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Tuesday, 5 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिक्यों हो रही है बॉलीवु़ड की पिटाई, कारण ट्रोल या कमज़ोर कंटेंट?

क्यों हो रही है बॉलीवु़ड की पिटाई, कारण ट्रोल या कमज़ोर कंटेंट?

ओटीटी प्लेटफॉर्म ने भी बॉलीवुड को गिराने में अपनी भूमिका अदा की है.

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आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा इस समय सोशल मीडिया के गुस्से का शिकार हो रही है. फिल्म पर सोशल मीडिया के खिलाड़ियों का चौतरफा हमला हो रहा है. मिस्टर परफेक्शनिस्ट खूब ट्रोल हो रहे हैं. उधर फिल्म भी पिट गई है और निर्माताओं को काफी घाटा होता दिख रहा है. आमिर खान कई वर्षों में एक फिल्म बनाते हैं और दर्शक उनका इंतजार करते हैं. लेकिन इस बार सोशल मीडिया के खिलाड़ी ही उनका इंतजार कर रहे थे, दर्शक गायब हैं क्योंकि फिल्म की कथा में कुछ भी दिलचस्प नहीं है. सोशल मीडिया में तो जितना ज़हर उगला जाना था, उगल लिया गया.

सोशल मीडिया से कोई फर्क नहीं पड़ता

लेकिन क्या वाकई ट्रोल से या सोशल मीडिया के हंगामे से कोई फिल्म पिट जाती है या फिर हिट हो जाती है? क्या उनकी ताकत और पहुंच इतनी है? फिल्मी दुनिया के जानकार इस बात को नहीं मानते. उनका कहना है कि ऐसा नहीं होता है और सोशल मीडिया के शोर-शराबे का फिल्मों की सफलता या विफलता से कोई संबंध नहीं है. फिल्म ट्रेड एनालिस्ट कोमल नाहटा कहते हैं कि बॉलीवुड की फिल्में इसलिए पिट रही हैं कि उनके पास अच्छी पटकथा नहीं है जबकि साउथ की फिल्मों में कंटेंट भी है और वो दर्शक से कनेक्ट भी करते हैं.

बॉलीवुड अपनी धुन में चला जा रहा था इसलिए उसकी फिल्में धड़ाधड़ पिटती जा रही थी. उनके पास इंटरटेनिंग कंटेंट था ही नहीं. जीरो इंटरटेनमेंट. सोशल मीडिया से फर्क तब पड़ता है जब फिल्म कमज़ोर हो तो फिर सोशल मीडिया अपना असर दिखा सकता है. अन्यथा नहीं. लेकिन अब बॉलीवुड में पहली बार सभी स्टार्स, प्रॉड्यूसर्स डर गये हैं और अब कंटेंट की तलाश में हैं.

फिल्म क्रिटिक जोगिंदर टूटेजा इस बात को नकारते हैं. उनका कहना है कि सोशल मीडिया आज से तो नहीं है. उससे डर वाली कोई बात नहीं है. अगर आपकी फिल्म अच्छी है तो जरूर चलेगी. दरअसल ट्रोल करने वालों में एक प्रतिशत भी दर्शक नहीं हैं. वे तो बस खाली समय काट रहे हैं और शोर मचा रहे हैं. वे रियल ऑडिएंस का हिस्सा भी नहीं हैं जो पैसे खर्च करके सिनेमा देखने थियेटरों में जाते हैं. वे लोग हैं जिन्हें फिल्में देखने की आदत है.

ट्रेड एनालिस्ट अतुल मोहन भी ऐसा ही कहते हैं. वे कहते हैं कि वे लोग पैसे खर्च करके सिनेमा हॉल में नहीं जाते. उनके पास कोई काम-धंधा नहीं है. उनके ट्रोल से कोई फर्क नहीं पड़ता है. सोशल मीडिया में तो आलिया भट्ट और फिर करण जौहर को भी बॉयकॉट करने की बातें खूब हुईं. लेकिन क्या हुआ? आलिया की फिल्म गंगू बाई ने 110 करोड़ का बिज़नेस किया जबकि धर्मा प्रॉडक्शन की फिल्म युग-युग जियो भी हिट रही. जबकि अक्षय कुमार की फिल्म पृथ्वी राज चौहान पिट गई. सोशल मीडिया पर काफी पसंद की जानी वाली कंगना रणौत की फिल्म धाकड़ भी पिट गई. लेकिन कई संगठनों जैसे करणी सेना या फिर बजरंग दल की बात अलग होती है. इनकी कॉल में दम होता है लेकिन सोशल मीडिया खोखला है.


