13 अगस्त के दिन मैं फ्रांटियर मेल सवार हुआ और पिताजी से यह कहकर कि मैं सप्ताह-भर में लौट आऊंगा, कि मैं दिल्ली में आजादी का जश्न देखने जा रहा हूं जब लालकिले पर भारत का झंडा लहराया जाएगा, आदि.
दिल्ली पहुँचने की देर थी कि पता चल गया कि लौट पाना असम्भव हो गया है, रेलगाड़ियों का आना-जाना बंद हो गया था. सहसा ही मेरे लिए सारा चित्रपट बदल गया. मेरे लिए ही क्यों, हमारे परिवार के लिए. उस ऐतिहासिक पर्व की झलक तो मिली. लालकिले पर झंडा फहराई की रस्म तो देखी. अगले दिन लॉर्ड माउंट बैटन की विदाई का दृश्य भी संसद भवन के बाहर देखा. सड़कों पर गहमा-गहमी भी देखी. गलियों-सड़कों पर छोटे-छोटे लड़कों को राष्ट्रीय ध्वज के रँगोंवाले पतंग उड़ाते हुए देखा, सरकारी दफ्तरों पर, पुलिस चौकियों-थानों पर यूनियन जैक की जगह राष्ट्रीय झंडा लहराते हुए देखा जिससे लगता था कि देश सचमुच आज़ाद हो गया है. साथ-ही-साथ दिल्ली की सड़कों पर शरणार्थियों की भीड़ भी देखी. एक ओर जश्न का-सा समाँ, दूसरी ओर बेघर लोगों की बदहाली, पर कुल मिलाकर वातावरण में आजादी की लहर का अधिक प्रभाव था.
जश्न तो देख लिया पर अब समस्या उठ खड़ी हुई थी कि करूँ तो क्या करूँ ? गाड़ियों के बंद हो जाने पर मैंने पिताजी को उसी दिन तार दे दिया था, बाद में उसी दिन पत्र भी लिख दिया. उन्हें न तो मेरा तार मिला, न पत्र. उस समय हमारे परिवार के सदस्य बिखरे हुए थे-मैं दिल्ली में, पिताजी अकेले रावलपिंडी में, बलराज बम्बई में (कुछ ही समय पहले उनकी पत्नी, दमयन्ती का देहान्त हो चुका था), मेरी माताजी, मेरी पत्नी शीला, हमारी बेटी कल्पना और बलराज जी के दोनों बच्चे, शबनम और परीक्षित सब श्रीनगर में, साथ में मेरा भांजा-भांजी भी और हमारे बहनोई भी. दिल्ली में पिताजी के साथ सम्पर्क न हो पाने के कारण चिन्ता होने लगी और मैं बम्बई चला गया. सबसे बड़ी चिन्ता तो इस बात की थी कि पिताजी को रावलपिंडी में से कैसे निकाला जाए. तरह-तरह के असम्भव सुझाव हमें सूझते, यहाँ तक कि हवाई जहाज चार्टर करने का सुझाव भी. किसी ने यह भी कहा कि कालबादेवी का एक व्यापारी हवाई जहाज़ में अपना माल लाहौर को भेजता है. हम कालबादेवी में उस गुजराती सेठ से भी जा मिले. मतलब कि हमें कुछ भी सूझ नहीं रहा था और हम हाथ-पाँव मार रहे थे. और पूंजी के नाते हमारे पास था ही क्या जो हम हवाई जहाज द्वारा पिताजी को निकाल लाने की सोच रहे थे. इससे केवल हमारी घबराहट ही ज़ाहिर होती है. बम्बई जैसे शहर में बैठकर, रावलपिंडी में से किसी व्यक्ति को कैसे निकाला जा सकता था ? जब हम घबरा जाते तो मैं दिल्ली का रुख कर देता कि वहाँ से कोई-न-कोई प्रबन्ध हो सकेगा. उधर कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया. अब तक पिताजी के साथ कोई सम्पर्क सूत्र न बन पा रहा था, अब श्रीनगर में बैठे हमारे परिवार से भी हमारा संपर्क कट गया.
दिल्ली पहुँच जाने पर, परिचित लोग, कभी निकट सम्बन्धी, कभी कोई पुराना रावलपिंडी का जानकार मिल तो जाते, पर अक्सर वे अपनी जगह, किसी-न-किसी विकट स्थिति में होते मेरी क्या मदद करते ! फिर भी कभी इससे मिल, कभी उससे, वस्तुस्थिति की थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती, इससे अधिक कुछ नहीं .
