यादों के झरोखे से शशि पाधा
अक्टूबर 1968, जम्मू
लगभग छह महीने बीत चुके थे शादी हुए. पति की सुदूर चाइना बॉर्डर पर फील्ड पोस्टिंग. यानी परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी. कष्ट तो दोनों को था, लेकिन कैप्टन साहब ( मेरे पति ), “मैंने पहले ही कहा था कि शादी अगले वर्ष करो, लेकिन तुम्हारे माता-पिता नहीं माने” – की दलील मुझे रोने भी नहीं देती थी और फिर मैं पढ़ाई भी कर रही थी. “हर रोज़ चिट्ठी लिखूंगा’ या ‘छोटी सी तो हो तुम, अगली बार आऊंगा तो तुझे अपने कोट परका (फौजी लम्बा ख़ाकी कोट जिसे सर्दियों में सैनिक अपनी वर्दी के ऊपर पहन लेते हैं) में छिपा के ले जाऊंगा.” आदि-आदि न जाने कितने सारे वादे छुट्टी से वापिस लौटने के कुछ दिन पहले किये जाते थे. और फिर मैं जानूं या मेरे कमरे की दीवार पर टंगा कैलेंडर. एक लाल रंग की स्याही वाला पेन रात होते ही केलेंडर पर लिखी उस दिन की लिखी तारीख़ पर बड़े गहरी चोट के साथ क्रॉस चिह्न लगा देता था. मानो गवाही दे रहा हो कि एक दिन और जी लिया तुम्हारे बिना. दिन तो यूनिवर्सिटी में सहेलियों के साथ बीत जाता था. और मेरी शाम की सहेली थी मेरी सितार. मेरी उंगलियां सितार की तारों पर राग मालकौंस छेड़ देतीं थी. मेरे हृदय की सारी विरह वेदना उन स्वरों के आरोह – अवरोह के पर्दों में छिप जाती थी. मायके में रहने वाली नई ब्याहता लड़की खुल कर रो भी नहीं सकती थी. लाज आती थी सबसे. यह उन दिनों की बात है.
मार्च 1969, जम्मू
शुक्रवार था कि शनिवार, ठीक से याद नहीं. लेकिन यह याद है कि उस दिन यूनिवर्सिटी में क्लास नहीं थी. सोचा था बड़ी बहन के पास जाऊंगी, कुछ ख़रीदारी करनी थी. अचानक घर के बाहर एक टैक्सी रुकी. पौधों को पानी देते पिता जी की आवाज़ आई, “वाह! वाह! अचानक आना हुआ? स्वागत! स्वागत!” संस्कृत के विद्वान् मेरे पिता बहुत खुशी में डोगरी भाषा भूल कर हिंदी में बोलते थे. कौन आया होगा अभी यही सोच रही थी कि बाहर जो आवाज़ सुनाई दी, कानों पर विश्वास नहीं हुआ. झट से खिड़की का पर्दा उठा कर देखा ‘ये’ पिता जी के पैर छू कर बोल रहे थे, “चरण वन्दना पिता जी.” सारा परिवार अपने अपने कमरों से बाहर इनके स्वागत के लिए आ गया. सिवाय मेरे. मैं तो जैसे जड़वत हो गई थी. जब कभी अचानक अप्रत्याशित घट जाता है तो शरीर और मस्तिष्क उसे स्वीकार करने में भी कुछ समय लेता है. मेरे ‘ये’ बिना कोई सूचना के अचानक जो आ गये थे.
होठों पर हंसी और आंखों में आंसूं के सैलाब में डूब कर बस यही पूछा था, “बताया क्यूं नहीं?”
हंसते हुए जो उत्तर सुनने को मिला, उससे समझ नहीं आया कि खुश हो जाऊं कि —
“अचानक मेरा एक महीने का कोर्स आ गया है. कल आगरा जाना है मुझे. बीच में दो दिन की छुट्टी लेकर आ गया. पत्र भी लिखता तो मेरे चले जाने के बाद तुम्हें मिलता. सोचा पठानकोट के ट्रांजिट कैम्प से निकल कर एक दिन तो तुम्हारे साथ बिता सकता हूं.” उन दिनों हमारे घर में तो क्या आस–पास भी फोन की सुविधा नहीं थी. तो भला कैसे सूचित करते मैं?
इनके आने से घर में उत्सव का माहौल सा था. मन पसंद का खाना और मिठाइयां. रात को गाना-बजाना भी हुआ. यह हमारे घर की आम बात थी. और फिर ‘ये’ बहुत अच्छा गाते भी हैं. मुकेश के गानों के साथ जो महफिल जमीं कि सब भूल गये कि रात बहुत हो चुकी थी. मेरी मां ने कहा, “केशव जी, बस एक और गाना सुना दो.“
मेरी मां कहती थी, “केशव जी आंखों से हंसते हैं.” मुझे यह बात अजीब लगती थी. आज अचानक मेरी ओर देखते हुए या यूं कहूं कि अपनी आंखों से हंसते हुए इन्होंने गाना शरू किया — सवेरे वाली गाड़ी से चले जाएंगे, कुछ ले के जायेंगे, कुछ दे के जायेंगे – सवेरे वाली गाड़ी से चले जायेंगे —– और मुझे बाहों के घेरे में बांध कर ‘Foxtort’ नृत्य करने लगे. सारा परिवार कमरे के एक तरफ़ बैठ कर देख रहा था. मां, बड़ा भाई, भाभी, बड़ी बहन, जीजा जी. और मैं शर्म के मारे सुर्ख लाल हो गई थी. तब लडकियां ऐसे खुल कर बड़ों के सामने पति के साथ नृत्य नहीं करती थी. लेकिन फ़ौजी तो फ़ौजी होते हैं – एक दम बिंदास, जैसे वे, वैसे हम. होना ही पड़ा.
