scorecardresearch
शनिवार, 24 मई, 2025
होमसमाज-संस्कृतिआज से 54 साल पहले हुआ था दिलचस्प मामला — जब इंदिरा गांधी ने बैंक से मांगे 60 लाख रुपये

आज से 54 साल पहले हुआ था दिलचस्प मामला — जब इंदिरा गांधी ने बैंक से मांगे 60 लाख रुपये

यह घटना नई दिल्ली के संसद मार्ग स्थित एसबीआई (जो उस वक्त इम्पीरियल बैंक कहलाता था) की शाखा में घटित हुई थी. इस दिन सुबह शाखा के चीफ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा के पास एक फोन आता है, जिस पर उनसे 60 लाख रुपए की मांग की जाती है.

Text Size:

जब बैंक कैशियर के पास आया था फोन: ‘इंदिरा गांधी को चाहिए 60 लाख रुपए!’

आज से ठीक 54 साल पहले यानी 24 मई 1971 को एक ऐसी घटना घटी थी, जिस पर न तो उस वक्त कोई यकीन कर सका था और न ही आज किसी को होगा. लेकिन उस एक घटना ने पूरे देश को झकझोरकर रख दिया था. वह घटना बैंक की एक शाखा में 60 लाख रुपए की ‘सेंधमारी’ से जुड़ी थी और वह भी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नाम पर. यह राशि आज के हिसाब से 170 करोड़ रुपए से भी ज्यादा होगी.

यह घटना नई दिल्ली के संसद मार्ग स्थित एसबीआई (जो उस वक्त इम्पीरियल बैंक कहलाता था) की शाखा में घटित हुई थी. इस दिन सुबह शाखा के चीफ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा के पास एक फोन आता है, जिस पर उनसे 60 लाख रुपए की मांग की जाती है. आश्चर्य की बात यह रही कि वे बैंक से इतनी भारी-भरकम राशि न केवल निकाले जाने के लिए राजी हो जाते हैं, बल्कि बैंक की कार से स्वयं वह राशि निर्दिष्ट व्यक्ति को सौंप भी आते हैं.

आखिर मल्होत्रा ने ऐसा क्यों किया? ऐसी क्या मजबूरी थी कि वे इतनी भारी-भरकम राशि किसी अनजान शख्स को सौंप आए? जैसा कि मल्होत्रा ने बाद में पुलिस और अदालतों में दिए अपने बयान में दावा किया था, ऐसा उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कथित ‘आदेश’ पर किया था. बयान के मुताबिक, सुबह 11:45 बजे उन्हें सबसे पहले एक ऐसा फोन आता है, जिसमें सामने वाला स्वयं को प्रधानमंत्री का सचिव (पी.एन. हक्सर) बताता है. हक्सर कथित तौर पर उनसे कहते हैं कि प्रधानमंत्री एक अत्यंत गोपनीय काम के लिए 60 लाख रुपए किसी शख्स को भिजवाना चाहती हैं. जब मल्होत्रा कहते हैं कि रसीद या चेक के बगैर यह राशि पहुंचाना मुश्किल है तो तथाकथित हक्सर फोन उस शख्स को थमा देते हैं, जो स्वयं को भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी बताती हैं. फोन कॉल से लेकर निर्दिष्ट शख्स तक यह राशि पहुंचाने का ये पूरा वाकया एक से दो घंटे में ही निपट जाता है. इसके कुछ घंटों के बाद मल्होत्रा को एहसास होता है कि उनके साथ बहुत बड़ा धोखा हो गया है और फिर यह मामला सबके सामने उजागर होता है.

जैसा कि मल्होत्रा ने बाद में कहा था कि वे इंदिरा गांधी से बात करके इतना ‘मंत्रमुग्ध’ हो गए थे कि उन्होंने और कुछ सोचा ही नहीं. बगैर उच्च अधिकारियों को सूचित किए और लिखित आदेश के बिना वे सीधे पैसे निकालकर उस शख्स को दे आए, जिसकी पहचान बाद में पूर्व आर्मी कैप्टन रुस्तम सोहराब नागरवाला के रूप में हुई थी. इस पूरे मामले का इसे ही मास्टरमाइंड माना गया. उसे घटना वाले दिन ही रात को करीब 8 बजे गिरफ्तार कर लिया गया. अगले कुछ दिनों में अधिकांश राशि भी बरामद कर ली गई. बाद में उसने दावा किया था कि उसी ने इंदिरा गांधी और पी.एन. हक्सर की आवाज की नकल कर मल्होत्रा को झांसा दिया था. उसने यह भी कहा था कि ये फोन कॉल्स बैंक के परिसर में स्थित एक टेलीफोन बूथ से ही किए गए थे. हालांकि पुलिस महकमे के अनेक अफसरों सहित कई लोगों का हमेशा यही मानना रहा कि एक शख्स, वह भी जो एक हादसे की वजह से होठों के प्रॉपर मूवमेंट पर अधिकार खो चुका था, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तो क्या, किसी सामान्य महिला की आवाज की नकल भी नहीं कर सकता था. इसलिए यह रहस्य भी हमेशा बना रहा कि अगर नागरवाला ने बात नहीं की तो फिर उस दिन किसके आदेश पर मल्होत्रा ने वैसे निकाले थे.

