गांधीवादी समाजवाद को लक्ष्य बनाकर 1980 में जिस भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ उसके भविष्य और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लिए 1995 में बंबई (मुंबई) में हुआ पार्टी का पूर्ण अधिवेशन हिंदू राष्ट्रवाद के लिए एक लीक तय करने वाला था.
अटल बिहारी वाजपेयी के उदारवाद और लालकृष्ण आडवाणी की आक्रमकता के सहारे जनसंघ से होते हुए भाजपा उस मुहाने पर आ चुकी थी जहां विचारधारात्मक तौर पर भविष्य की राह तय होने वाली थी और एक ऐसे नेता का आगामी सालों में उभार होने वाला था जो आरएसएस के लक्ष्यों को भारत में साकार करने वाला था.
नेहरूवादी सर्वसम्मति के दौर में जन्मी वाजपेयी की उदारता और आरएसएस के संस्कारों तले आडवाणी ने जो सफर तय किया और आपसी साझेदारी की जो समझ विकसित की उसी की कहानी विनय सीतापति ने अपनी हालिया किताब ‘जुगलबंदी- भाजपा मोदी युग से पहले’ में दर्ज की है.
सीतापति की किताब का शीर्षक अटल-आडवाणी के परस्पर जुगलबंदी का ही नतीजा है जिसने 60 वर्षों में जन्म लिया. इस किताब में सीतापति ने उस अतीत का जिक्र किया है जिसका प्रतिफल 1920 के करीब जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में दिखा जिसने भारत में हिंदुओं को अतीत के पहलुओं को याद दिलाकर एकजुट करने का काम शुरू किया.
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अटल-आडवाणी और हिंदू राष्ट्रवाद
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ वहीं आडवाणी सिंध प्रांत से आते हैं जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है. कुछ समय बाद जो दोनों के बीच समान चीज़ घटती है वो है उनका आरएसएस के साथ संपर्क.
आरएसएस की संस्कृति में पले बढ़े होने के कारण अटल-आडवाणी पर संगठन की विचारधारा का काफी असर था. जुगलबंदी के लेखक विनय सीतापति कहते हैं, ‘यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आधुनिक विश्व की तमाम राजनीतिक विचारधाराओं में यह हिंदू राष्ट्रवाद ही था जिसने वाजपेयी और आडवाणी को जोड़कर रखा था. उन दोनों को आपस में जोड़ने वाली चीज़ यह विचारधारा ही थी.’
लेखक कहते हैं कि वाजपेयी के साथ अपने संबंध को आडवाणी केवल प्रेम पर आधारित अथवा एक दूसरे से बिल्कुल अलग प्रतिभाओं का लाभकारी संयोग बता सकते थे. लेकिन 2018 में वाजपेयी की प्रार्थना सभा में आडवाणी ने 61 साल की अपनी साझेदारी को सिर्फ विचारधारा पर आधारित बताया.
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अटल की संसदीय समझ और आडवाणी का संगठन प्रेम
श्यामाप्रसाद मुखर्जी के मातहत काम करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की ज्यादातर समझ उस संसदीय परंपरा के जरिए विकसित हुई जिसका विकास नेहरू के दौर में हुआ. मुखर्जी की मृत्यु के बाद दीनदयाल उपाध्याय ने उन्हें संसद में भेजने का फैसला किया लेकिन 1952 में उनकी हार हुई. 1957 में जीत के बाद वाजपेयी अपनी मनपसंद भूमिका में अगले पांच दशकों तक रहे जिसे आगे चलकर आडवाणी ने भी कई बार सुनिश्चित किया कि वो संसद में पार्टी का नेतृत्व करते रहें.