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ओटीटी प्लेटफॉर्म फर्क डाल रहे हैं

तो फिर बॉलीवुड पिट क्यों रहा है और साउथ की फिल्में इतनी हिट क्यों हो रही हैं? अतुल मोहन कहते हैं कि इसकी वज़ह ओटीटी प्लेटफॉर्म हैं जिन्होंने कोविड काल का फायदा उठाया जब सिनेमा हॉल बंद थे. उन्होंने कई अच्छे सीरियल दिखाये. लोगों ने अपने ड्राइंग रूम या बेड रूम में बड़े टीवी सेट लगाये और वहां बैठकर मजे से मॉडर्न टेक्नोलॉजी से बने सीरियल देखने शुरू कर दिये. फिल्म डिस्ट्रिब्युटर संजय मेहता कहते हैं कि मुंबई वाले यह बात भूल चुके हैं कि देश में लोग मसाला फिल्में देखना चाहते हैं. अब की फिल्मों में ये गायब हैं. इनमें उस तरह का ऐक्शन भी नहीं है.

एक और बात है कि हिन्दी फिल्मों में विलेन भी गायब हो गया और कॉमेडियन भी जो दर्शकों को बांधे रखता था. एक और बात है कि मल्टी स्टारर फिल्में भी नहीं आ रही हैं क्योंकि ऐक्टरों की फीस बहुत ज्यादा हो गई है. याद कीजिये राज कुमार कोहली चार-चार हीरोज को लेकर फिल्म बनाते थे जेसे जानी दुश्मन. अब एक ही हीरो के कंधे पर सभी कुछ है. कमर्शल फिल्में या मसाला फिल्में न बनने से गांव-देहातों या फिर टायर थ्री या फिर टायर टू सिटीज में थियेटर बंद होने लगे हैं. साउथ की फिल्मों में ऐक्शन भी था. केजीएफ, आर आर, बाहुबली वगैरह ऐक्शन फिल्में तो थीं इनमें मसाला भी भरपूर था. एक और बात यह थी कि कोविड काल में बॉलीवुड में शूटिंग बंद हो गई थी लेकिन साउथ में हो रही थी. इसका परिणाम यह हुआ कि वहां से फिल्में लगातार आती रहीं. बॉलीवुड के बड़े स्टार मैदान छोड़कर चले गये. दो वर्षों तक वहां सन्नाटा रहा. इसका फायदा ओटीटी वालों ने खूब उठाया. इतना ही नहीं कई बड़ी फिल्में जैसे सलमान की राधे और कुली नंबर वन सीधे ओटीटी पर चली गईं. इससे उनका कद बढ़ा.

ओटीटी प्लेटफॉर्म ने भी बॉलीवुड को गिराने में अपनी भूमिका अदा की है. कोमल नाहटा कहते हैं कि उन्होंने दर्शकों की सोच का दायरा बढ़ा दिया है. वहां अच्छी कहानियां हैं, कई तरह के विकल्प हैं. उन्होंने दर्शकों को एक्सपोजर दिया है. विदेशी के नामी सीरियल अब भारत में घर बैठे देखे जा सकते हैं. इन्होंने दर्शकों का टेस्ट बदल दिया है. फिल्म पत्रकार और कभी बॉलीवुड में निर्देशन का काम किये सुनील पाराशर भी यही कहते हैं. उनका भी मानना है कि इस तरह के वेब सीरियलों ने खास वर्ग के लोगों के सोचने और देखने का नज़रिया बदल दिया है. वे बढ़िया तरीके से बने सीरियल्स को खूब देख रहे हैं. ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कई सीरियल तो ऐसे हैं जिन्होंने दुनिया भर में धूम मचाई है. उन्हें देखने का मजा ही अलग है.

जोगिन्दर मानते हैं कि ओटीटी बॉलीवुड का दुश्मन बन गया है. कोविड के बाद के दो वर्षों में थियटरों में 40-50 फिल्में रिलीज हुई हैं. ये सारी की सारी बाद में ओटीटी पर आने लगीं. इससे थियेटर खाली रहने लगे क्योंकि दर्शक जानते थे कि वह घर बैठे ही यह फिल्म देख लेंगे. बढ़िया टीवी और बढ़िया म्यूजिक सिस्टम से काम चल जायेगा. इसका नतीजा हुआ कि सिर्फ पांच फिल्में ही चलीं.


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बॉलीवुड प्रॉड्यूसर्स कंटेंट पर खर्च करना नहीं चाहते

लेकिन साउथ की फिल्में अब हिन्दी दर्शकों को क्यों भाने लगीं? वहां की कई फिल्मों ने तो रिकॉर्ड बिज़नेस किया है. अतुल कहते हैं कि इसके पीछे कंटेंट है और बॉलीवुड के प्रॉड्यूसर कंटेंट यानी कहानी पर खर्च नहीं करना चाहते हैं. पहले के प्रॉड्यूसर महंगे कहानीकारों को इंगेज करते हैं लेकिन आजकल खुद ही दिमाग लगा लेते हैं. वे शॉर्ट कट चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि साउथ की फिल्मों में खास किस्म की कहानी होती है. वह कहते हैं कि अगर आप वहां की बहुचर्चित फिल्में पुष्पा और केजीएफ वगैरह देख लेंगे तो आपको पता चलेगा कि ये फिल्में बॉलीवुड के सुनहरे दौर 70 और 80 के जमाने में हिन्दी में आई फिल्मों पर ही आधारित हैं.

