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Monday, 11 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिकोविड काल और प्रवासियों के दुख दर्द को भोजपुरी रैप में बस 6 मिनट में बता गए मनोज बाजपेयी

कोविड काल और प्रवासियों के दुख दर्द को भोजपुरी रैप में बस 6 मिनट में बता गए मनोज बाजपेयी

'बंबई में का बा' के जरिए ये बताने की कोशिश की गई है कि कैसे गांव में खस्ताहाल कानून व्यवस्था, जर्जर अस्पताल, खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था और भयानक बेरोज़गारी लोगों को मुंबई जैसे उन महानगरों में आने को मजबूर करती है जहां उनके लिए कुछ भी नहीं.

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नई दिल्ली: देश की राजनीतिक स्थिति और उसकी वजह से बदहाल सामाजिक व्यवस्था पर गहरी चोट करता एक भोजपुरी रैप आया. अनुभव सिन्हा के निर्देशन में बिहार से ताल्लुक रखने वाले अभिनेता मनोज बाजपेयी के रापचिक लुक और आवाज़ से पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाया है. महानगरों में गांव से आकर गुजर बसर करने वाले किन-किन परेशानियों से जूझते हैं इसे महज 6 मिनट के इस गाने से समझा जा सकता है.  ‘बंबई में का बा’ यानी ‘मुंबई में ऐसा क्या है’?

गाने के बोल प्रवासी कामगरों के जीवन के ईर्द-गिर्द ही घूमते हैं. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से लेकर बिहार के आरा और दानापुर तक बोली जाने वाली भोजपुरी से जुड़े इलाकों समेत उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से मुंबई जैसे महानगरों में प्रवासी कामगार पलायन करने को मजबूर हैं. पापी पेट के लिए उन्हें अपना सबकुछ छोड़कर शहरों का रुख करना पड़ता है. गांव की स्वच्छ हवा और शुद्ध खान पान के छोड़ इन शहरों में जिंदगी एक ऑटो जितने छोटे कमरे में सिमटती जाती है.

बुधवार को रिलीज़ हुए इस गाने को महज 24 घंटे के भीतर 1,266,732 व्यूज़ मिले हैं. हालांकि, गाने के बोल ऐसे हैं जिससे थोड़ी बहुत हिंदी जानने वाला इसे बड़ी आसानी से समझ सकता है. ऊपर से मनोज बाजपेयी की अदाकारी ने इसे और सरल बना दिया है. इस गीत के गीतकार हैं डॉ.सागर, ऐसा प्रतीत होता है जो उन्होंने लिखा है उसे बहुत गहरे तक महसूस भी किया है. गैर हिंदी-गैर भोजपुरी भाषियों की समझ के लिए जाने-माने पत्रकार संकर्षन ठाकुर ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया है.

वीडियो में गाने के बीच में स्क्रीन पर अंग्रेजी शब्द बहुत ही आकर्षक लगते हैं.


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2 बीघा में घर, ऑटो में सोने को मजबूर 

रैप सांग को अगर आप गहराई से समझने की कोशिश करें तो प्रवासियों की लाचारी को बड़े आराम से समझ सकते हैं. अपना घर-बार छोड़ रोजगार की तलाश में मीलों दूर आने वाले इन कामगरों के क्या दर्द है, 2 बीघे के घर में रहने वाला गार्ड की नौकरी में डबल ड्यूटी करता है..कैसे उसकी जिंदगी डिबरी की लौ की तरह तिल तिल कर जलती जाती है. मां, बीवी और बच्चे सब छूट जाते हैं और कैसे एक-एक दिन करके इनकी ज़िंदगी बुझती चली जाती है. ऐसे हर दर्द को बयां करने के बाद फ़िर वही बोल फूट पड़ते हैं ‘बंबई में का बा’?

पता चलता है न वहां अस्पताल है न शिक्षा है और सड़क है और गांव में न तो नौकरी ही है इसलिए उसे मजबूरी में यहां आना पड़ा है…वर्ना कौन अपना घर-परिवार छोड़ कर आना चाहता है.

इस गाने को सोशल मीडिया पर काफ़ी जबरदस्त प्रतिक्रिया मिल रही है. गैर भोजपुरी भाषी भी इस गाने की तारीफ़ करने वालों में शामिल हैं.

गाने की ऐसी ही तारीफ़ करने वालों में संस्कृति मंत्रालय की ज्वाइंट सेकेरेट्री निरुपमा कोटरु भी हैं. उन्होंने ट्वीट करके लिखा है, ‘मुझे भोजपुरी हमेशा से एक मीठी भाषा लगती है. आज एक नई बात सीखी ‘गर्दा उड़ा दीहीन मर्दा.”

आरजे सायेमा को भी ये भोजपुरी रैप काफ़ी पसंद आया और उन्होंने ट्विटर पर इसे बुधवार की सबसे बेहतरीन चीज़ करार दिया.

हालांकि, ये गाना इस भाषा से ज़्यादा इस भाषा से जुड़े इलाकों से होने वाले पलायन के दर्द के बारे में है. वही पलायन जो जनता कफ़्यू के बाद मार्च के आख़िरी हफ़्ते में हुए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद बदस्तूर जारी रहा. वही, पलायन जिसकी तस्वीरें हृदयविदारक थीं. वही पलायन जिसमें 1500-1500 किलोमीटर पैदल चलकर लोग इन महानगरों से अपने गावों, अपने कस्बों और अपने घरों को लौटे.

‘बंबई में का बा’ के जरिए ये बताने की कोशिश की गई है कि कैसे गांव में खस्ताहाल कानून व्यवस्था, जर्जर अस्पताल, खस्तहाल शिक्षा व्यवस्था और भयानक बेरोज़गारी लोगों को मुंबई जैसे उन महानगरों में आने को मजबूर करती है जहां उनके लिए कुछ भी नहीं. हालांकि, इन सबके बावजूद इन सूबे की सरकारें कुछ नहीं करती और पलायन का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है.

मजबूरी का आलम ऐसा है कि महामारी के मारे जो कामगर इतनी लंबी दूरी पैदल तय करके अपने घरों को वापस गए थे वो फ़िर से इन्हीं शहरों में आने को मजबूर हैं. हालांकि, इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव से इन कामगरों का मुद्दा लगभग ग़ायब है.

इस गाने को आप यहां सुन सकते हैं:


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