सीतापति कहते हैं, ‘दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु के बाग नेतृत्व को लेकर चल रही खींचतान में आडवाणी और वाजपेयी ने एक-दूसरे की पूरक भूमिकाएं स्वीकार कर लीं. जब देश में वैचारिक उदारवाद का मूड था- जैसे 1970 के दशक में या 1990 के उत्तरार्ध में- तो वाजपेयी ने नेतृत्व किया और आडवाणी ने उनका अनुसरण किया. जब चिंता का मूड होता था- जैसे 1980 के दशक में और 1990 के दशक के पूर्वार्ध में- तब आडवाणी ने पार्टी निर्देशन किया और वाजपेयी ने उनकी बात मानी.’
लेखक ने जिस वैचारिक उदारवाद का जिक्र किया है वो नेहरू और उसके बाद इंदिरा गांधी का दौर था और जिस चिंता की बात कही है वो समाज में उत्पन्न हो रही कई दुश्चिंताओं के बीच मंडल और राम मंदिर को लेकर चल रहे आंदोलन का दौर था.
लेखक कहते हैं, ‘अटल-आडवाणी के बीच एक असल जुगलबंदी थी. इसमें अलग-अलग साज़ थे, दोस्ताना मुकाबला भी था, संगीत की अलग-अलग तानें थीं और गहरे अर्थ में एक समरूप संगीत था.’
संसद में वाजपेयी ने एक वक्ता के तौर पर जो ख्याति पाई वो उम्र भर उनकी असल पहचान बनकर रही. लेखक ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि राजकुमारी कौल जो नेहरूवादी संस्कृति से प्रभावित थीं उनका वाजेपयी पर काफी असर रहा और जिस उदारता का उन्होंने संगठन के व्यक्ति थे जिनका पार्टी कार्यकर्ताओं से प्रभावी संपर्क था. इसलिए दोनों नेता अपनी भूमिकाओं को अच्छी तरह समझते थे और उसके अनुसार ही काम करते थे.
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नरेंद्र मोदी का उदय
करीब छह सालों तक अपने गृह राज्य गुजरात से निष्कासन झेल रहे नरेंद्र मोदी उस समय एक बार फिर चर्चा में आ गए जब केशुभाई पटेल के स्थान पर उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भेजने का पार्टी ने निर्णय लिया था. अटल-आडवाणी के कमोबेश उदारवादी दौर के बाद एक ऐसा व्यक्ति का भाजपा में उदय होने जा रहा था जो गोविंदाचार्य के ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के साथ-साथ आरएसएस की वैचारिक समझ का इस्तेमाल चुनावी फायदे के लिए कर सकता था. इसी राजनीतिक मिश्रण ने नरेंद्र मोदी को अगले दो दशकों तक गुजरात और फिर देश की राजनीति में स्थापित कर दिया.
मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने की कुछ समय बाद ही राज्य में गोधरा दंगे हुए जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई. इन दंगों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन आडवाणी इसके खिलाफ थे जिस कारण मोदी सत्ता में बने रहे.
इस मसले की वजह से अटल-आडवाणी की आपसी साझेदारी में दरार आना स्वाभाविक था लेकिन हमेशा की तरह विचारधारा ने उन्हें जोड़े रखा. आगे चलकर आडवाणी ने माना, ‘अटलजी ने इस विषय पर कभी स्पष्ट रूप से अपना मत प्रकट नहीं किया था, परंतु मैं जानता था कि वे मोदी के त्यागपत्र के पक्ष में थे और वे जानते थे कि मैं उसके पक्ष में नहीं था.’
दंगों के बाद 2002 में हुए चुनावों में भाजपा को बहुमत मिला और इस चुनाव ने पहली बार ये तय किया कि सिर्फ विचारधारा के जरिए पार्टी को चुनावी सफलता मिल सकती है. इसी के साथ वाजपेयी और आडवाणी के अंत की शुरुआत हो गई और नरेंद्र मोदी का उत्थान शुरू हो गया.
