन.
मंच पर केवल खान साहब नीचे चादर पर आसीन थे. सामने हम छात्र भूमि पर बिछी साधारण कालीन पर थे. किसी महानुभाव ने मंच के नीचे से ही संबोधन आशीर्वाद की प्रार्थना की. पेशावर में जन्मे अस्सी वर्ष की आयु में मात्र लगभग तीन-चार माह ही शेष उस उज्ज्वल व्यक्तित्व ने अपनी वाणी से हमें सींचना आरंभ किया. स्मरण के आधार पर सारांश इस प्रकार है-
‘मुझे दिल्ली हवाई अड्डे पर इंदिरा बिटिया ने भारत रत्न से अलंकृत करने की पेशकश कर दी. मैंने उससे कहा, पहले मेरा भारत तो मुझे दो, वही भारत जिसके लिए मैं लड़ा था, हम लोग लड़े थे, कुर्बानियां दी थीं. वह अखंड भारत. इस टुकड़े हुए भारत का भारत रत्न मैं कैसे हो सकता हूं. हम सबने मिलकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आजादी की जंग लड़ी थी. और जब आजादी आई तो मुझे कह दिया गया, अब्दुल गफ्फार, तुम हमारे नहीं हो. तुम तो पराए हो. हमसे पूछा तक नहीं गया. बस कह दिया गया, तुम अलग हो. हमें अपने हाल पर छोड़ दिया गया. अब मैं उस समय क्या उन्हीं से लड़ता जिनके साथ मिलकर हम अंग्रेजों से लड़े थे. हमारे साथ, हमारे लोगों के साथ, हमारी धरती के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया गया. हम तो भारत में राजी थे, अखंड भारत में रहने के अलावा और कुछ कभी सोचा ही नहीं था. हम तो हिंदुस्तान के लिए लड़े थे. हमें बस यूं ही कह दिया गया, तुम बाहर हो. हम तब भी कराह रहे थे, आज भी कराह रहे हैं. हमारी पहचान हिंदुस्तानी की थी. हमसे उसे बलात् छीन लिया गया. कहा गया, अपनी पहचान खोजो. हमें अंधेरे में भटकने के लिए उन लोगों ने, हमारे ही लोगों ने छोड़ दिया जिनसे हम लड़ भी तो नहीं सकते थे. हमारे लिए कुछ नहीं बदला. पहले हमें अंग्रेजों ने हिंदुस्तान की जेलों में ठूंस रखा था. आज हम और हमारे लोग पाकिस्तानी जेलों में पाकिस्तानी हुकूमत के मेहमान बनने के लिए बाध्य हैं. हमारे लिए कुछ भी नहीं बदला है. हम गांधी के सिपहसालार थे. महात्मा गांधीजी की जन्म शताब्दी के जलसे हो रहे हैं. पर मुझे तो स्वयं भारत में आज के हिंदुस्तान में गांधी कहीं नहीं दिखता. गांधी एक कर्मकांड का हिस्सा रह गया है. कितने लोग हैं जो गांधी का नाम भी दिल से लेते होंगे, उसके बताए रास्ते पर चलने की बात तो बहुत दूर. अरे, उसकी बातें भी होती हैं. यदि होती भी होंगी, उन पर कितना यकीन किया जाता होगा. तुम लोग नई पीढ़ी की इबारत लिखने जा रहे हो. अब भार तुम लोगों पर है, क्या सोचते हो क्या करते हो. मैं तो तुम्हारे लिए और हिंदुस्तान के लिए इबादत ही कर सकता हूं. मुझे और मेरे लोगों को अपनी जमीन से काटकर बहुत दूर कर दिया गया. पर मेरा दिल तो यहीं रह गया है. मेरी यादें भी तो यहीं की हैं.’
अपना संबोधन समाप्त करने के बाद वे सहज ही उठे, लाठी कंधे पर और पोटली पीछे लटकाते हुए रखी और मंच से उतरकर चल दिए.
इस इतिहास को पचास वर्ष से ऊपर हो रहे हैं. स्मृति और संबोधन की भावना के आलोक में यह आलेखन किया गया है. यह यथासंभव सत्य एवं यथार्थ विवरण है. तथापि किसी स्मृति लोप अथवा अशुद्धि के लिए मेरा क्षमाप्रार्थना करना तो बनता ही है.
यह सुखद संयोग है कि जब मैं गांधी जन्मशती समारोह के अपने अनुभवों के बारे में यह सब लिख रहा हूं तब गांधीजी यदि जीवित होते तो वे एक सौ पचास वर्ष के हो चुके होते. गांधीजी के जन्म की सार्धशती भी जोर-शोर से मनाई गई.
हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी भाई ने इस संकल्प के साथ 2014 में केंद्र की सत्ता की दहलीज पर कदम रखा कि गांधीजी की स्वच्छता के प्रति आग्रहशीलता को वे साकार रूप देंगे और 2019 में आनेवाली उनके जन्म की सार्धशती तक भारत को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने का गांधीजी का सपना पूरा करेंगे. नरेंद्र भाई मोदी के नेतृत्व में स्वच्छता आंदोलन जन अभियान बन सका. हर रचनात्मक कदम पर हँसनेवाले निराशावादी भी झाड़ू पकड़ते नजर आने लगे थे. सबसे बड़ी बात यह हुई कि स्वच्छता कर्मियों का इस अभियान से जो सम्मान बहाल हुआ और इस स्वच्छता कर्म को अपेक्षित उच्च स्थान मिला, वह उपलब्धि उल्लेखनीय रही. गांधीजी की आत्मा को इससे विशेष शांति मिली होगी.
(‘अग्निपथ से न्यायपथ’ किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है. किताब के लेखक देवकी नन्दन गौतम हैं जो कि बिहार के पूर्व डीजीपी रह चुके हैं)
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