कबायलियों के हमले को विफल करने के लिए दिल्ली से हवाई जहाजों द्वारा सैनिक और फौजी सामान भेजा जाने लगा था. एक दिन पता चला कि जो जहाज फौजी सामान तथा सैनिकों को लेकर कश्मीर भेजे जाते हैं, वे खाली लौटते रहे हैं. पर अब खाली लौटने के बजाय वे परिवारों को कश्मीर से ला रहे हैं.
उसी शाम में भागा हुआ सफदरजंग हवाई अड्डे पर पहुंचा. वहाँ मेरी तरह सैकड़ों लोग अपने प्रियजनों की राह देखते हुए पहुँचे थे हवाई अड्डे पर ब्लैक आउट के कारण घुप्प अँधेरा था. में इधर-उधर डोल ही रहा था कि किसी परिचित ने मुझे पहचान लिया . शीला को ढूँढ़ रहे हो ? वह तो दो दिन पहले आ गई थी मैंने उसे देखा था.” पर वह यह नहीं बता पाया कि शीला कहाँ पर टिकी हई. पर मेरी ढांढस बंध गई. जो शीला आ गई है तो माताजी और सभी बच्चे भी आ गए होंगे.
फिर इधर-उधर खोज-खबर, पूछताछ करने पर टिकाना मिल गया वे सभी हमारे मौसेरे भाई जे.एन. साहनी, जो जाने-माने पत्रकार थे, के घर पर टिके हुए थे. अब केवल पिताजी रावलपिंडी में अकेले रह रहे थे और उनके साथ कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था.
पिताजी नवम्बर महीने तक रावलपिंडी में ही रहे. घर का पराना नोकर उनके साथ था जो खाना वगैरा बना देता था तब तक लगभग सभी हिन्दू-सिख परिवार छोड़कर जा चुके थे, जो पीछे अभी भी रह रहे थे उन्हें पाकिस्तान की सरकार ने एक अलग गली में इकट्ठा कर दिया था. पर पिताजी अपने ही घर में अन्त तक रहे. और जब वह निकले भी तो अचानक ही. श्रीनगर को जानेवाली एक मोटर कार में एक सीट खाली थी. मोटरकार एजेंसी के मालिक पिताजी के मामू के लड़के थे उन्होंने इस आशय का सन्देश पिताजी को भेजा कि फ़ौरन तैयार हो जाइए, कुछ ही मिनटों में आपके घर के बाहर गाडी पहुंच जाएगी. सुरक्षा के लिए उन्होंने पिताजी के लिए रमी टोपी भेज कहा इसे पहनकर मोटर में बैठना.
पिताजी, मोटर कार के पहुँचते ही, दो कपड़ों में, घर को ताला लगाकर निकल आए. नौकर को छुट्टी दे दी, जो अपने गाँव के अन्य लोगों से जा मिला. इस तरह श्रीनगर के लिए रवाना हो गए बाद में पता चला कि मोटर ने पहला मोड ही काटा था कि हमारे घर का ताला तोड़ डाला गया. बाद में यह भी सुनने को मिला कि हमारे घर का नौकर अपने गाँव के लगभग चालीस आदमियों के साथ अपने गाँव (पुंछ) की ओर जत्थे के रूप में पैदल जा रहा था जब रास्ते में सभी लोग घेर लिए गए और सभी को मार डाला गया.
बरसों बाद जब बलराज ने पाकिस्तान की यात्रा की और अपना पुश्तैनी घर देखने गए तो उस समय उस घर में एक मुस्लिम परिवार रह रहा था जो पूर्वी पंजाब से वहाँ गया था. उस दिन उस परिवार में व्याह की तैयारियां चल रही थी. वह परिवार बड़ा मिलनसार निकला. बलराज भी बड़े उत्साह के साथ तैयारियों में शामिल हो गए. और जब बारात आई तो उसे खाना खिलाते रहे. और बलराज ने बताया कि हमारे ही घर के बर्तनों का इस्तेमाल किया जा रहा था. बहुत से बर्तनों पर पिताजी का नाम खुदा हुआ था.
(किताब : आज के अतीत / लेखक – भीष्म साहनी / प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन)