सब से पहले तो यह जान लीजिए कि यह फिल्म 2007 में आई प्रियदर्शन की ’भूल भुलैया’ का सीक्वल नहीं है जो खुद 1993 में आई एक मलयालम फिल्म का रीमेक थी. बल्कि इस फिल्म की कहानी को जबरन ऐसा गढ़ा गया है और इसमें मंजुलिका समेत एक बड़ा राजस्थानी खानदान इस तरह से घुसेड़ा गया है ताकि दर्शकों को पिछली वाली ’भूल भुलैया’ का फील मिलता रहे. बाकी कसर बार-बार बैकग्राउंड में बजते इसके टाइटल सॉन्ग ने पूरी कर दी है.
कहानी यह है कि बरसों पहले मंजुलिका के भूत को एक कमरे में बंद कर के सारा परिवार कहीं और शिफ्ट हो गया. अब किसी वजह से ये लोग वापस उसी महल में रहने आए हैं तो ज़ाहिर है कि मंजुलिका भी छूटेगी और सब को डराएगी भी. लोगों की इस भीड़ में जोकरों जैसी हरकतें करने और मसखरों जैसे डायलॉग बोलने वाले ढेरों किरदार मौजूद हैं. भई, उनका मकसद आपको डराना और हंसाना, दोनों है वरना कल को आप ही कहेंगे कि पैसे तो वसूल हुए ही नहीं.
सिर्फ हॉरर के दम पर चल जाएं, ऐसी फिल्में कम ही होती हैं. हॉरर में ‘रंगीनियां’ घुसाओ तो फैमिली वाली दर्शक छिटक जाते हैं.
इसलिए हॉरर के साथ कॉमेडी घुसाने का रिवाज काफी पहले से रहा है लेकिन इधर ‘स्त्री’ ने यह भी सिखाया कि इस रिवाज को रामसे टाइप हॉरर फिल्मों से निकाल कर बड़े बैनरों, बड़े सितारों वाली फिल्मों में ले आओ तो करोड़ों भी कमाए जा सकते हैं, तो बस, अब यही मिक्स मसाले पीसे जा रहे हैं हिन्दी फिल्मों की चक्की में. जिसे एतराज हो, वह देखे जाकर साउथ की एक्शन फिल्में, किसने रोका है.
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पिछली वाली ‘भूल भुलैया’ ने हॉरर का फील जरूर दिया था लेकिन वह असल में एक साइकोलॉजिकल सस्पेंस-थ्रिलर थी जिसमें दिखाई गई चीजें तर्क की कसौटी पर भी कसी हुई थीं.
अब इस वाली ‘भूल भुलैया 2’ को देखते समय आपने जो चीज बिल्कुल भी नहीं करनी है वह है तर्क की खोज और दिमाग का इस्तेमाल. भई, एंटरटेनमैंट चाहिए कि नहीं? चाहिए तो चुपचाप हॉरर सीन पर डरते जाइए, कॉमेडी सीन पर हंसते जाइए, बीच-बीच में पॉपकॉर्न लेने और वॉशरूम जाने के लिए उठते जाइए.
इतनी गर्मी में फैमिली के साथ देखने वाली एक टाइमपास फिल्म आई है तो उस पर पैसे खर्चिए, फालतू दिमाग खर्च कर अपना और दूसरों का मूड मत बिगाड़िए. वैसे भी अनीस बज्मी हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्में बनाते हैं, तो उनसे जैसी उम्मीद रहती है, वैसा ही माल मिलेगा न…!
कार्तिक आर्यन का काम ऊर्जा से भरपूर रहा है. कियारा आडवाणी को मोहने के लिए रखा गया था, वह मोहती रहीं. तब्बू की एक्टिंग तो उम्दा रहीं लेकिन उन्हें छरहरी दिखने का मोह त्याग कर थोड़ा भरा-पूरा हो जाना चाहिए. राजेश शर्मा, अश्विनी कलसेकर, संजय मिश्रा, राजपाल यादव को मसखरे किरदार मिले, इन्होंने निराश भी नहीं किया. मिलिंद गुणाजी, अमर उपाध्याय, गोविंद नामदेव ठीक रहे. गीत-संगीत औसत रहा और लोकेशन प्रभावी.
यह फिल्म फौरी किस्म का हल्का-फुल्का मनोरंजन परोसने में कामयाब रही है. इसे क्लासिक हॉरर या बेहतरीन कॉमेडी कहना ज्यादती होगी, इसके साथ भी और दर्शकों के साथ भी.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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