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Sunday, 22 December, 2024
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आज़ादी- ‘तेज़ी से तैयार होती भारतीय फासीवाद की इमारत’

अरुंधति रॉय ने अपनी किताब 'आज़ादी' में हिंदू राष्ट्रवाद की राष्ट्रीय परियोजना के अंतर्गत चल रहे देश, सांप्रदायिक ताकतों के उभार, जुबान की सियासत, लोकतंत्र में चुनावी सियासत और कोरोना महामारी में बदलती दुनिया का जिक्र किया है.

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अरुंधति रॉय की हालिया किताब ‘आज़ादी ‘ पढ़ते हुए 1990 के दशक में आई चर्चित फिल्मकार मनिरत्नम की फिल्म ‘रोजा ‘ अनायास ही याद आती है. 90 के दशक के आखिर के सालों में कश्मीर में बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों पर बनी ये फिल्म उस बारीक तथ्य को सामने लाती है जिसे भारतीय सत्ता बनाम कश्मीर की समस्या के तौर पर देखा जाता रहा है. इसी फिल्म में एक नारा जिसे रॉय समेत अनेक लेखक कश्मीरी लोगों के आक्रोश से निकला नारा बताते हैं, वो सुनाई पड़ता है. वो नारा है- ‘आज़ादी ‘ का.

रॉय की किताब का शीर्षक जितना दिलचस्प है उतना ही वो इसका भी ख्याल रखती हैं कि भारत में इस शब्द के मायने कैसे कश्मीर से निकल कर शेष मुल्क की मुखालफत का नारा बन गया. रॉय अपनी किताब में लिखती हैं, ‘आज़ादी- कश्मीर में आज़ादी के संघर्ष का नारा है, जिससे कश्मीरी उस चीज़ की मुखालफत करते हैं जिसे वे भारतीय कब्जे के रूप में देखते हैं. विडंबना ही है कि भारत की सड़कों पर हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना की मुखालफत करने वाले लाखों आवाम का नारा भी बन गया.’

मूल रूप से ये किताब रॉय के पुराने लेखों और उनके दुनियाभर में दिए भाषणों का संकलन है जो मुख्यत: मोदी सरकार के 2014 में सत्ता में आने के बाद दिए गए. उन्होंने किताब में कई जगह अपने दो उपन्यासों के कुछ हिस्सों का भी जिक्र किया है और उसे वर्तमान घटनाओं से जोड़कर उस त्रासदी को उभारा है जिससे भारत गुज़र रहा है.

रॉय की ये किताब सबसे पहले अंग्रेज़ी में आई थी जिसका रेयाज़ुल हक़ ने अनुवाद किया है. इसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है. किताब में रॉय ने हिंदू राष्ट्रवाद की राष्ट्रीय परियोजना के अंतर्गत चल रहे देश, सांप्रदायिक ताकतों के उभार, जुबान की सियासत, लोकतंत्र में चुनावी सियासत और कोरोना महामारी में बदलती दुनिया का जिक्र किया है.

अरुंधति रॉय की किताब ‘आज़़ादी’ का आवरण

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जुबान की सियासत

रॉय, पेब्लो नेरुदा के उस सवाल का जवाब देती हैं जिसमें पूछा गया है-

मज़लूम शहरों पर
किस जुबान में गिरती है बारिश?

वो कहती हैं, ‘बेझिझक मैं कहूंगी, अनुवादों की जुबान में.’

रॉय हमारे आसपास जुबान की उस महत्ता का जिक्र करती हैं जिससे हमारे बीच काफी कुछ तय होता है. वो कहती हैं, ‘ज्यादातर समकालीन लेखकों के लिए जुबान कभी भी एक बनी-बनाई चीज़ नहीं हो सकती. इसे बनाना पड़ता है. इसे पकाना पड़ता है. धीमी आंच पर, हौले-हौले.’

रॉय ने हिंदी और उर्दू भाषा के उभार का भी इसमें खाका खींचा है और उसे लेकर हुई सियासत को भी संक्षेप में दर्ज किया है.

‘हिन्दू राष्ट्र की परियोजना’

किताब में रॉय मौजूदा सत्ता की ‘हिन्दू राष्ट्र की परियोजना’ पर कई स्तरों पर निशाना साधती हैं. जिसमें वो उन घटनाओं का हवाला देती हैं जो बीते 3-4 बरस में भारत के भीतर घटित हुई हैं.

रॉय कहती हैं, ‘इस सरकार ने भारत की रूह को बहुत गहरा जख्म दिया है. इसे भरने में बरसों लग जाएंगे. लेकिन इसकी शुरुआत हो सके, इसके लिए हमें इन खतरनाक, तमाशों के भूखे धोखेबाज़ पाखंडियों को सत्ता से बाहर करना होगा.’

रॉय जिन जख्मों की अपनी किताब में बात करती हैं उसमें वो 2020 में दिल्ली के उत्तर-पूर्व हिस्से में हुए दंगों, बीते सालों में मुसलमानों को सांगठनिक तौर पर निशाना बनाए जाने का हवाला देती हैं और इसे हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न देखने वाले समूहों की सोची-समझी कोशिश बताती हैं.

रॉय ने किताब में गुजरात में 2002 में हुए दंगों का भी विस्तार से जिक्र किया है और उसे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कई जगहों पर जोड़ा है.


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‘कश्मीर-इनसानी वजूद के सबूत’

5 अगस्त 2019 को वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से उसका विशेष दर्जा छीन लिया और उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया. इस घटना के तुरंत बाद वहां इंटरनेट कनेक्शन काट दिया गया. कश्मीर में हुई इस घटना पर रॉय अपनी किताब में सरकार को लेकर काफी जोरदार टिप्पणी करती हैं.