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अटल-आडवाणी बनाम मोदी-शाह
भारत के संसदीय राजनीति में करीब छह दशकों तक साथ रहे अटल-आडवाणी के विपरीत मोदी-शाह का क्षेत्र ज्यादातर गुजरात तक सिमटा हुआ था. सीतापति कहते हैं, ‘भारत की विविधता को आकर्षित करने का प्रशिक्षण मोदी-शाह को नहीं मिला जिसकी छवि संसद में नज़र आती है. उनका राजनीतिक दृष्टिकोण गुजरात की प्रांतीय राजनीति वाला है.’
लेखक कहते हैं, ‘यही कारण है कि वाजपेयी-आडवाणी की तुलना में मोदी-शाह अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति अधिक निष्ठुर हैं.’
सीतापति के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी में इंदिरा गांधी से सबसे अधिक समानता है. वो कहते हैं, ‘मोदी का मतदाताओं के साथ बेहतर जुड़ाव शायद भाजपा के दोनों युगों के बीच सबसे बड़ा अंतर है.’
किताब के अंत में सीतापति एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं कि अटल और आडवाणी ने समय-समय पर एक दूसरे के मातहत काम किया लेकिन क्या शाह के मातहत मोदी कभी काम कर सकते हैं? इसके पीछे वो कारण देते हैं कि अटल-आडवाणी ने हिंदू राष्ट्रवाद के आधार में मौजूद मिलजुलकर काम करने की भावना को आत्मसात कर लिया था. इसी भावना के कारण, मोदी-शाह की तुलना में वाजपेयी-आडवाणी के संबंध ‘विचारधारा पर आधारित’ अधिक थे.
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व्यापकता के साथ लिखी गई किताब
विनय सीतापति की किताब भारतीय जनता पार्टी के उदय से पहले उसकी पृष्ठभूमि और हिंदू राष्ट्रवाद के जड़ तक जाती है और उस पूरी प्रक्रिया को खंगालती है जिसके जरिए आरएसएस ने राजनीतिक तौर पर अपनी भूमिका तय करने का फैसला किया.
इस किताब में पर्याप्त तौर पर स्त्रोतों का हवाला और लोगों से व्यापक तौर पर बातचीत की गई है. जुगलबंदी की संदर्भ सूची विशाल है और इससे ये झलकता है कि लेखक ने किताब को व्यापकता और एक किस्म की राजनीति को समझाने के लिए कितनी मेहनत की है.
सीतापति ने इस किताब को मूल रूप में अंग्रेज़ी में लिखा है जिसका अनुवाद नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र ने किया है. दोनों ने आसान भाषा में किताब का अच्छा अनुवाद किया है. अनुवाद में कहीं-कहीं कुछ दिक्कतें जरूर हैं लेकिन किताब की सामग्री के मद्देनज़र इसे बिसराया जा सकता है.
इस किताब में लेखक ने उन अकादमिक बहसों को भी शामिल किया है जिसकी पृष्ठभूमि को ये पूरी किताब कई घटनाओं से समझाती है. जिन तीन बहसों का जिक्र सीतापति ने किया है, वो है- हिंदू राष्ट्रवाद किया है? क्या समावेशी उदारवादी अवधारणा भाजपा पर लागू होती है? मोदी से पहले भाजपा के उत्थान के क्या कारण थे?
ये किताब मूल रूप से नरेंद्र मोदी के उत्थान के साथ पूरी होती है. इस किताब को पढ़कर इसके कारण को आसानी से समझा जा सकता है. सबसे अच्छी बात जो इस किताब को लेकर है वो है कि ये अपने मूल उद्देश्य से कहीं भी भटकती नहीं है.
भाजपा को एक राजनीतिक पार्टी से अलग विचारधारात्मक प्रयोग के तौर पर समझने के लिए इस किताब को जरूर पढ़ना चाहिए.
(विनय सीतापति की किताब ‘जुगलबंदी’ को पेंगुइन प्रकाशन के उपक्रम हिन्द पॉकेट बुक्स ने छापा है जिसका अनुवाद नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र ने किया है)
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