कौन था नागरवाला?

रुस्तम सोहराब नागरवाला, जिसे उसके दोस्त ‘रुसी’ कहते थे, सेना का एक पूर्व अधिकारी था. रुसी साल 1943 में भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल हुआ और अगले वर्ष अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया. उसे 1 ऑर्डनेंस कॉर्प्स से अटैच कर हरबंसपुर, क्वेटा, लाहौर, जबलपुर, देहू रोड और किरकी जैसी जगहों पर तैनात किया गया. हालांकि 1949 में एक सड़क हादसे की वजह से उसका एक पैर गंभीर रूप से जख्मी हो गया था और इस वजह से उसे सेना से हटा दिया गया. उसके कई मित्र थे, जिनमें कुछ प्रतिष्ठित कारोबारी भी थे. मित्रों की सहायता और जुगाड़बाजी के दम पर वह इस स्कैंडल के पहले किसी तरह अपनी जिंदगी काटता रहा. घटना के एक साल के भीतर ही 2 मार्च 1972 को पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गई. उसकी मौत की परिस्थितियों पर भी सवाल उठे, लेकिन बाद में इन पर कुछ नहीं हुआ.

ऐसा करने के पीछे नागरवाला का मकसद क्या था, इसका उसने काफी लम्बा स्पष्टीकरण दिया था. उसने अदालत को बताया था कि 1947 के बंटवारे के दौरान हुईं ‘लूट और हत्याओं’ का उस पर काफी गहरा असर पड़ा था. उस समय वह अम्बाला में तैनात था और फिर बांग्लादेश में जो कुछ हो रहा था, उसे ‘बर्दाश्त’ करना भी उसके लिए असंभव हो गया था. जैसा कि उसने दावा किया था, उसका उद्देश्य बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के सेनानियों के मुद्दे को सबकी नजरों में लाने के लिए बैंक लूटकर कुछ ‘सनसनीखेज’ करना था. गौरतलब है कि इस घटना के कुछ महीनों बाद बांग्लादेश का निर्माण हुआ था.

इंदिरा गांधी का क्या हुआ?

इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की संलिप्तता कभी साबित नहीं हो पाई, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री का नाम जुड़ा होने की वजह से इस पर राजनीति खूब हुई और यह मुद्दा उन दिनों अखबारों की सुर्खियों में भी बना रहा. जब मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने तो इंदिरा गांधी के ‘कृत्यों’ को उजागर करने के अपने चुनावी वादे के अनुसार जनता पार्टी सरकार ने नागरवाला मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पिंगले जगनमोहन रेड्‌डी को नियुक्त कर दिया. 9 जून 1977 को इस बाबत गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की थी.

आयोग ने जब इंदिरा गांधी को तलब किया तो उन्होंने साफ कहा था, ‘मेरा इस मामले से कोई लेना-देना ही नहीं था. इससे जुड़े एक भी शख्स को मैं जानती तक नहीं थी.’ उन्होंने कहा कि इस घटना के बारे में पता चलते ही उनके दिमाग में सबसे पहले यही आया था कि ‘भला ऐसा कैसे हो सकता है कि इतने लंबे समय से ऐसी नौकरी में रहने वाला व्यक्ति (मल्होत्रा) इस तरह से पैसे कैसे निकाल सकता है, या उसे यह सोचना चाहिए था कि आखिर एक प्रधानमंत्री खुद उसे फोन क्यों करेंगी. यह अपने आप में काल्पनिक और असंभव बात थी. मुझे नहीं पता था कि पैसे इतनी आसानी से निकाले जा सकते हैं. कुल मिलाकर पूरी कहानी मनगढ़ंत थी.’

नागरवाला ने यह दावा किया था कि वह इंदिरा गांधी को जानता था और उनसे मिला भी था, लेकिन आयोग का मानना था, ‘हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि नागरवाला को सेना से निकाले जाने के बाद 1954 या 1955 में उसने अंतरिम राहत या मुआवजा पाने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाकात की होगी और 15 दिसंबर 1967 को वह वियतनाम युद्ध के सिलसिले में भी उनसे मिला होगा. लेकिन यह संभव नहीं है कि इतनी-सी मुलाकातों में श्रीमती गांधी नागरवाला को इतने अच्छे से जानने लगी होंगी कि वे उसे अपने कथित गोपनीय कार्यों के निर्वहन (60 लाख रुपए की राशि को हैंडल करने) के लिए अपना कुरियर नियुक्त कर दें.’

14 जनवरी 1980 को प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा गांधी की फिर से वापसी हुई. बाद में यह मामला अधिकृत तौर पर 15 जनवरी 1981 को बंद कर दिया गया. लेकिन सवाल लंबे अरसे तक उठते रहे.

(THE SCAM THAT SHOOK A NATION THE NAGARWALA SCANDAL के लेखक प्रकाश पात्रा और रशीद किदवई हैं. इस किताब को हार्पर कॉलिन्स ने छापा है. किताब का यह अंश लेखक की अनुमति से छापा जा रहा है)

share & View comments