कुछ राजनीतिक घटनाएं इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट स्याही से लिख दी जाती हैं. ये कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो बहुत-कुछ सिखा जाती हैं, सतर्क कर जाती हैं. वर्ष 1996 में भी यही हुआ. दरअसल, अप्रैल-मई 1996 में हुए ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. लोकसभा की कुल सीटों में से 161 सीटें जीतकर बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. इस चुनाव में बीजेपी पहली बार कांग्रेस से ज्यादा सीटें लाने में कामयाब रही.
इस लोकसभा चुनाव में कोई भी दल स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं कर पाया था. बीजेपी 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी जरूर बन गई थी, लेकिन अपना बहुमत साबित करने के लायक सांसद उसके पास नहीं थे. इस चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 140 सीटें मिलीं, लेकिन उसने सरकार न बनाने का निर्णय पहले ही ले लिया था. दरअसल, चुनाव से पूर्व कई नेताओं ने कांग्रेस दल से अलग होकर अपने पृथक् दल गठित कर लिये थे. इनमें एन.डी. तिवारी की ‘ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस’ (तिवारी), माधवराव सिंधिया की ‘मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस’, जी.के. मूपनार की ‘तमिल मनीला कांग्रेस’ शामिल थीं.
उल्लेखनीय है कि इस लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटें क्षेत्रीय पार्टियों के पास चली गई थीं, यानी कुल 543 में से 129 सीटों पर क्षेत्रीय दलों का कब्जा हो गया था. यहीं से क्षेत्रीय दलों के दबदबे की राजनीति की शुरुआत हुई थी. वैसे तो इस समय चुनाव में 8 राष्ट्रीय दल, 30 राज्य स्तरीय दल सहित 171 पंजीकृत दलों ने हिस्सा लिया था. कुल 13,952 प्रत्याशी मैदान में थे. पहली बार उम्मीदवारों की संख्या 10 हजार के पार पहुंची थी, लेकिन किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण देश के सामने एक बड़ा राजनीतिक संकट खड़ा हो गया था.
अस्तु, राष्ट्रपति ने सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया.
अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री का पद संभाला, लेकिन बहुमत साबित न कर पाने की वजह से उन्हें 13वें दिन प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा. यह घटना अप्रत्याशित थी.
1 जून, 1996 को जनता दल के नेता एच.डी. देवगौड़ा ने संयुक्त मोर्चा गठबंधन के बलबूते पर अपनी सरकार का गठन किया, लेकिन उनकी सरकार भी मात्र 18 महीने ही चल पाई. देवगौड़ा के कार्यकाल में ही विदेश मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने अगले प्रधानमंत्री के रूप में 21 अप्रैल, 1997 को पदभार ग्रहण किया. कांग्रेस इस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी. वे भी करीब ग्यारह माह इस पद पर रहे, परंतु अंततोगत्वा 1998 में देश में मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े.
उल्लेखनीय है कि भले ही 13 दिन बाद बहुमत साबित न कर पाने की वजह से उनकी सरकार गिर गई, लेकिन 1998 में एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस समय एन.डी.ए. की सहयोगी ए.आई.ए.डी.एम. की प्रमुख जयललिता ने अपने खिलाफ चल रहे भ्रष्टाचार के मामलों को वापस लेने और डी.एम.के. के खिलाफ काररवाई करने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी पर दबाव बनाया तो वे इस दबाव के आगे नहीं झुके. इसका नतीजा यह हुआ कि संसद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार विश्वास मत के दौरान एक वोट से हार गई. इस विश्वास मत के दौरान जयललिता की पार्टी ने भाजपा से समर्थन वापस ले लिया था.
1999 में 13 दलों के गठबंधन के साथ अटल बिहारी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने, जिसकी शपथ भी उन्होंने 13 अक्तूबर, 1999 को ही ली थी. इस बार उनकी सरकार ने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया. प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करनेवाले वे पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने.
वाजपेयी सरकार ने कई ऐसे बड़े फैसले लिये, जिसने भारत की राजनीति की दशा व दिशा को हमेशा के लिए बदल दिया. यह वाजपेयी की कुशलता ही कही जाएगी कि उन्होंने एक तरह से दक्षिणपंथ की राजनीति को भारतीय जनमानस में इस तरह रचा-बसा दिया, जिसके चलते एक दशक बाद भारतीय जनता पार्टी ने वह बहुमत हासिल कर दिखाया, जिसकी भाजपा में एक समय में कल्पना भी नहीं की जाती थी.
25 दिसंबर, 1924 को जनमे अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय राजनीति का पितामह कहा जाता है. राजनेता होने के साथ-साथ वे एक कवि, पत्रकार व एक प्रखर वक्ता भी थे. अपना जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया था. वे भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में एक थे और 1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे. उन्होंने लंबे समय तक ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पाञ्चजन्य’ और ‘वीर अर्जुन’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया. उनका लेखन व संपादन राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत रहा. चार दशकों तक वे भारतीय संसद के सदस्य रहे. दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के लिए चुने गए थे.
2005 से वे राजनीति से संन्यास ले चुके थे और नई दिल्ली में 6-ए कृष्णा मेनन मार्ग स्थित सरकारी आवास में रहते थे. 16 अगस्त, 2018 को एक लंबी बीमारी के बाद अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में श्री वाजपेयी का निधन हो गया. वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे. केंद्र सरकार ने इस मौके पर श्री वाजपेयी की तसवीरवाला 100 रुपए का सिक्का भी जारी किया है.
(‘स्वतंत्र भारत की 75 प्रमुख राजनीतिक घटनाएं’ प्रभात प्रकाशन से छपी है. ये किताब पेपर बैक में 500₹ की है.)
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