मार्च 1969, जम्मू
मैं स्वभाव से जिद्दी नहीं हूं, लेकिन आज मैंने सुबह होते ही जिद्द पकड़ ली कि मुझे भी इनके साथ आगरा जाना है. एक महीने तो साथ रह लेंगे. उसके बाद तो फिर से लम्बी जुदाई होगी. फौजी पति जुदाई को बड़ी सहजता से लेते हैं और पत्नियां — बड़ी मुश्किल से.
“भला यह क्या हुआ, अगर आगरा में मेस में ‘फैमिली ले जाने की अनुमति है तो मैं जाऊंगी.” यह मेरी दलील थी, साथ में आंसुओं का दरिया भी बह रहा था. पर जनाब टस से मस नहीं हुए.
“रेलवे की बुकिंग नहीं है, मेस में फैमिली के आने के लिए सूचित नहीं किया है, तुम्हारी पढ़ाई का हर्ज़ होगा, वापिस छोड़ने के लिए मेरे पास छुट्टी नहीं बची है, कैसे आओगी.” इतनी बातों का तो मेरे पास कोई उत्तर नहीं था. बस थोड़ी-थोड़ी देर के बाद यही कह रही थी – मुझे भी जाना है, आपके साथ ताजमहल देखना है.
बाहर टैक्सी खड़ी थी ट्रांजिट कैम्प जाने के लिए. मैं इन्हें छोड़ने के लिए साथ बैठ गई और मेरा भाई साथ-साथ स्कूटर ले कर चल पड़ा स्कूटर इनको साथ लेकर जाना था. ट्रांज़िट कैम्प से बस चलती थी जम्मू से पठानकोट तक क्यूंकि तब जम्मू में रेल सेवा नहीं थी. विदा के पल और नज़दीक आ रहे थे. पता नहीं क्यूं और कैसे —- कैप्टन साहब मेरे भाई के पास गए और कहा, “ वीरजी! आप जल्दी से घर जाइए और शशि के कुछ कपड़े ले आइये. यह मेरे साथ आगरा जायेगी.”
मुझे तो जैसे काटो तो खून नहीं. कानों पर विश्वास होना तो दूर की बात. मैं बिलकुल चुप थी. ऐसी प्रत्याशित घटनाओं के लिए मैं अभी तक तैयार नहीं थी. उम्र भी तो कम थी न!
खैर कपड़े आये, भाभी ने जो मिला, भेज दिया. मैंने ऑफिसर्स बस में बैठते ही कस कर इनकी बांह पकड़ ली थी. मेरे विवाहित जीवन की यह पहली यात्रा थी. तब हनीमून के लिए हर कोई नहीं जाता था.
तब फ़ौजियों के पास पैसों का छोटा सा बटुआ और बड़ा सा दिल होता था.
मार्च, पठानकोट स्टेशन
हर फौजी की तरह इनका सामान एक स्टील के काले बक्से में था और मेरा एक बैग में. समय कम था. मैं थोड़ी सहमी-सहमी थी. मुझे अपने काले ट्रंक पर बिठा दिया और कहा, “मैं जल्दी से आपका टिकट लेकर आता हूं. मुझे अपना स्कूटर भी लोड कराना है. देर लग सकती है. ट्रेन प्लेटफार्म पर लगते ही आप इस कुल्ली की सहायता से सामान चढ़ा कर डिब्बे में बैठ जाना. अगर मैं न भी दिखाई दिया तो घबराना नहीं, मैं जैसे तैसे भाग कर चढ़ ही जाऊँगा.“
ट्रेन आ गई, लोग धक्का-मुक्की से चढ़ने लगे. कुल्ली ने काला बक्सा सर पर उठा लिया और मुझे चढ़ने के लिए कहा. मैं नहीं चढ़ी. ‘ये’ जो नहीं आये थे. ट्रेन चल पड़ी. और मैं स्टेशन की ओर इनको ढूंढती रही. यह भागते हुए आए और डिब्बे में चढ़ गए. यही सोचा होगा कि मैं तो बैठ गई हूं और मैं अवाक सी रेंगती ट्रेन को देख रही थी. प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ थी लेकिन मैं नितांत अकेली बैठी रही इनके काले बक्से पर. मैं बहुत डर गई थी. इतने में देखा कि दूर से ‘ये’ भागते हुए आ रहे थे. हाँफते हाँफते बस यही कहा, “ listen! I don’t want you to be like a steel box whom I have to carry everywhere. You have to carry your life yourself with me or sometimes without me. मैंने कहा था न कि मैं ट्रेन पकड लूंगा.’’
इनके स्वर में खीज थी, क्रोध था. मैं अपने विवाहित जीवन के पहले सफ़र में ही रो पड़ी थी. उसके बाद तो मैं कभी स्टील बॉक्स की तरह जड़वत नहीं रही. हां, यह दूसरी बात है कि हमारा पूरा सैनिक जीवन काले स्टील के बक्सों में बंद होकर बंजारों सा घूमता रहा. जीवन की पहली झिड़की ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया था. हमारा स्कूटर तो उस ट्रेन से चला गया, लेकिन हम दोनों और हमारा काला स्टील बॉक्स अगली ट्रेन से गए. ट्रेंनें भी घंटों के अंतराल के बाद चलतीं थीं.
यह उन दिनों की बात थी.
(यह ‘सैनिक पत्नियों की डायरी’ किताब का एक अंश है जिसे लिखा है शशि पाधा ने और इसकी संपादक हैं वंदना यादव. सॉफ्टकवर में इसकी कीमत 350₹ है.)