नई दिल्ली: एक लड़के ने कैमरा पकड़ा हुआ है. एक लड़का डायरेक्ट कर रहा है. एक ने म्यूजिक बजाया और एक ने एक्टिंग की. दो लड़के एक्स्ट्रा हैं. ये पूरा सेट किसी फिल्म की शूटिंग का नहीं बल्कि टिकटोक वीडियो शूट का है. ये लड़के भावी टिकटोक स्टार भी हैं और कुछ संघर्ष कर रहे हैं.
जगह है दिल्ली के कनॉट प्लेस का बी-ब्लॉक और दिन है रविवार. यहां 12 से 22 साल के युवाओं की भीड़ लगी है. लगभग 100 स्कूली युवाओं की भीड़ अपनी मस्ती में मगन सेल्फी ले रहे हैं. इस भीड़ को रास्ते से गुजर रहे लोग उत्सुकता से देख रहे हैं.
कुछ बुजुर्ग समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘रंगीन चश्मे और रंगीन बालों वाले ये युवा बिना चिल्लाए किस तरह के गाने गा रहे हैं. ये लोग सिर्फ मुंह चला रहे हैं, तरह-तरह की भाव भंगिमाएं कर रहे हैं.’ 16 साल का एक स्कूली छात्र पुनीत समझाता है कि ये जगह ‘टिकटोकर्स का अड्डा’ है. बुजुर्ग बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ जाते हैं ‘फिटे मुंह.’
नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बाद ये टिकटोकर्स का हॉट अड्डा बना हुआ है. कुछ समय पहले तक बच्चों की भीड़ क्रिकेट के किट संभालती नज़र आती थी, पर अब क्रिकेट के मैदानों की बजाय बच्चे टिकटोक के अड्डों पर दिखने लगे हैं. भले ही सप्ताह के बाकी दिनों यहां कम भीड़ रहती हो लेकिन उन दिनों में भी बच्चे स्कूल छोड़कर यहां आ रहे हैं.
रविवार को यहां टिकटोक प्रोफेशनल्स की भीड़ लगी रहती है.
बिहार से नौकरी की तलाश में आया, आज हैं 70 हज़ार फॉलोअर्स
बिहार के समस्तीपुर से हेनरी रंजीत दिल्ली में नौकरी की तलाश में आए थे. घर से हर महीने 7 हजार रुपए मंगवा रहे रंजीत अब टिकटोक के लती हैं. पिछले पांच महीनों में उनके 4 वीडियो वायरल हुए और अब 70,000 फॉलोअर्स के साथ वो आगे की प्लानिंग के लिए इस गली में आ रहे हैं. ‘यहां आकर नए आइडिया मिलते हैं और बड़े ग्रुप्स का हिस्सा बनना भी आसान होता है.’ 7वीं कक्षा में पढ़ने वाले 13 वर्षीय सीटू रविवार की भीड़ में सबसे युवा चेहरे थे.
दिप्रिंट से बातचीत में वो कहते हैं, ‘क्रिकेट खेलने का मन नहीं करता. अब वो पुराना गेम हो चुका है. मेरे साथ के बच्चों का टिकटोक ही पैशन हैं.’ 22 वर्षीय अनिमेष दिल्ली के ही शाहदरा से हैं और ‘क्या करते हैं’ के जवाब में कहते हैं- टिकटोक पर वीडियो बनाता हूं. उनके इतना कहते ही पास खड़े छह-सात लड़के तरह-तरह से एक्ट करने लगते हैं. सबके अपने म्यूजिक हैं और अपने गाने हैं.
इस भीड़ में 2-3 लड़कियां भी हैं. 18 साल की अदिति (बदला हुआ नाम) लक्ष्मीनगर से आई हैं. अपने बॉयफ्रेंड के साथ टिकटोक वीडियो बना रही हैं. जब बैठी हुई हैं तो एक आम युवा की तरह आलस्य भरे अंदाज में दोस्तों से बात कर रही हैं. पर टिकटोक वीडियो बनाते वक्त कैमरे के सामने उनका व्यक्तित्व बदल जाता है. वो किसी एक्टर की तरह बॉडी लैंग्वेज बदल लेती हैं. उनको बैठा देखकर आप कल्पना नहीं कर सकते कि ये लड़की कैमरे के सामने रोमांटिक पोज दे सकती है.
लंदन सा एहसास कराता कनॉट प्लेस का आर्किटेक्ट
देश में पिछले एक साल से टिकटोक वीडियो का इतना क्रेज बढ़ा है कि इसके चक्कर में आत्महत्या की कोशिशें भी हुई हैं. एक हफ्ते पहले ही दिल्ली के एक होटल में एक आदमी 18 घंटे तक छत पर चढ़ा रहा और सुसाइड करने की धमकी दी. बाद में उसने तीन वीडियो अपलोड किए और पचास लाख से ज्यादा फॉलोअर्स वाला सेलिब्रिटी बन गया. टिकटोक का ये सेलिब्रिटी कल्चर ही दिल्ली के युवाओं को कनॉट प्लेस की इस गली तक खींचकर ला रहा है. इस गली तक आने का मुख्य कारण है कनॉट प्लेस की इस बिल्डिंग का आर्किटेक्ट, जो लंदन की किसी गली का आभास कराता है. वो भी एक विदेशी कपड़े के शोरूम के पीछे बिल्कुल सफेद रंग में रंगी दीवार किसी यूरोपियन देश की गली जैसी लगती है.
