2019 में आई मलयालम फिल्म ‘ड्राइविंग लाइसेंस’ में एक सुपरस्टार अभिनेता और खुद को उसका सबसे बड़ा फैन कहने वाले शख्स के बीच तनातनी हुई थी-एक सेल्फी के लिए, एक ड्राइविंग लाइसेंस के लिए. दिलचस्प कहानी पर बनी यह फिल्म भी दिलचस्प थी और तारीफों के साथ-साथ खूब कमाई भी कर गई थी. तो ऐसा क्या हुआ कि उस फिल्म के इस हिन्दी रीमेक में वह बात नहीं आ पाई जिससे यह फिल्म दर्शकों के सिर चढ़ कर बोल सके या उनके दिलों में उतर सके?
सुपरस्टार विजय कुमार शूटिंग के लिए भोपाल आया हुआ है. उसे ड्राइविंग लाइसेंस की तुरंत जरूरत है. वहां का आर.टी.ओ. इंस्पैक्टर ओमप्रकाश अग्रवाल विजय कुमार का भक्त है. लेकिन किसी वजह से इन दोनों के बीच तलवारें खिंच जाती हैं. इनकी ये तलवारें म्यानों में वापस जाने से पहले इन्हें क्या-क्या दिन दिखाती हैं, इनसे क्या-क्या करवाती हैं, यही इसकी भी कहानी है.
अपने चहेते फिल्मी सितारों के लिए जो पागलपन, जो भक्ति दक्षिण भारत में दिखती है, उसका सौवां हिस्सा भी हिन्दी के मैदान में नहीं दिखता. वहां के फैन्स द्वारा अपने चहेते सितारे की फिल्म आने पर उसके बुत बनवाना, उन बुतों को मालाएं पहनाना, दूध से नहलाना, ढोल-ताशे बजवाना आम है. लेकिन हिन्दी वाले ऐसी हरकते नहीं करते. इस लिहाज से यह कहानी ही गलत है क्योंकि हिन्दी का आम दर्शक इससे खुद को जोड़ नहीं पाता है. कोई आर.टी.ओ. इंस्पैक्टर किसी सुपरस्टार का ड्राइविंग लाइसेंस बनाते समय इतना अड़ियल हो जाए कि न अपने सीनियर्स की सुने और न ही इलाके के विधायक की. इस फिल्म में दिखाई गईं ऐसी हरकतें दिल को भले ही अच्छी लगें, दिमाग को खलती हैं.
इंटरवल तक दिलचस्प लग रही और उत्सुकता जगा रही फिल्म बाद में के क्षणों में पकड़ खोने लगती है. संवाद कई जगह चुटीले हैं, मजा देते हैं. ‘गुड न्यूज’ और ‘जुग जुग जियो’ जैसी फिल्में दे चुके राज मेहता ने हाथ आई स्क्रिप्ट को सही से पकड़ा है लेकिन इस फिल्म की हिन्दी स्क्रिप्ट लिखने वाले ऋषभ शर्मा अपनी कल्पनाओं के घोड़े थोड़े तेज दौड़ाते तो कुछ और प्रभावी, कुछ और विश्वसनीय लिख पाते.
अक्षय कुमार भरपूर सहज रहे हैं. जैसे वह असल में हैं, ठीक वैसे ही. उन्हें देखना सुहाता है. सच तो यह है कि यह फिल्म अक्षय के फैन्स के लिए ही है. इमरान हाशमी ने हालांकि उनके सामने डट कर रहने की कोशिश की है लेकिन वह कहीं जमे हैं तो कहीं फिसले भी. नुसरत भरूचा, डायना पेंटी, अदा शर्मा आदि दिखने भर को ही दिखीं. महेश ठाकुर सही रहे. पिट चुके फिल्म स्टार के किरदार में अभिमन्यु सिंह जोकरनुमा हरकतें करके भी जंचे. गजब काम तो किया विधायक बनीं मेघना मलिक ने, जब-जब आईं हंसा गईं. एक सीन में पप्पी जी बन कर आए अक्षय के पुराने साथी नंदू यानी अजय सिंह पाल भी जंचे. गीत-संगीत मसाले की तरह ऊपर से बुरका गया लगा. पूरी फिल्म भोपाल की, लेकिन एक भी मुस्लिम किरदार नहीं. क्या कारण हो सकता है? और यह हर फिल्म में टी.वी. मीडिया व एंकरों को जोकरनुमा दिखाना जरूरी है क्या?
(संपादन: ऋषभ राज)
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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