वो कहती हैं, ‘एक लेखक के बतौर, कश्मीर में हमें इनसानी वजूद के बड़े सबक मिलते हैं, ताकत और कमजोरी के, धोखेबाजी, वफादारी, मुहब्बत, मजाक और भरोसे के. दशकों तक एक फौज़ी कब्जे में रहने वाले अवाम के साथ क्या होता है? जब हवा में ही खौफ का जहर भरा हो तो मामले किस तरह अंजाम दिए जाते हैं? जुबान का क्या होता है?’

रॉय कहती हैं कि अगर कश्मीर पर सुरक्षा बलों का कब्जा है, तो भारत पर भीड़ ने कब्जा कर रखा है. सख्त लहज़े में वो कहती हैं, ‘दुनिया की निगाहों के सामने, भारतीय फासीवाद की इमारत तेज़ी से तैयार हो रही है.’

कश्मीर के ही समानांतर वो असम में हुए एनआरसी की प्रक्रिया पर भी गंभीर सवाल उठाती हैं और वहां के लोगों के हवाले से उन मुश्किलात का ब्यौरा देती हैं जो वहां लोगों ने इस प्रक्रिया के दौरान भोगा है. रॉय उन करीब 20 लाख लोगों के दर्द को बयान करती हैं जो एनआरसी की लिस्ट से बाहर हो गए. असम की एथनिक सियासत ने कैसे रूप लिया इसका भी विस्तार से उन्होंने जिक्र किया है और उन बातों को भी उभारा है जिससे अब लोग एनआरसी को लेकर आशंकित हैं.


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महामारी- नई दुनिया की दहलीज़

इस किताब की एक खूबसूरती ये भी है कि जिस आज़ादी की बात रॉय करती हैं, उसने कैसे कोरोना महामारी के दौरान दुनियाभर के मुल्कों को प्रभावित किया. आज़ादी उन दिनों एक ऐसी चीज़ बनकर रह गई जिसे लोगों ने जिया तो था लेकिन अब वो अपने घरों में कैद होकर उसे याद करने पर मजबूर थे.

रॉय ने कोरोना महामारी को एक नई दुनिया की दहलीज़ बताया है. वो कहती हैं, ‘जहां आज यह महामारी बीमारियां और तबाही लेकर आई है, वहीं यह एक नई किस्म की इंसानियत के लिए भी दावत है. यह एक मौका है कि हम एक नई दुनिया का सपना देख सकें.’

महामारी के मद्देनज़र रॉय ने नरेंद्र मोदी सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि जब देश में शुरुआती तौर पर बीमारी फैल रही थी तो सत्तारूढ़ दल मध्य प्रदेश में सरकार बनाने में लगी हुई थी और कैसे सरकार ने फरवरी और मार्च में इस बीमारी से निपटने के लिए ठीक तैयारी नहीं की.

लॉकडाउन लगाने के फैसले पर भी रॉय सवाल उठाती हैं और कहती हैं कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में सिर्फ चार घंटे के नोटिस पर सब कुछ बंद कर देना, कैसे एक त्रासदी बन गया. वो दिल्ली से लाखों लोगों के पलायन और रास्ते में उनके साथ हुई बदसलूकी और उनकी मौतों को लेकर भी सरकार को घेरती हैं.

कई मायनों में ‘अधूरी’ किताब

किताब के शीर्षक का फलक जितना बड़ा है, उसे उतने बेहतर तरीके से लेखिका ने स्पष्ट नहीं किया है. रॉय ने केवल नरेंद्र मोदी की सत्ता के कदमों के इर्द-गिर्द इसे स्थापित करने की कोशिश की है. यह एक मुकम्मल किताब तब होती जब लेखिका आज़ादी के मायनों पर विस्तार से जिक्र करती जिसमें वो सदियों से चली आ रही परंपराओं, नीतियों, सत्ता की प्रक्रियाओं और देश की स्वतंत्रता के बाद आए बदलावों के बाद की स्थिति पर जोर देतीं और उनसे मुल्क के लोगों के बीच ‘आज़ादी’ शब्द के मायनों पर बात करतीं.

एक मायने में यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि ये किताब भारत में उभरते ‘हिन्दू राष्ट्रवाद की उस परियोजना’ को काफी अच्छी तरह उभारती है जो बीते कई सालों में बड़े रूप में फली-फूली है.

अक्सर ये महसूस किया जा सकता है कि अनुवाद करने पर मूल दस्तावेज़ उस रूप में उभरकर सामने नहीं आ पाती जो वो हकीकत में होती है. इस किताब के शुरुआती कुछ हिस्सों के अनुवाद इस बात की तस्दीक करती हैं लेकिन जैसे-जैसे ये आगे बढ़ती है, अनुवादक रेयाज़ुल हक़ ने काफी स्पष्ट और सुंदर अनुवाद किया है. खासकर रॉय के काव्यात्मक तौर पर लिखे हिस्सों का.

जिन लोगों ने बीते चार-पांच सालों में भारत की राजनीति को बारीकी से देखा और समझा है, उनके लिए इस किताब में कुछ भी नया नहीं है. लेकिन बीते समय की तमान घटनाओं को संदर्भ और एक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इसे पढ़ा जा सकता है.

(अरुंधति रॉय की किताब ‘आज़ादी’ को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. इसका अनुवाद रेयाज़ुल हक़ ने किया है)


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