अमिताभ बच्चन की दीवार सोने के तस्करों की जिंदगी पर आधारित है तो अर्जुन अल्लू की तेलुगु फिल्म पुष्पा चंदन के तस्करों के बारे में है. इसमें भी दीवार की तरह भरपूर ऐक्शन है. इसी तरह केजीएफ II में यश अपना जलवा दिखाते हैं. आरआऱ क्या है? यह मनमोहन देसाई की फिल्म की स्टोरी ही तो है. पैकेजिंग चेंज करके बनाई गई है. इनमें ऐक्शन के साथ कहानी भी है. सुनील कहते हैं कि साउथ की फिल्मों में ग्राफिक्स, स्पेशल इफेक्ट्स वगैरह का अच्छा इस्तेमाल होता है जिससे ऐक्शन में जान आ जाती है जैसा हॉलीवुड में होता है. इसे दर्शक बहुत पसंद करते हैं.

टूटेजा कहते हैं कि कंटेंट की कमी पहले भी होती थी लेकिन हीरो के कारण चल जाती थी. अब कंटेंट की बात ज्यादा होने लगी है. सलमान खान की फिल्म दबंग 150 करोड़ रुपये का बिजनेस कर गई थी. अब यह भी हो गया है कि दर्शक यह कहते हैं कि पहले कहानी वगैरह पता कर लो तब फिल्म देखेंगे. उन्हें जब लगता है कि फिल्म अच्छी है तो वे देखने जाते हैं. कोमल नाहटा कहते हैं कि वर्ड ऑफ माउथ सबसे बड़ी पब्लिसिटी है. अपने लोगों की अच्छी रिव्यू के बाद ही लोग फिल्म देखने जाते हैं. ऐसे में बॉयकॉट के कॉल से कोई फर्क नहीं पड़ता. फिल्में देखना पर्सनल च्वाइस है.

फिल्मी दुनिया के जानकारों का मानना है कि हाई टेक्नोलॉजी के कारण फिल्म प्रॉडक्शन बहुत आसान हो गया है. यही कारण है कि अक्षय कुमार की फिल्में छह-छह महीने में रिलीज हो जाती हैं. अतुल कहते हैं कि मास प्रॉडक्शन के कारण फिल्मों की क्वालिटी गिरी है. अब रोहित शेट्टी और राज कुमार हिरानी को देख लीजिये. ये अपनी फिल्मों पर कितनी मेहनत करते हैं और दो-तीन साल लगा देते हैं. लेकिन ज्यादातर प्रॉड्यूसर पैसे कमाने के चक्कर में तुरंत-फुरंत फिल्में बनाते हैं. नतीजा होता है कि वे पिट जाती हैं.

लाल सिंह चड्ढा क्यों पिटी

आमिर खान अपनी फिल्मों पर बहुत मेहनत करते हैं. अपनी फिल्म में वह कोई भी कमी नहीं छोड़ते. काफी वक्त देते हैं फिर भी उनकी यह फिल्म पिट गई. अतुल मोहन कहते हैं कि इस फिल्म की कहानी में उस तरह की बात नहीं है जो आम दर्शकों को पसंद आये. इसके अलावा यह फिल्म तीन घंटे की है जो आजकल के दर्शक देखना नहीं चाहते हैं. फिल्म ड्रिस्ट्रिब्यूटर संजय मेहता कहते हैं कि लाल सिंह चड्ढा एक तो लंबी फिल्म है और दूसरे इसकी कहानी पुरानी है, शायद 80 के दशक की. इसमें काफी जोड़-तोड़ कर दिया गया है जिससे कहानी में काफी घुमाव आ गया है. इससे लोगों की इसमें रुचि खत्म हो गई और वे सुनकर थियेटर की ओर नहीं गये. नाहटा तो इसे बेकार सी फिल्म मानते हैं और कहते हैं कि इस फिल्म में कुछ है ही नहीं. सब्जेक्ट स्लो है. सोशल मीडिया ऐसे में ही हावी हो जाता है.

एक और बड़ी बात देखने में आ रही है कि भारत के सुपर स्टार तीनों खान बूढ़ों श्रेणी में आ गये हैं. उनमें नये जेनरेशन की दिलचस्पी कम होती जा रही है. शायद चेंज का समय आ गया है.

(मधुरेंद्र सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और डिजिटल रणनीतिकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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