बी-ब्लॉक में इस ट्रेंड की शुरुआत लगभग ढाई साल पहले हुई जब टिकटोक के कुछ स्थापित स्टार्स यहां आकर वीडियो शूट करने लगे. करोल बाग के 16 वर्षीय संदीप बताते हैं, ‘दो साल पहले टिकटोक के सेलिब्रिटी लकी डांसर, आशिया चौधरी, आनिफा खान और जिया राजपूत यहां वीडिया बनाते थे और अपलोड करते थे. लोगों ने इस शोरूम की बिल्डिंग से जगह पहचान ली और यहां आने लगे.’
‘मैं भी यहां किसी फेमस टिकटोक स्टार के साथ वीडियो बनाने के चक्कर में आने लगा ताकि मेरे भी फॉलोअर्स बढ़ सकें. धीरे-धीरे उन स्टार्स ने आना कम कर दिया और स्टार्स बनने की चाहत रखने वाले यहां आने लगे.’
क्या इन वीडियोज में मेहनत नहीं लगती?
रोहिणी में रहने वाले 17 वर्षीय आदित्य बताते हैं कि वो रातभर जागकर फिल्मों के ‘डायलॉग’ रटते हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक और डायलॉग्स के साथ बढ़िया लिपसिंक होनी चाहिए वरना वीडियो अच्छा नहीं लगेगा. वहां खड़े ज्यादातर टिकटोकर्स ने बताया कि ‘एक वीडियो को परफेक्ट बनाने के लिए कम से कम तीन दिन लगते हैं. डायलॉग्स को धाराप्रवाह बोलने के लिए रातभर रटना पड़ता है. जरूरी नहीं कि हर वीडियो लोगों को पसंद आए. इसलिए एक फ्लॉप वीडियो के बाद दूसरे वीडियो के लिए मेहनत करनी शुरू हो जाती है.’
लक्ष्मी नगर के 15 वर्षीय कुश भी इसी दुविधा में रहते हैं. उनके माता-पिता उन्हें घर में वीडियो नहीं बनाने देते तो वो छत पर जाकर बनाने लगे. पड़ोसियों को दिक्कत हुई तो अब उन्हें रात को जागकर नए डायलॉग लिखने पड़ते हैं. कुश के पिता नट और बोल्ट की दुकान चलाते हैं.
बी-ब्लॉक में मौजूद लड़के और लड़कियों का ध्यान बिल्कुल अपने काम पर है और किसी प्रोफेशनल की तरह वो हर टास्क पूरा कर रहे हैं. अगर कोई गलती हो जाती है तो किसी एथलीट की तरह अपने हाथ हवा में झटकते हैं और फिर से शुरू हो जाते हैं.
युवाओं ने इन वीडियोज के हिट होने के तरीकों पर अच्छे से रिसर्च भी की है. कई महीनों तक टिकटोक को ऑब्जर्व करने वाले नए टिकटोक यूजर साहिल का कहना है, ‘सबसे ज्यादा रोने वाले वीडियो चलते हैं. लेकिन अब रोने के इतने वीडियो आ गए हैं कि नई चीज खोजनी पड़ेगी. अगर आप क्रिएटिव नहीं हैं तो यहां हिट नहीं हो सकते.’ इसी तरह साहिल के पिता की परचून की दुकान है.
निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के हैं बच्चे
साहिल के पिता की परचून की दुकान है तो कुश के पिता नट बोल्ट की दुकान है. सबसे मजेदार बात यह है कि ज्यादातर बच्चों के परिवारों से इन्हें वीडियोज बनाने की आजादी नहीं दी है. इनके परिवार यही चाहते हैं कि ये स्कूल जायें और किसी तरह की नौकरी पकड़ लें. पर इन बच्चों के चेहरों पर अलग भाव हैं. ये किसी प्रचलित करियर को नहीं पकड़ना चाहते. इन्हें ये उम्मीद है कि कम समय में ये ज्यादा शोहरत और पैसा कमा लेंगे. इस सवाल ‘इतनी मेहनत का हासिल क्या है?’ का एक ही जवाब मिलता है- टिकटोक आपको सेलिब्रिटी जैसा महसूस करवाता है.
अगर आप हिट हैं तो लोग आपसे ऑटोग्राफ मांगने आते हैं. किसी सीक्रेट कम्युनिटी की तरह बात करते हैं कि नई पीढ़ी के तो अब नये सेलिब्रिटीज हैं. टिकटोक सेलिब्रिटीज के मीट-अप्स होने लगे हैं. स्पॉन्सर मिलते हैं जो किसी बड़े होटल में टिकटोक सेलिब्रिटी और फॉलोवर्स का मीट-अप कराते हैं.
सारे लोग इनसे खुश नहीं हैं
विदेशी कपड़े के शोरूम के मैनेजर इन बच्चों पर कमेंट करने से मना कर देते हैं. हालांकि शोरूम में मौजूद एक कर्मचारी नाम ना बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘पहले कपड़े के शो रूम के अंदर ही टिकटोक वीडियोज बनाये जाते थे. इससे फायदा भी होता था. पर बिल्डिंग वालों ने मना कर दिया. इसलिए शोरूम ने किनारा कर लिया. हालांकि अभी भी बाहर बनाते हैं तो कंपनी की ब्रांडिग होती है और फायदा भी होता है. पास ही खड़े शोरूम के गार्ड इन बच्चों के बर्बाद होते भविष्य की चिंता जताते हुए कहते हैं- ‘एक तरह की पागलपंती है. इनको देखकर मैंने भी अपने बच्चों से पूछा कहीं वो भी इस बीमारी का शिकार तो नहीं हो गए हैं. शुरू में मुझे बड़ा खराब लगा लेकिन अब मैंने टोकना छोड़ दिया.’ कुछ दिन पहले टिकटोकर्स और एक गार्ड की मारपीट भी हो गई थी.